परमवीर चक्र

परमवीर – लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोर

पाकिस्तान के 60 टैंकों का विनाश करने वाले अमर बलिदानी लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोर

            सन् 1965 के युद्ध में भारतीय सेना की विजय ने पाकिस्तानी मंसूबों को चूर कर हमारे देश को ‘क्षेत्रीय शक्ति’ के रूप में स्थापित कर दिया। इस युद्ध ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को राष्ट्रीय नायक की छवि प्रदान की। हवलदार अब्दुल हमीद और ले. कर्नल आर्देशीर बरजोरजी तारापोर सरीखे परमवीरों के अतुल्य बलिदान का गवाह रहा यह युद्ध भारतीयों के 1962 के युद्ध में पस्त हुए मनोबल को पुनः नई ऊर्जा देने वाला सिद्ध हुआ।

आरम्भिक जीवन       

          18 अगस्त 1923 को तत्कालीन बंबई प्रेसीडेंसी में जन्मे आर्देशीर बरजोरजी जनरल रतनजीबा के परिवार से आते थे जिन्होंने शिवाजी की सेना का नेतृत्व किया था; रतनजीबा को 100 गांवों से सम्मानित किया गया था जिसमें तारापोर मुख्य गांव था, जहां से परिवार का नाम आता है। बाद में आर्देशीर के दादा हैदराबाद में स्थानांतरित हुए और हैदराबाद के निज़ाम के उत्पाद शुल्क विभाग में काम करना शुरू कर दिया। जब आर्देशीर काफी छोटे थे तब उन्होंने अपनी बहन यादगार को परिवार की गाय से बचाया था। वे अकादमिक विषयों में कमज़ोर किन्तु खेलकूद में अव्वल थे। पुणे के सरदार दस्तूर बालक बोर्डिंग स्कूल से 1940 में मैट्रिक पूरा करने के बाद उन्होंने सेना के लिए आवेदन किया और चयनित हुए। उन्होंने अधिकारियों के प्रशिक्षण स्कूल गोलकोण्डा और बंगलौर में सैन्य प्रशिक्षण लिया और बाद में 7वीं हैदराबाद इन्फैन्ट्री में उन्हें एक सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया।

प्रारम्भिक सैन्य जीवन

        हैदराबाद राज्य के भारत में विलय के बाद आर्देशीर बरजोरजी को भारतीय सेना की पूना हॉर्स पलटन में स्थानान्तरित कर दिया गया। “आदि” नाम से लोकप्रिय आर्देशीर पैदल सेना में शामिल होने से नाखुश थे, क्योंकि वह एक बख़्तरबंद रेजिमेंट में शामिल होना चाहते थे। एक दिन उनकी बटालियन का निरीक्षण हैदराबाद राज्य बलों के कमांडर-इन-चीफ मेजर जनरल अल इदरूस द्वारा किया गया। वहाँ दुर्घटनावश ग्रेनेड रेंज में एक ज़िंदा ग्रेनेड गिर गया था। आदि ने इसे फ़ौरन उठाया और दूर हवा में फेंका किन्तु ग्रेनेड के विस्फोट से आदि घायल हो गए। मेजर जनरल इदरूस इस अनुकरणीय साहस से प्रभावित हुए। उन्होंने आर्देशीर को अपने कार्यालय में बुलाया और उनके प्रयासों के लिए उन्हें बधाई दी। आर्देशीर को एक बख़्तरबंद रेजिमेंट में स्थानांतरण के अनुरोध करने का मौका मिल गया जिसे इदरूस द्वारा मान लिया गया। अर्देशिर को 1 हैदराबाद इम्पीरियल सर्विस लान्सर्स में स्थानांतरित कर दिया गया लड़े। उन्होंने इस यूनिट के माध्यम से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम एशिया में सक्रिय सेवा दी।

भारतीय सेना में रूपांतरण

        ‘ऑपरेशन पोलो’ के माध्यम से हैदराबाद राज्य के भारत संघ में विलय के बाद इसकी सेना अंततः भारतीय सेना में मिल गयी। आर्देशीर को 1 अप्रैल 1951 की कमीशन तिथि के साथ कप्तान के रूप में पूना हार्स में स्थानांतरित कर दिया गया। थे। भारत ने 1960 के दशक की शुरुआत में सेंचुरियन टैंकों का अधिग्रहण किया और आर्देशीर उन अधिकारियों में से एक थे जिन्हें यूनाइटेड किंगडम में टैंक के एक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में भाग लेने के लिए चुना गया था। उन्हें 1 जनवरी 1958 को मेजर के रूप में पदोन्नत किया गया और 10 जून 1965 को लेफ्टिनेंट-कर्नल के रूप में। वह 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) बन गए।

चाविंदा का युद्ध और पाकिस्तानी क्षेत्रों में भारतीय विजय-पताका

          शांति की अपील की आड़ में 5 अगस्त 1965 से ही कश्मीर के बाहरी इलाकों में पाकिस्तानियों की घुसपैठ ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ के तहत शुरू हो चुकी थी। ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ और कई बाहरी मोर्चों पर शिकस्त खाने और बावजूद पाकिस्‍तान ने नापाक इरादों के साथ 2 लाख 60 हजार की इंफैंट्री, 280 विमान और 756 टैंक भारत के खिलाफ जंग में उतार दिए। 6 सितम्बर 1965 को भारतीय सेना ने रैडक्लिफ रेखा पार की और इस प्रकार आधिकारिक युद्ध की शुरुआत हो गयी। पाकिस्‍तान के सियालकोट इलाके में आने वाले फिल्‍लौरा पर भारतीय विजय पताका फहराने की जिम्‍मेदारी आर्देशीर तारापोर की कमान में पूना हॉर्स को सौंपी गई थी। पूना हॉर्स को सियालकोट को लाहौर से अलग करने का काम सौंपा गया था।

