परमवीर चक्र

महावीर चक्र विजेता – कमांडर मेहर सिंह

जन्में यूँ तो कईं पूत जमीं पर, पर वो विरला आया हैं।
प्रथम पूज्य भारत माता, राग भी भारत का गाया हैं।।
जिस जमीं का नमक खाया, उसका कर्ज चुकाया है।
वो वीर सिपाही मेहर सिंह, भारत का लाल कहलाया हैं।।
दुश्मन को धूल चटाकर, हार का स्वाद चखाया है।
तभी पराक्रमी मेहर सिंह ने महावीर चक्र को पाया है।।

कमांडर मेहर सिंह भारतीय वायु सेना के ऐसे कमांडर थे, जिन्होंने कश्मीर पर कब्जा करने के पाकिस्तानी सपने को चकनाचूर कर दिया था। उनकी रणनीति इतनी शानदार थी कि उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। करारी हार के पश्चात् भी पाकिस्तान वायु सेना के प्रमुख एयर चीफ मार्शल असगर खान ने उनके युद्ध कौशल को देखते हुए उनकी तारीफ की थी।
खास बात यह भी है कि मेहर सिंह का जन्म 1915 में लायलपुर (अब पाकिस्तान में फैसलाबाद) में ही हुआ था।

आइए आज ऐसी ही सक्षियत के विषय में पढ़ते हैं जो दुश्मनों को धूल चटाकर आए और भारत का सिर गर्व से ऊंचा किया।
15 अगस्त 1947 की तारीख। इसी दिन भारत आजाद हुआ था, लेकिन अभी भी 565 रियासतों में बंटा था। उस समय पाकिस्तान की नजर जम्मू और कश्मीर पर टिकी थी। यह सूबा मुस्लिम बहुल था, लेकिन शासन हिंदू राजा का था। ऐसे में पाकिस्तान को मौका दिखा और उसने जम्मू और कश्मीर पर कब्जे के लिए ऑपरेशन गुलमर्ग लॉन्च कर दिया। इसके तहत पाकिस्तान ने लगभग 15000 कबायलियों की कश्मीर में घुसपैठ कराई। उस वक्त पाकिस्तान और भारत के आर्मी चीफ ब्रिटिश थे।

जैसे ही पाकिस्तान के ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ मेजर जनरल डगलस ग्रेसी को यह सूचना मिली, उन्होंने इसकी जानकारी 24 अक्टूबर, 1947 की दोपहर को अपने भारतीय समकक्ष लेफ्टिनेंट जनरल सर रॉब लॉकहार्ट को दी। लेफ्टिनेंट जनरल लॉकहार्ट ने फिर वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को सूचित किया। इसके बाद यह सूचना प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंचाई गई। इस लंबी प्रक्रिया में जवाबी कार्रवाई के करीब छह कीमती घंटे बर्बाद हो गए।

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आसान नहीं था भारत को सैन्य कार्रवाई का मौका मिलना – पाकिस्तानी कबायलियों ने 22 अक्टूबर को ही मुजफ्फराबाद और डोमेल पर कब्जा कर लिया। 24 अक्टूबर तक ये कबायली आक्रमणकारी जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से सिर्फ 35 मील दूर तक पहुँच गए। उन्होंने श्रीनगर तक जाने वाली बिजली की लाइन काट दी और राजधानी को अंधेरे में डुबो दिया। इस हमले ने महाराजा हरिसिंह के जम्मू और कश्मीर को स्वतंत्र राज्य रखने के सपने को भी तोड़ दिया। बाद में भारत की मदद के बदले महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर को विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। इसके साथ ही भारतीय सेना को जम्मू और

कश्मीर में सैन्य कार्रवाई करने का मौका भी मिल गया।
सैनिकों को श्रीनगर तक पहुँचाने के लिए विमान ही क्यों चुना?

