हिंदी प्रतियोगिता

इच्छाधारी इंसान

(यह कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है। केवल विचारों को बाँधने के लिए ही समस्त नाम तथा स्थानों का प्रयोग किया गया है। पौराणिक कथाओं से इसका कोई संबंध नहीं है।)

 

 

                        इच्छाधारी इंसान 

 

एक समय की बात है, ‘मनुष्य‘ नामक वन में एक असुर रहता था जिसका नाम था ‘मन‘। मन उस वन का राजा था। वह बड़ा ही चतुर और बलवान था, उसकी गति के समकक्ष गति पूरे संसार में किसी और की न थी। वन के सारे निवासी उसके सम्मुख सदा नतमस्तक रहते थे। मन की रानी ‘प्रज्ञा‘ एक पतिव्रता स्त्री थीं, इसलिए ही शायद मन को आज तक कोई परास्त न कर सका था। यह प्रज्ञा के पतिव्रत धर्म का प्रताप था। सदा मन के साथ अप्रत्यक्ष रूप से रहने का उन्हें वरदान भी प्राप्त था।

 

एक दिन वह अपने महल में विश्राम कर रहा था, तभी उसका सेनापति ‘विचार‘ वहाँ आया। “महाराज की जय हो” का जयघोष करते हुए उसने मन को प्रणाम किया।

 

मन ने उसे बैठने को कहा और बोला – “कहो विचार किस प्रयोजन से आए हो, सब कुशल तो है न?”

 

“जी महाराज सब कुशल है। मैं तो बस आपके विषय में आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ।”

 

“हाँ कहो क्या कहना चाहते हो?”

 

मन का आभार प्रकट करते हुए विचार बोला – “महाराज! आप इतने वीर हैं, आपका कोई शत्रु इस धरातल पर जन्मा नहीं है। आपकी गति को कोई भेद नहीं सकता प्रभु! इतना बल होने के बाद भी कब तक आप इसी जीर्ण-शीर्ण वन में निवास करते रहेंगे? आपका बल इतना प्रबल है कि कोई प्राणी आपको परास्त नहीं कर सकता। मुझे लगता है अब आपको इस संसार पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहिए महाराज। यह मेरा कर्तव्य है कि मैं आपको आपकी शक्तियों से सदा अवगत कराता रहूँ।”

 

विचार की बातें मन को बहुत प्रभावित कर गईं। उसने सोचा कि जब मैं इतना शक्तिशाली हूँ, अथाह वेग है मेरा, किसी पुरुष में इतना साहस नहीं कि वो मुझे परास्त कर सके तो क्यों न मैं अपने बल का डंका बजवा कर समस्त पृथ्वी को अपने अधीन कर लूँ? तीनों लोकों का राजा बन जाऊँ? हर तरफ सिर्फ मेरी ही जय-जयकार हो, समस्त संसार मेरा अनुचर बन जाए? सैकड़ों दास-दासियाँ अहर्निश मेरी सेवा में रहें और ‘महाराज की जय हो’ ‘महाराज की जय हो’ का जयघोष सदा मेरे श्रवणों को आह्लादित करता रहे!

 

विचार को शाबाशी देते हुए मन ने अपनी समस्त ‘इंद्रिय‘ रूपी सेना को बुलाया और कहा – “सैनिकों जाओ! जो भी पथिक तुम्हें इस मार्ग पर आता-जाता दिखाई दे उसे तुरंत बंदी बनाकर मेरी सभा में ले आओ, यह मेरा आदेश है।”

 

सैनिकों ने मन के आदेश का पालन करते हुए मार्ग में आते-जाते लोगों को बंदी बना लिया और मन की यश-गाथा सुनाते हुए उन्हें मन के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। यह सब देख मन बड़ा प्रसन्न हुआ, उसकी वीर गाथा सुनने तथा जयघोष करने के लिए कई लोग अब उसके पास थे।

 

यह सब कुछ दिनों तक चलता रहा। सैनिक लोगों को बंदी बनाते रहे। मन उन सबको देख-देख कर फूला न समा रहा था। यह सब देख रानी प्रज्ञा बड़ी चिंतित थीं, वो सोचती थीं कि स्वामी यह सब क्या अधर्म कर रहे हैं। रानी के कई बार समझाने पर भी मन उनकी एक न सुनता था आख़िर वह एक असुर था। धर्म-अधर्म सब उसके लिए एक समान थे।

 

अब मन को लगा कि मेरे वन के तो अधिकतम प्राणी मेरे बंदी गृह में आ ही चुके हैं, तो अब धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ाई जाए तथा दूसरे वन अथवा नगर के प्राणियों को भी मेरी सभा में एकत्रित किया जाए। यह कार्य संभव करने के लिए उसने एक रणनीति बनाई और अपने कुछ सैनिकों को लेकर वह अनन्य वनों के भ्रमण पर निकल गया।

