शूरवीरो की गाथा

परमवीर रामा राघोबा राणे!!

अपने वचन को निभाने का सबसे अच्छा तरीका है कि वचन ही ना दें लेकिन वह काम कर दीजिए

नेपोलियन बोनापार्ट

लगता है नेपोलियन बोनापार्ट ये शब्द परमवीर रामा राघोबा राणे के लिए ही कई वर्ष पहले लिख चुके थे, तभी शायद बिना कोई वचन दिए एक आरक्षी (कॉन्स्टेबल) का पुत्र भारत माँ की सेवा के लिए देश की सेना में शामिल होकर भारत का नाम विश्व में रौशन करता है।

ये सच है कि प्रकृति भी झूम उठती है जब धरा पर भारत माँ के सच्चे सपूत का अवतरण होता है। मौसम खुद ब खुद सुहाना हो जाता है, हवाओं का वेग सावनी हो जाता है। नदियाँ की लहरें मद्धम होकर गुनगुनाने लगती हैं। सागर गीत गाने लगता है। किरणें मुस्कुराकर अपनी आभा बिखेरने लगतीं हैं।

शायद इसलिए ही 26 जून 1918 की भोर की पहली किरण कर्नाटक के हवेली गाँव में मुस्कुराकर अपनी आभा फैलाए हुए थी क्योंकि भारत माँ के एक सच्चे सपूत के रूप में कॉन्स्टेबल आर. पी. राणे जी को ईश्वर पुत्र रत्न से नवाज़ने वाले थे।

    पिता राणे जो कि कर्नाटक के उत्तरी कनारा जिले के चेण्डिया गाँव से पुलिस कांस्टेबल थे। उनके लिए 26 जून 1918 का दिन बड़ा ही अनमोल था, घर में सभी सदस्यों के होंठों पे मुस्कुराहट थी । चेहरे कमल की तरह खिले हुए थे ।  गली, मोहल्ले, पड़ोस और चौराहों पर मिठाइयाँ बाँटी जा रही थी । हर तरफ उमंग ही उमंग का आलम था क्योंकि राणे परिवार की गोद ईश्वर ने रामा राघोबा राणे जैसे वीर पुत्र रत्न से भरकर परिवार को अनुपम उपहार दिया था।

 राघोबा का प्रारंभिक जीवन 

धीरे धीरे समय बीतता गया । नन्हा बालक बड़ा होता गया, शीघ्र ही राघोबा की प्रारंभिक शिक्षा का भी समय भी निकट ही आ गया, विद्यालय में प्रवेश भी हो गया परन्तु राघोबा की प्रारम्भिक शिक्षा, ज्यादातर जिला स्कूल में हुई परन्तु पिता के एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण होते रहने के  कारण शिक्षा बिखरी-बिखरी सी हुई। लेकिन घर में वर्दी का वातावरण था, जिसके संस्कार बेटे पर पड़ना अवश्यंभावी था, साथ ही पिता एक जिम्मेदार सिपाही थे इसलिए बेटे राघोबा पर भी देश के लिए कुछ कर गुजरने की दिल में तमन्ना जाग्रत होने लगी। 1930 में वह असहयोग आंदोलन से प्रभावित हुए, जिसने ब्रिटिश शासन से भारतीय स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाया। आंदोलन में उनकी भागीदारी ने उनके पिता को चिंतित कर दिया, जो परिवार को वापस चेंदिया में अपने पैतृक गाँव ले गए।

ये अक्षरशः सत्य है कि पिता के सामने बेटा कितना भी बड़ा हो जाए उसका ओहदा आजीवन छोटा ही होता है इसलिए शायद पिता को ये पता न था कि उनकी नज़रों में जो छोटा है वो दरअसल अब बढ़ा हो गया है, बढ़े होने के साथ-साथ बेटे की सोच भी बड़ी हो गई है। उसके रक्त के कण-कण में माँ भारती के लिए कुछ कर गुजरने की हुँकार गूँज रही है।

 भारतीय सेना में बढ़ते कदम 

जब हृदय में देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना होती है और मन जोश से परिपूरित होता है ऐसे में वीरों के कदम स्वतः ही देश का सिपहसालार बनने की ओर अग्रसर होने लगते हैं। राघोबा जी में भी जोश कम नहीं था । बात 1940 की है, जब दूसरा विश्व युद्ध अपने चरम पर था।