उस समय जम्मू से आगे श्रीनगर तक सड़क की हालत बहुत खराब थी। भारतीय सेना को सड़क के रास्ते श्रीनगर तक भेजना समय लेने वाला होता, जबकि पाकिस्तानी कबायली आक्रमणकारी हर घंटे आगे बढ़ रहे थे। ऐसे में भारतीय सैनिकों को हवाई मार्ग के जरिए श्रीनगर तक भेजने की योजना। तैयार की गई। हालांकि, यह काम आसान नहीं था, क्योंकि श्रीनगर और जम्मू की हवाई पट्टियां सिर्फ शाही परिवार के हल्के और निजी विमानों के लिए थीं। वहाँ कोई नेविगेशनल या लैंडिंग में सहायता वाले उपकरण नहीं थे। विमानों में ईंधन भरने की भी सुविधा नहीं थी। ऊंचे पहाडों से घिरे रनवे अक्सर धुंध या बादलों से ढके रहते थे। इसके बावजूद भारत ने अपने पहले परिवहन विमानों को डकोटा के जरिए सैनिकों को श्रीनगर भेजने का ऑपरेशन शुरू किया।

श्रीनगर में लैंड करना खतरनाक ही नहीं बल्कि जानलेव भी था डकोटा विमानों को भी भारत ने खरीदा नहीं था, बल्कि ये अंगरेजों के छोड़े गए 12 नंबर स्क्वाड्रन का हिस्सा थे। पहाड़ी क्षेत्र के अलावा यह हवाई पट्टी पक्की नहीं थी, ऐसे में हर लैंडिंग और टेकऑफ के दौरान धूल का तूफान उठता था। इससे कुछ समय तक कुछ भी साफ नहीं दिखाई देता था। इन सबके बावजूद सैनिकों को उनके साजों सामान के साथ श्रीनगर पहुँचाने के लिए भारतीय वायु सेना के डकोटा विमानों को लगातार उड़ानें भरनी पड़ी। पायलटों को यह भी डर था कि अगर रनवे पर कोई दुर्घटना होती है तो इसका मतलब पूरे ऑपरेशन को बंद करना होगा। इस समय तक दुश्मन श्रीनगर के और करीब पहुँच गया था। ऑपरेशन के पहले दिन 27 अक्तूबर को श्रीनगर से 28 उड़ानें टेकऑफ हुईं।

मेहर सिंह ने किया ऑपरेशन का नेतृत्व कबायली हमलावरों से लड़ने के लिए 1 सिख पलटन को श्रीनगर ले जाया गया। अगले पांच दिनों में भारतीय सेना की एक पूरी ब्रिगेड को ले जाया गया। डकोटा विमान सैनिकों को ढो रहे थे, जबकि स्पिटफायर, , टेम्पेस्ट और हार्वर्ड जैसे लड़ाकू बमवर्षकों ने भारतीय सेना को जमीनी सहायता प्रदान की। इस ऑपरेशनल ग्रुप के प्रमुख थे एयर कमांडर मेहर सिंह। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपने साहस के लिए विशिष्ट सेवा पुरस्कार पाया था। यह उस वक्त किसी भी वायु सेना अधिकारी को मिला एकमात्र बड़ा पुरस्कार था। मेहर सिंह ने अपने जवानों में आत्मविश्वास जगाया क्योंकि वे आगे बढ़कर नेतृत्व करने में विश्वास करते थे। द्वितीय विश्व युद्ध में, उन्होंने एक ब्रिटिश टू सीटर जनरल परपज मिलिट्री सिंगल इंजन बाइप्लेन वेस्टलैंड वापिटी और ब्रिटिश सिंगल सीट लड़ाकू विमान हॉकर हरिकेन उड़ाया था।

असाधारण सैनिक थे मेहर सिंह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब वे उत्तर-पश्चिम सीमांत क्षेत्र में एक मिशन के दौरान कबायलियों की टुकड़ी पर हमला कर रहे थे, तब उनके वापिटी विमान का ईंधन टैंक दुश्मन की गोली से फट गया था। इससे उन्हें अपने बाइप्लेन को घाटी में इमरजेंसी लैंडिंग के लिए बाध्य होना पड़ा। मेहर सिंह अपने गनर के साथ विमान के मलबे से बाहर निकले और बिना किसी नक्शे के अंधेरे में दुश्मन के इलाके में घूमते रहे। कई घंटों बाद उन्हें ब्रिटिश मिलिट्री की एक चौकी मिली, जिससे उन्हें वापस बेस तक पहुँचाया गया, लेकिन उन्होंने इसके अगले ही दिन फिर से उड़ान भरनी शुरू कर दी।