           11 सितंबर 1965 को आर्देशीर अपने टैंकों के साथ फिल्‍लौरा की तरफ कूच कर गए। भारतीय सेना की पूरी पलटन चाविंदा की तरफ बढ़ रही थी, तभी वाज़िराली इलाके में पहले से घात लगाकर बैठी पाकिस्‍तानी सेना ने हमला कर दिया। आर्देशीर तारापोर ने अपना मैदान संभाला और दुश्मन के टैंक और तोपखाने की लगातार गोलीबारी के बीच फिल्लौरा पर ताबड़तोड़ हमला किया। अदम्‍य साहस से लबरेज आर्देशीर तारापोर ने अपने रण कौशल और बेहतर रणनीति से शत्रु को पीठ दिखाकर भागने के लिए मजबूर कर दिया। घायल होने के बावजूद उन्होंने वहां से निकलने से मना कर दिया। लेफ्टिनेंट कर्नल आर्देशीर का विजय अभियान यहीं नहीं रुका। उन्होंने अपनी पलटन का नेतृत्व करते हुए 14 सितंबर को वाज़िराली और 16 सितंबर 1965 को जस्सोरन तथा बटूर-डोग्रांडी पर भी विजय पताका फहरा दी। उनके नेतृत्व में पूना हॉर्स ने साठ अत्याधुनिक पाकिस्तानी टैंकों को जमींदोज कर दिया, जबकि पुरानी भारतीय टैंकों को मात्र नौ का नुकसान हुआ था। 

          1965 का यह युद्ध दरअसल, पाकिस्तानी साधनों के विरुद्ध भारतीय साहस और देशभक्ति की भावना का युद्ध था। 8 सितंबर की रात, भारतीय टैंक सेना ने लंबा घेरा डाला और चुपचाप बढ़ते हुए अपने ‘पुराने-धुराने’ टैंकों के साथ अगली सुबह जो कहर बरपाया उसने दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मन जनरल रोमेल का कीर्तिमान हवा कर दिया। कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद मशीनगनों की धूम और गोलों की बरसात में अपने घूमते हुए हाथों से ‘अजेय’ पैटन की अभेद्य मानी जाने वाली मोटी फौलादी चादरों को चिंदी-चिंदी करते हुए टैंकों के बीच आंधी जैसी तेजी से काल की तरह झूम रहे थे। ‘असल उत्तर’ ऑपरेशन 97 पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट कर ‘टैंकों का कब्रिस्तान’ बन गया। सुचेतगढ़ में यही कारनामा ट्रूप कमांडर अयूब खां और फिल्लौरा में ले. कर्नल आर्देशीर बरजोरजी तारापोर ने कर दिखाया। आर्देशीर के टैंक पर शत्रु ने अनेक प्राणघातक प्रहार किए लेकिन दिए गए लक्ष्य को प्राप्त करने से पहले आर्देशीर युद्धभूमि से नहीं हटे। कुछ बयानों के अनुसार, लेफ्टिनेंट कर्नल आर्देशीर के अंतिम संस्कार के दौरान उनके सम्मान में पाकिस्तानी टैंकों ने अपनी गोलाबारी रोक दी थी।

सम्मान

         इतिहास में 1965 का यह युद्ध ऐसे युद्धों में दर्ज है जहाँ सबसे ज्यादा टैंक नष्ट हुए थे। उल्लेखनीय है कि चाविंदा की लड़ाई पर जाने से पहले ले. कर्नल बरजोरजी तारापोर ने अपने मातहत साथी मेजर एनएस चीमा को फोन कर अपनी अंतिम इच्‍छा का जिक्र किया था। उन्‍होंने मेजर चीमा से कहा था कि ‘मेरा अंतिम संस्‍कार अंतिम युद्ध भूमि में ही किया जाना चाहिए’। ले. कर्नल आर्देशीर ने फिल्‍लौर के युद्ध में भारतीय सेना की सर्वोच्‍च परंपरा का निर्वहन करते हुए देश के लिए प्राणों की आहुति दे दी। युद्धभूमि में उनकी अतुलनीय वीरता, अदम्य साहस, राष्ट्र के प्रति एकनिष्ठ समर्पण और दूरदर्शी नेतृत्व को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने वर्ष 1965 में उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया। शत्रुओं की वक्र दृष्टि से देश की आज़ादी को सुरक्षित रखने के लिए अपने प्राणों को हर्ष से न्यौछावर कर जाने वाले ऐसे वीरों के लिए ही कवि वंशीधर शुक्ल ने लिखा था – 

स्वतंत्रता का युद्ध है, स्वतंत्र होके गाए जा। 

क़दम क़दम बढ़ाए जा, ख़ुशी के गीत गाए जा। 

ये ज़िंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाए जा।

अप्रतिम भारत-सपूतों के लिए कैफ़े सोशल की श्रद्धांजलि ।

डॉ. परम प्रकाश राय
सहायक प्रोफ़ेसर,
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग,
मगध विश्वविद्यालय, बोध गया

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