 

कुछ दिनों के पश्चात वह ‘कर्ण‘ वन में पहुँचा। वहाँ ना-ना प्रकार के जीव-जंतु तथा ऋषि-मुनि अपना स्थान लिए हुए थे, अपनी समाधि में लीन थे। उसके जीवों पर आक्रमण कर उन्हें बंदी बना लेने पर समस्त वन में हा-हा कार मच गया था। उस वन की संपूर्ण प्रजा सहित राजा ‘श्रवण‘ भी बंदी हो गए। मन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने आगे जाने की योजना बनाई।

 

जैसे ही मन कर्ण वन पार करने चला, उसकी जय-जय कार तथा सभी लोगों के हा-हा कार की ध्वनि से समस्त ऋषि-मुनियों की साधना भंग हो गई, वे सभी क्रोध में आ गए।

 

तत्क्षण मुनि ‘अवगुण‘ अपने स्थान से उठ खड़े हुए और बोले – ‘‘यह क्या अत्याचार है राजन्, इस प्रकार किसी राजा तथा उसकी प्रजा को बंदी बना लेना कहाँ का धर्म है, कहाँ का न्याय है?”

 

यह सुनते ही मन क्रोध में आ गया और अपना प्रयोजन बताते हुए उन्हें कटु शब्द कहने लगा। मुनि अवगुण ने उसे समझाने के कई प्रयास किए वेद वाणी, धर्म नीति सबका ज्ञान दिया परंतु विफल हुए। अभिमानी मन ने उनकी हर नीति को तुच्छ कहकर अपमानित किया तथा अपनी शक्तियों का बखान करने लगा और सभी मुनियों का तिरस्कार भी किया।

 

यह सब देख मुनि ‘गुण‘ बहुत क्रोधित हुए और मन से कहा – “दुष्ट असुर! तुझे अपनी शक्ति का बड़ा अभिमान है, धर्म को तू तुच्छ कहता है, साधुओं का अपमान करता है, जा तुझे मेरा श्राप है कि तू ‘कौवा‘ हो जाएगा। न कोई तेरी कीर्ति का बखान करेगा और न ही तू पूजनीय होगा।”

 

मुनि के ऐसे वचन सुनकर मन ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा तथा उनके कहे गए शब्दों का अनादर कर आगे बढ़ गया।

 

थोड़ी दूर जा कर मार्ग में उसे कई चंदन के वृक्ष मिले जिनकी सुगंध से वह शांत हो गया और अपना प्रयोजन ही भूल गया। कुछ दिन उसने वहीं बिताए। फिर सैनिकों के बार-बार आग्रह करने पर वह आगे बढ़ा।

आगे चलकर उसे एक कुटिया दिखाई दी। कुशा से निर्मित परंतु बहुत सुंदर। चलते-चलते अब वह थक चुका था। कई दिनों से उसने कुछ खाया न था, तो विचार ने कहा – “महाराज क्यों न इस कुटिया में जाकर देखा जाए कदाचित् कुछ भोजन मिल जाए।”

 

विचार की बात से सहमत हो कर उसने अपने एक सैनिक से कहा “जाओ, भीतर जाकर कुछ माँग लाओ। कहना मनासुर आया है।”

 

‘जो आज्ञा महाराज!’ कहकर सैनिक भीतर चला गया, परंतु काफी समय पश्चात भी वापस न आया। क्षुधा से पीड़ित हो कर मन अब स्वयं भीतर चला गया, जैसे ही उसने भीतर कदम रखा वह स्तब्ध रह गया। वह पर्णकुटी भीतर से एक संपूर्ण चंदन वन जान पड़ती थी, तरह-तरह के नागों की एक नगरी ही थी वो। सैनिक को भी नाग राज निगल चुके थे।

 

भयभीत मन वहाँ से बाहर निकलने की चेष्टा कर ही रहा था कि अचानक नाग राज ने उसे पकड़ लिया और कहा – “मेरी नगरी में आने का दुस्साहस करता है, मेरी अवज्ञा करता है, धूर्त कौन है तू?, ख़ैर तू यहाँ आ तो गया है परंतु जा नहीं पाएगा। बोल क्या तेरी कोई अंतिम इच्छा शेष है ?”