 आरंभ हुई यात्रा एक योद्धा की

जिन्हें तूफानों से खेलने का शौक होता है वो आँधियों से कब डरते हैं, जिन्हें बवंडर में मंडराने का शौक होता है, वो सुनामी से नही घबराते, जिन्हें काँटो पे चलने का शौक होता है वो पथरीली राहों को मख़मल समझते हैं।

चूँकि राघोबा के भीतर भी कुछ ऐसे ही जोश भरा जीवन जीने की चाह थी तो उन्होंने भारतीय सेना में जाने का मन बनाया। उनकी इच्छा रंग लाई और 10 जुलाई 1940 को वह बॉम्बे इंजीनियर्स में आ गए। वहाँ इनके उत्साह और दक्षता ने इनके लिए बेहतर मौके पैदा किए। यह अपने बैच के सर्वोत्तम रिक्रूट चुने गए। इस पर इन्हें पदोन्नत करके नायक बना दिया गया तथा इन्हें कमांडेंट की छड़ी प्रदान की गई। प्रशिक्षण के बाद राघोबा 26 इंफेंट्री डिवीजन की 28 फील्ड कम्पनी में आ गए। यह कम्पनी बर्मा में जापानियों से लड़ रही थी। बर्मा से लौटते समय रामा राघोषा राणे को दो टुकड़ियों के साथ ही रोक लिया गया और उन्हें यह काम सौंपा गया कि वह बुथिडांग में दुश्मन के गोला बारूद के जखीरे को नष्ट करें और उनकी गाड़ियों को नष्ट कर दें। राघोबा और उनके साथी इस काम को करने में कामयाब हो गए। 

आगे योजना थी नौसेना के जहाज द्वारा नदी पार करना परन्तु ऐसा नहीं हुआ ।  राघोबा और उनके साथियों को नदी खुद पार करनी पड़ी। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि उस नदी पर जापान की जबरदस्त गश्त और चौकसी लगी हुई थी। इसके बावजूद राघोबा और उनके साथी जापानी दुश्मनों की नज़र से बचते हुए उनको मात देते हुए इस पार आए और इन लोगों ने बाहरी बाज़ार में अपने डिवीजन के पास अपनी हाजिरी दर्ज की। यह एक सराहनीय, हिम्मत तथा सूझबूझ का काम था, जिसके लिए इन्हें तुरंत हवलदार बना दिया गया।

दुश्मन पर काबू

दिसम्बर 1947 में दुश्मन ने झंगर पर कब्ज़ा कर लिया था। 18 मार्च 1948 को देश की सेना ने फिर से झंगर पर अपना काबू पा लिया। मेजर आत्म सिंह की टुकड़ी के राजौरी पहुँचने से पहले उन्होंने झंगर को पाकिस्तानी सेना को खदेड़ कर कब्ज़ा कर लिया।

इसी दौरान पाकिस्तानी सेना पीछे हटते हुए राजौरी और पुंछ के बीच के राष्ट्रीय राजमार्ग को नष्ट कर दिया।

 रास्ता ना होने के कारण मेजर आत्म सिंह की सैन्य टुकड़ी ने नौशहरा से होकर राजौरी पहुँचने की कोशिश की। यह बहुत ही पुराना मुग़ल काल का रास्ता था। 4थी  डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने 8 अप्रैल 1948 को राजौरी में बरवाली चोटी पर हमला कर दिया और दुश्मनों को और पीछे खदेड़ दिया।  यह जगह नौशेरा से 11 किलो मीटर दूर थी।  परन्तु बरवाली के आगे का मार्ग खराब था साथ ही पाकिस्तानी सेना ने बारूदी सुरंगें भी बिछा रखी थीं, इस कारण भारतीय सेना के वाहनों और टैंक आगे बड़ने में काफ़ी परेशानी हो रही थी।

’राहें हों कितनी भी पथरीली, राहों में हों चट्टानें हजार।
जज़्बे, जुनून,जोश से हर पत्थर पिघल जाता है ।’

