परमवीर चक्रशूरवीरो की गाथा

भारत के गुमनाम नायक – सुरेन्द्र साय

                  सुरेन्द्र साय
मात्रभूमि के लिए अपनी जान लुटाने
‌अनगिनत वीरों ने जन्म लिया
आज नमन करें उन सपूतों को
 जिन्होंने अपना सर्वोच्च वलिदान दिया
भुला चुके उन गुमनाम नायकों को
       जिनको हमनें भुला दिया

       कैफे सोशल मासिक पत्रिका लगातार अपने उन गुमनाम नायकों को याद करते हुए, उनके द्वारा किए गए कार्यों एवं बलिदान को नमन करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजली समर्पित कर रहा है।

     आज हम ऐसे ही एक वीर सपूत सुरेन्द्र साय को याद कर रहे हैं।श्री साय का जन्म 23 जनवरी १८०९ को उड़ीसा के सम्बलपुर जिले में धर्म सिंह जी के यहां हुआ था। इस समय देश के अधिकांश भागों सहित पूर्वी उड़ीसा पर अंग्रेजी हुकूमत का शासन हो चुका था और अब वह पश्चिमी उड़ीसा की ओर बढ़ रहे थे। सन् १८२७ में उन्होंने यहां भी अपना अधिकार कर लिया। लेकिन यहां के लोगों के विद्रोही तेवर देखते हुए वहां की सत्ता साय की दादी रानी राजकुमारी को सोंप दी। सन् १८२७ में सम्बलपुर के महाराज की मृत्यु के बाद डॉक्टराइन आफ लैटस के तहत अंग्रेजों ने राज्य पर कब्जा करना चाह तो साय ने इसका विरोध किया।

सन् 1833 में अंग्रेजों ने रानी राजकुमारी को हटाकर , उन्हें पेंशन देकर कटक भेज दिया।वहां की सत्ता नारायण सिंह को सोंप दी।तब सुरेन्द्र साय ने इसका विरोध किया और अपना दावा पेश किया। अंग्रेजी हुकूमत ने उनके इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी तब साय ने साथियों को एकजुट कर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाते हुए युद्ध करने की ठानी।

   साय ने अनेकों बार अंग्रेजी सेना के खिलाफ युद्ध किया और बहुत सी बार जेल भी गए।

  साय और उनके साथियों ने अंग्रेजी सिपाहियों से आमने सामने की लड़ाई लड़ी। युद्ध में अंग्रेजों को काफी नुकसान हुआ। उनके बहुत से सिपाही मारें गए तथा सम्पत्ति को भी लूट लिया। अंग्रेजों ने तब छल करते हुए साय के सामने समझौते का प्रस्ताव रखा। और जब साय बातचीत करने के लिए वहां उनके पास पहुंचे तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग जेल भेज दिया। १८३७ में जब सुरेंद्रनाथ साथी बलभद्र, बलराम एवं अन्य साथियों के साथ एक बैठक कर रहे थे तब अंग्रेजी सेना ने जमींदार रामपुर और बरपाली के नारायण सिंह एवं अन्य जमीदारों के साथ मिलकर हमला कर दिया। इस हमले में साय और उनके साथी तो भाग गए लेकिन बलभद्र सिंह मारे गए। इस घटना के बाद साय ने रामपुर पर हमला कर जमीदार के पिता और पुत्र दुर्जन सिंह की हत्या कर दी।१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में जब रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने उन्हें आजादी की लड़ाई में सम्मिलित होने का आह्वान किया तो उन्होंने कहा कि मैं अपने जन्म स्थल को पहले आजाद कर लूं फिर पूरे देश की ओर सोचूंगा।

साय का कार्यक्षेत्र उड़ीसा के कालाहांडी,बामडा, सोनपुर, सम्बलपुर बिहार के सिंहभूमि के कुछ क्षेत्र तथा मध्य प्रदेश के सारंगढ़, सारंगपुर आदि रहा। उनके रहते हुए अंग्रेजी सेना कभी भी इन क्षेत्रों में घुस नहीं सकीं।

     एक दिन अंग्रेज सैनिक नदी में स्नान कर थे तब इन क्रांतिकारियों ने उन पर हमला कर उनके हथियार छुड़ा लिए। सैनिक किसी तरह से अपनी जान बचाकर भाग निकले। ७ अक्टूबर १८५७ को सुरेन्द्र साय ने लगभग १५०० हथियारबंद साथियों के साथ सम्बलपुर में प्रवेश किया और अपना शाही झंडा फहरा दिया। इसी दिन सभी प्रमुख्य क्रांतिकारी एक मंदिर में एकत्रित हुए और सबने मिलकर अंग्रेजी हुकूमत से सामना करने का निश्चय किया और सुरेन्द्र साय को सिंहासन पर बैठाने की शपथ ली। साय ने एक रणनीति के तहत सभी आसपास की सड़कों पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों से युद्ध किया। इस युद्ध में साय के कई साथी शहीद हो गए लेकिन साय को अंग्रेजी सेना फिर भी नहीं पकड़ सकीं और ना ही उनके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन को रोक पाएं।अंत में साय ने सम्बलपुर पर कब्जा कर लिया। इसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने की बहुत कोशिश की, उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने भी काफी प्रयास किया किंतु सब बेकार रहा। साय ७ वर्ष तक राज करते रहे।

    इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने मेजर एच.वी.इप्पे को साय को गिरफ्तार करने का कार्य सोंपा। जब मेजर ने साय के विषय में जानकारी प्राप्त की, उनके द्वारा किए गए कार्यों को समझा तब वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साय के साथ शांतिपूर्ण वार्ता बहुत जरूरी है और उन्होंने शांति की घोषणा कर दी। सभी विद्रोहियों को जेल से रिहा कर उनकी सम्पत्ति वापस कर दी। लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात अंग्रेजी हुकूमत ने फिर से षणयंत्र रचना शुरू कर दिया। अपने लोगों की मुखवरी और अंग्रेजों की धूर्तता भरी चालों से साय को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके साथ उनके भाइयों और पुत्र को भी पकड़ लिया। उन्हें १८१८ के डिटेंशन एक्ट के आधार पर हिरासत में लिया गया।

 अदालत ने साय के भाई मेदिनी, धुर्वा,उंदता और पुत्र मित्रभानु को खतरनाक विद्रोही मानते हुए उन्हें बुरहानपुर म.प्र के असीरगढ़ जेल भेज दिया। ऊपरी अदालत ने इन लोगों पर लगे हुए आरोपों को सही नहीं माना। इसके बावजूद उन्हें रिहा नहीं किया गया।

  अंत में २८ फरबरी १८८४ को इसी जेल में सुरेन्द्र साय ने अंतिम सांस ली। शायद ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल किसी भी क्रांतिकारी को उनसे अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा हो।वह अपनी जीवन के अंतिम छड़ों तक जेल में रहे।

   देश को आजाद कराने में अनेक वीर सपूतों ने भारत माता के चरणों में अपने प्राणों की आहुतियां दी थी।

   आज जब हम उन गुमनाम नायकों के विषय में सुनते हैं, उनको दी गई यातनाओं को, उनके संघर्षों को पढ़ते हैं तो आंखें नम हो जाती है। देश साय जैसे नायकों का सदैव कर्जदार रहेगा,हम सब उनके चरणों में नतमस्तक होकर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते रहेंगे।

    कैफे सोशल मासिक पत्रिका इन नायकों को शत् शत् नमन करता है।

संजीव जैन
संपादक – मंडल

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