मेहर सिंह के नेतृत्व ने बचाया कश्मीर1947 में, जब मेहर सिंह नंबर 1 ऑपरेशनल ग्रुप का नेतृत्व कर रहे थे, तब श्रीनगर को भारतीय सेना और भारतीय वायुसेना के संयुक्त प्रयास से सुरक्षित किया गया था। स्वतंत्रता के बाद पहले ही ऑपरेशन में, भारतीय वायुसेना ने न केवल रॉकेट और बंदूकें चलाईं, बल्कि दुश्मन पर बम भी गिराए। इस दौरान 3 नवंबर को मेंढर पर पाकिस्तानी कबायलियों का कब्जा हो गया और उनका अगला लक्ष्य हाजी पीर दर्रे के दक्षिण में स्थित पुंछ पर कब्जा करना था। उरी को पुंछ से जोड़ने वाला हाजी पीर दर्रा काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस सड़क के जरिए उरी से पुंछ के बीच की दूरी सिर्फ 56 किमी है। भारतीय सेना भी पुंछ तक पहुँच गई, लेकिन पाकिस्तानी कबायलियों ने अच्छी तरह से पोजीशन ले रखी थी।

पुंछ में भी मेहर सिंह ने दिखाया कमाल पुंछ में भारतीय सेना और पाकिस्तानी कबायलियों में भयंकर लड़ाई हुई। उस वक्त के अंगरेज जनरल ने पुंछ से पीछे हटने की सलाह दी थी, लेकिन नेहरू इस बात पर अड़े रहे कि पुंछ को दुश्मनों के हवाले नहीं किया जाएगा। पुंछ में कोई हवाई पट्टी नहीं थी। ऐसे में सैनिकों और शरणार्थियों के लिए हथियार, गोला-बारूद, भोजन और चिकित्सा आपूर्ति एयरड्रॉप की गई। भारतीय सेना ने डकोटा को उतारने के लिए एक अस्थायी हवाई पट्टी पर काम शुरू किया। बिना किसी उपकरण के, सेना के सैनिकों और शरणार्थियों ने जम्मू और कश्मीर मिलिशिया परेड ग्राउंड पर एक हवाई पट्टी बनाई। हवाई पट्टी बनाने में छह दिन लगे, जबकि भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान दुश्मन पर नजर रखे हुए थे।

दुश्मनों के कब्जे से पुंछ करावाया आजाद दिसंबर के दूसरे सप्ताह में, जब हवाई पट्टी तैयार हो रही थी, एयर कमांडर मेहर सिंह ने एयर वाइस मार्शल सुब्रतो मुखर्जी और आवश्यक आपूर्ति लेकर पहला डकोटा विमान उतारा। हवाई पट्टी एक पहाड़ी की समतल चोटी पर थी, जिसके तीन तरफ नदियां थीं और चौथी तरफ खड़ी ढलान थी। इसके अलावा, चारों तरफ से दुश्मन की गोलीबारी का डर था। ऐसे में सेना ने लंबी दूरी तक मार करने वाली फील्ड गन की मांग की। 25 पाउंड वजनी बंदूकें ले जाने वाले डकोटा विमान को दिन में हवाई पट्टी पर उतारने की कोशिश की गई, लेकिन दुश्मनों की गोलीबारी इतनी तेज थी कि विमान को वापस भेजना पड़ा। बाद में मेहर सिंह ने कुछ तेल के दीयों की मदद से रात में विमान उतारने का फैसला किया और इसे सफलतापूर्वक करने में कामयाब भी रहे।

महावीर चक्र विजेता की कहानी
कमांडर मेहर सिंह इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने पांच डकोटा विमानों को बमवर्षक विमानों में बदल दिया। डकोटा को उनके कार्गो में 500 पाउंड के बम ले जाने के लिए अपग्रेड किया गया। इसके अलावा कार्गो ऑपरेटर्स को बमों को लक्ष्यों पर गिराने के लिए ट्रेनिंग भी दी गई। इन प्रयासों के कारण नवंबर 1948 तक भारतीय सेना ने पुंछ में प्रभुत्व हासिल कर लिया। पाकिस्तानी सेना के अहम को तोड़ने कर सिर झुकाने और काश्मीर को सुरक्षित करवाने के कारण कमांडर मेहर सिंह को भारत सबसे बड़े
सैन्य सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
हम कह सकते हैं कि सर जमीं पर रब की मेहर थी।

क्योंकि मेहर सिंह में ’केहर थी। (’केहर – वीरता, बहादुरी)
कैफे सोशल मैगजीन सदैव ऐसे शूरवीरों के अदम्य साहस, वीरता और पराक्रम को नमन करती हैं।
जय हिन्द, जय भारत

ललिता शर्मा नयास्था’
भीलवाड़ा, राजस्थान

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