परमवीर चक्र

गुरिल्ला युद्ध के उस्ताद – ब्रिगेडियर संत सिंह उर्फ ब्रिगेडियर बाबा जी

ब्रिगेडियर संत सिंह एक भारतीय सैन्य अधिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश भारतीय फौज के अलावा आजाद भारत की फौज में भी अपनी बहादुरी के झंडे गाडे । द्वितीय विश्वयुद्ध 1948, 1962, 1965, 1971 के युद्धों में बेहद सक्रिय भूमिका संत सिंह ने निभाई थी। 1965 का हीरो भी कहा जाता है। उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध और इसी दौरान बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में ‘मुक्ति-वाहिनी’ को गुरिल्ला युद्ध हेतु प्रशिक्षित करने में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी।

आरम्भिक जीवन

सैनिकों के बीच संत सिपाही’ और ‘ब्रिगेडियर बाबाजी के नाम से मशहूर रहे संत सिंह का जन्म 12 जुलाई, 1921 को पंजाब के फरीदकोट में पंजग्रेनकलां में हुआ था। फरीदकोट के बृजेन्द्र डाई-स्कूल और आगे फिरोजपुर के आर.एस.डी. कॉलेज से पढ़ाई के बाद संत सिंह जुलाई 1941 में फरीदकोट फोर्सेज इंजीनियर फील्डक कंपनी में क्लार्क बन गए।

ऑपरेशन जूनागढ़

16 फरवरी 1947 कोशॉर्ट सर्विस कमीशन के माध्यम से पंजाब रेजिमेंट की पहली बटालियन में संत सिंह की नियुक्ति हुई लेकिन विभाजन के पश्चात रेजिमेंट पाकिस्तान के हिस्से में आई और संत सिंह, उनका तबादला दूसरी सिख लाइट इन्फेंट्री में कर दिया गया। नवंबर 1947 में जूनागढ़ की सेना की आंतरिक गतिविधियों का पता लगाने का जोखिम भरा कार्यभार दिया गया और अपनी जान खतरे में डालकर ब्रिगेडियर संत सिंह ने इस कार्य को सफलता पूर्वक अंजाम दिया।

1965 का भारत – पाकिस्तान युद्ध और ऑपरेशन रिडलः असंभव से संभव करने की गाथा

उत्तमरी मोर्चे पर जम्मू कश्मीर के पुंछ सेक्टनर में बालनोईरिज के चुड़नार इलाके में 1956 तक भारतीय सेना की पोस्ट हुआ करती थी, उसके बाद यह जगह खाली छोड़ दी गई। पाकिस्तीनी सेना ने घुसपैठ करके इसे किले में तब्दील कर दिया था। चुड़नार के जरिए भीमबेर गली नंबर और बालनोई से गुजरने वाली एल.ओ.सी. पर पाकिस्तान को एडवांटेज हासिल था। यहां पाकिस्तानी सेना के कब्जे का मतलब था कि मेंढर और कृष्णा घाटी से बालनोई पूरी तरह कट गया था।

अक्टूबर 1965 से चुड़नार को फिर से हासिल करने की कोशिशें शुरू हुई। बार-बार असफलता के बाद, सिंह कीले. कर्नल संत सिंह की अगुवाई में पांचवीं सिख लाइट इन्फेंट्री को यह असंभव काम सौंपा गया। जब लक्ष्य बस 200 गज दूर था तभी मशीन गन का गोला ले. कर्नल सिंह की जांघ पर फट गया। उनके रेडियो ऑपरेटर ने पंजाबी में कहा, साहिब जी, आपका जख्म तो खतरनाक लगता है। आप यहीं लेट जाओ। मैं अभी जीतंत (एडजुटेंट) साहब को बता देता हूँ। मेडिकल वाले आकर आपको को पीछे ले जाएंगे।’ कमांडिंग ऑफिसर ले. कर्नल संत सिंह ने कहा, ‘बच्चू! रहने दे तूने किसी को नहीं बताना कुछ । काका, यह यो बाबा दीप सिंह जी के खंडे से खींची गई लकीर है। जीत हासिल किए बिना उससे पीछे नहीं जाया जाता। अब अगर गिरना ही है तो चुड़नार के टॉप पर जाकर डी लेदूंगा (गिरूंगा)। तू फिकर ना कर…।”

सिंह ने पगड़ी के नीचे से पटका निकाला, उसे घाव पर कसकर बांधा, रेडियो ऑपरेटर की मदद से खड़े हुए और फिर हमला करना शुरू कर दिया। आधे घंटे की ताबड़तोड़ लड़ाई के बाद दुश्मन भाग खड़ा हुआ। बालनोईरिज पर अब स्थिति पलट चुकी थी। ले. कर्नल संत सिंह ने अपने सैनिक इकट्ठा किए और सामने मौजूद लक्ष्य पर धावा बोल दिया। लगातार गोलीबारी और बारूदवारी के बावजूद सैनिक एक बंकर से दूसरे बंकर में घुसकर पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ने लगे। इस तरह दो नवंबर 1965 की रात को पुंछ जिले के मेंढर सेक्टर की पहाड़ी में दुश्मनों को खत्म करने की ऑपरेशनरिडल की जिम्मेदारी ब्रिगेडियर सिंह ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर पूरी की। दुश्मन फौजों की लैंडमाइन्स, मशीन गन फायरिंग और तोपों की भयंकर गोलाबारी के बीच अदम्य साहस का प्रदर्शन करने के लिए 5 वीं सिख लाइट इन्फैक्ट्री को दो महावीर चक्र एक वीर चक्र और चार सेना पदक मिले।