कहते हैं न जोश और जज़्बा हर पत्थर को पिघला देता है, राहों में कितने भी हों उन्हें दूर कर देता है। शायद इसलिए ही इस मुश्किल की घड़ी में 2री लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे और उनकी 37 असाल्ट फील्ड कंपनी साथ ही 4थी  डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए 8 अप्रैल 1948 को पाकिस्तानी सेना द्वारा लगाई गई बारूदी सुरंग को हटाने का काम शुरू किया। इधर पाकिस्तानी सेना इन पर फायरिंग भी लगातार कर रहे थे। इसमें अपनी सेना के दो सिपेह सालार मारे गये और रामा राघोबा  राणे सहित 5 लोग बुरी तरह घायल हो गये।

घायल होने के बाद भी राणे अपने साथियों के साथ मिल कर उस दिन शाम तक बारूदी सुरंगों को हटाने का काम खत्म कर दियाए और सेना के वाहन व टैंकों के लिए आगे बड़ने का रास्ता बना दिया।

बेशक रास्ता तो बारूदी सुरंग हटाकर बनना ही थाए क्योंकि

जिसे लहू.लहू नहीं एएक रंग लगता हो । जिसे लहू-लहू नहींए जोश और उमंग लगता हो। जिसे काँटे.काँटे नहीं एमख़मल के पैबंद लगते हो। जिसका दिल ऐसी सोच.जोश.ज़ज़्बे से सरोसार हो।

  इसके साथ ही माँ भारती के एक सच्चे वीर सपूत ने ये बीड़ा अपने कंधों पर लिया हो । ऐसे में दुनियाँ की कोई भी ताकत वीर को बारूदी सुरंगों को हटाकर रास्ता बनाने से कैसे रोक सकती थी।

रामा राघोबा के जीवन के महत्वपूर्ण तथ्य एवं परमवीर सम्मान यहाँ उल्लेखनीय है किए१९१८ में पैदा हुए श्री राणे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना में कार्यरत तो थे ही। साथ ही युद्ध के बाद की अवधि के दौरान भी वह सेना में रहे और यह सर्वविदित है कि १५ दिसंबर १९४७ को भारतीय सेना के कोर ऑफ इंजीनियर्स के बॉम्बे सैपर्स रेजिमेंट में नियुक्त किये गये थे। एवं अप्रैल १९४८ मेंए १९४७ के भारत.पाकिस्तान युद्ध के दौरान श्री राणे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई बाधाओं और खनन क्षेत्रों को साफ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर भारतीय सेना द्वारा राजौरी का कब्जा कर उनके कार्यों ने भारतीय टैंकों को आगे बढ़ाने के लिए रास्ता स्पष्ट करने में मदद की। उनकी वीरता के लिए ८ अप्रैल १९४८ को उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। वे १९६८ में भारतीय सेना से एक प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए। सेना के साथ अपनी २८ साल की सेवा के दौरानए उन्हें पांच बार डेस्पैप्स में वर्णित किया गया था। १९९४ में ७६ वर्ष की उम्र में इस वीर का निधन हो गया।

इस वीर के जीवन गाथा की सबसे  महत्वपूर्ण सम्मानीय बात है कि भारत सरकार के शिपमेंट मंत्रालय के तत्वावधान मेंए भारतीय नौवहन निगम ;एससीआईद्ध ने परम वीर चक्र प्राप्तकर्ताओं के सम्मान में उनके 15 तेल कच्चे तेल टैंकरों को नामित किया। एमटी लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे नामक कच्चे तेल के टैंकर को पीवीसी को 8 अगस्त 1984 को एससीआई को सौंप दिया गया था। 25 साल की सेवा के बाद टैंकर को समाप्त किया गया था।

परमवीर को श्रद्धांजलि

7 नवंबर 2006 को कर्नाटक के रबिंद्रनाथ ठाकुर समुद्रतट में अपने गृहनगर कारवार में आईएनएस चैपल युद्धपोत संग्रहालय के साथ एक समारोह में श्री राणे की स्मृति में एक सराहनीय कार्य कर उनकी प्रतिमा का अनावरण किया गया। इसका उद्घाटन लघु उद्योग के पूर्व मंत्री शिवानंद नाइक ने किया और यह पश्चिमी कमान के वाइस एडमिरल संग्राम सिंह बायस के फ्लैग आफिसर कमांडर-इन-चीफ की अध्यक्षता में हुआ। इस प्रकार परमवीर रामा राघोबा राणे को श्रद्धांजलि देकर अमरत्व प्रदान किया गया।

जय हिंद के वीर

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