1971 का युद्ध और ऑपरेशन कैक्टसलिली, जिसे देखकर अमेरिका भी भौंचक्का रह गया ।

छह साल बाद जब भारत और पाकिस्तानन की सेनाएं फिर आमने-सामने आई, तब तक संत सिंह ब्रिगेडियर हो चुके थे। वह पूर्वी मोर्चे पर सेक्टर में तैनात थे। ऑपरेशन कैक्टसलिली के तहत ब्रिगेडियर सिंह को बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़ रहे मुक्ति-वाहिनी सेना के सदस्यों को गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी दी गयी क्योंकि ब्रिगेडियर बाबा इस फन में माहिर थे। उनकी टुकड़ी को हौलाघाट- फूलपुर रोड पर मेमनसिंह की ओर बढ़ने को कहा गया। सिर्फ एक पैदल पलटन, एक इंजिनियर दस्ता और एक तोपखाना साथ लेकर ब्रिगेडियर सिंह की टुकड़ी आगे बढ़ी। वह आठ दिनों में माधोपुर को सुरक्षित करने के लिए लगभग 38 मील पैदल आगे बढ़े। इस ऑपरेशन के दौरान उन्होंने व्यक्तिगत रूप से सैनिकों का नेतृत्व करते हुए कई स्थानों पर भारी सुरक्षा वाले स्थानों को साफ कर दिया, जिससे भारतीय सेना के लिए ढाका पर कब्जा करने का मार्ग प्रशस्त हो गया। वह पूर्वी पाकिस्तान कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल ए ए केनियाजी के मुख्यालय में प्रवेश करने वाले पहले अधिकारियों में से थे। जज़्बे और हौसले के साथ लड़ाई करते हुए टुकड़ी ने ढाका की ओर बढ़ते हुई कई अहम पोस्ट पर अधिकार कर लिया। 13 दिसंबर तक ब्रिगेडियर संत सिंह और मुक्ति वाहिनी की फौज ढाका के बाहर पहुंच चुकी थी। ढाका में घुसकर उनकी ब्रिगेड ने पाकिस्तानी सैनिकों को आत्म समर्पण के लिए मजबूर कर दिया। भारतीय सेना की इस उपलब्धि पर पाकिस्तान को हर प्रकार की सहायता दे रहे अमेरिका का मुंड आश्चर्य से खुला का खुला रह गया।

पुरस्कार और सम्मान
ब्रिगेडियर संत सिंह देश के पहले सैन्य अधिकारी थे, जिनके नाम पर किसी कॅन्टोनमेंट का नाम रखा गया था। उनके नाम पर मेंढर सेक्टर की एक कॅन्टोनमेंट का नाम रखा गया है। 1965 के युद्ध में ऑपरेशन रिडल के दौरान उन्होंने सेंकर सेक्टर में अविश्वसनीय शौर्य का प्रदर्शन किया था। उन्हें जब महावीर चक्र दिया गया तो तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधा कृष्णन ने उनसे पूछा कि क्या अब पाकिस्तान पर विश्वास किया जा सकता है तो उनका जवाब था, कभी नहीं। ब्रिगेडियर संत सिंह का नाम भारतीय सेना के उन चुनिंदा छह अधिकारियों में शामिल है, जिन्हें युद्धभूमि में अदभुत शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए द्वितीय सर्वोच्च भारतीय सैन्य पुरस्कार महावीर चक्र से दो बार नवाजा गया। राष्ट्र के प्रति उनकी सराहनीय सेवाओं और कर्तव्यों के निर्वाचन में उनके धैर्य और दृढ़ संकल्प को ध्यान में रखते हुए. उनके नाम की सिफारिश परमवीर चक्र (पीवीसी) के लिए भी की गई थी।

1971 युद्ध के समय पाकिस्तान के जनरल नियाजी की एक परेमयुक्त तस्वीर और नियाजी के कार्यालय से उनके द्वारा जब्त किया गया एक डेस्कटॉप समय का टुकड़ा, ब्रिगेडियर संत सिंह के घर पर रखी उनकी युद्ध ट्राफियां थीं। वे 1973 में सेना से रिटायर हुए। वह ता उम्र… वॉर डेकोरेटेड ऑफ इंडिया ट्रस्टस’ से जुड़े रहे। भारत के इस वीर सपूत ने 9 दिसंबर, 2015 को दिल्ली में अंतिम सांस ली। ब्रिगेडियर संत सिंह हर भारतवासी के दिलों में जिंदा रहेंगे और यही एक सच्चे भारतीय सिपाही के प्रति राष्ट्र की सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हम उनसे राष्ट्रसेवा की प्रेरणा लें और मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों को दोहराते हुए कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ें-

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
सब जाए अभी पर मान रहे
जय हिंद !

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param prakash rai
Dr. Param Prakash Rai
Assistant Professor, Department of Post Graduate Hindi,
Magadh University, Bodh Gaya
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