 

मन अपनी गति का स्मरण करते हुए पुनः भागने का प्रयास करता है, परंतु नाग जाल में फँस जाता है। तभी वह अपने भीतर से एक तेज प्रकट करता है जिससे नाग राज जलकर भस्म हो जाते हैं। मन की ज्वाला मन को जला नहीं सकती वह सदा दूसरों का ही अहित करती है। इस तरह नाग राज का अंत होते ही नाग रानी तथा नाग प्रजा बहुत दुखी हुई।

 

नाग रानी अपने पति की मृत्यु के कारण प्रतिशोधाग्नि में जलती हुई कहती हैं – “हे दुराचारी असुर! जिस प्रकार तूने एक नाग की भाँति मेरे पति के प्राण हर लिए, उसी प्रकार तू भी इस अवस्था में ‘नाग‘ ही की तरह तिल-तिल कर मरेगा।” यह कह कर रानी किसी तीक्ष्ण बाण की भाँति मन के भीतर प्रवेश कर जाती हैं और इसी अग्नि-ज्वाला के धूम्र से ‘ईर्ष्या‘ प्रकट होती है जो कि मन के वक्षस्थल पर नागिन सा रूप लेकर विराजमान हो जाती है।

 

मन मूर्छित हो कर कुछ क्षण के लिए पृथ्वी पर गिर जाता है। नाग रानी की क्रोधाग्नि कुटिया को जलाकर भस्म कर देती है। सभी नाग भी अपने लोक को चले जाते हैं।

मन की मूर्छा खुलते ही वह स्वयं को बाहर पाता है, वीर सैनिक अपने राजा के प्राण बचा लेते हैं।

 

अब उसने अपनी सेना के साथ उत्तर दिशा में जाने का निश्चय किया। मार्ग में चलते-चलते एक ऊँची पहाड़ी पर मन को एक सुंदर भवन दिखाई दिया, ‘नेत्र‘ भवन।

वह भवन बहुत ही भव्य था तथा हीरे-मोतियों से जड़ी वह सुंदर आकृति उसे अत्यंत प्रभावित कर गई। सूर्य की किरणों सा तेज और उसकी कलाकृति के तो क्या कहने, वाह!

 

मन की भावना प्रबल हो उठी। उसने भवन पर चढ़ाई करने का निश्चय किया। भोग-विलास की लालसा करते हुए भवन पर धावा बोल दिया। नेत्र भवन के राजा ‘दृश्य‘ अपनी रानी ‘दृष्टि‘ के साथ राज महल में विराजमान थे। राजा कभी-कभी ही अपने भवन में आया करते थे। कई-कई वर्ष उन्होंने भीषण तप में बिताए थे। उन्हें तप के वरदान स्वरूप ही यह महल प्राप्त हुआ था जिसका आधिपत्य तीनों लोकों में कोई नहीं कर सकता था। बड़े-बड़े असुर जो अपनी लालसा के कारण भवन पर चढ़ाई करते थे, वे मृत्युलोक को प्राप्त हो जाते थे।

 

जब भवन के सैनिक ‘नेत्रपटों‘ ने मन को आक्रमण करते देखा तो वे उसके पास गए और उसे चेतावनी देते हुए कहा – “मूर्ख असुर! लगता है तुम्हें इस भवन के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं, यदि अपना स्वरूप प्रिय हो तो इसी क्षण वापस लौट जाओ।”

 

नेत्रपटों की धुत्कार मन को सहन न हुई। उसने जैसे ही महल के भीतर प्रवेश करने की चेष्टा की नेत्रपटों ने उसे पुनः रोक लिया।

मन गर्जना करते हुए बोला – “सैनिकों, इन्हें पकड़ लो।”

आदेश पाकर समस्त सैनिकों ने नेत्रपटों को अपने वश में कर बाँध लिया। आख़िर वे मन के सैनिक थे, अपनी अवचेतन शक्तियों का प्रयोग करना वे भली-भाँति जानते थे।

 

तत्पश्चात् मन हँसता हुआ महल में प्रवेश कर गया। वहाँ के विलास को देखकर वह मंत्र-मुग्ध हो गया। स्वर्ण की भाँति चमचमाता महल उसके मस्तिष्क में घर कर गया। अब उसे बस इस भवन का स्वामी होना था। लोभ और लालसा के चक्रव्यूह में फँसकर जैसे ही वो भीतर गया और उसने एक खम्ब को स्पर्श किया, उसी क्षण उसके हाथ से तीव्र ज्वाला की भाँति धू-धू कर धुआँ निकलने लगा।

 

उस खम्ब से एक देव प्रकट हुए और मन से कहा -“विलासी असुर! तुमने अपनी लालसा के वशीभूत होकर इस पवित्र खम्ब को स्पर्श किया है, अब इसके अनुकूल तुम्हें दण्ड दिया जाएगा। पर पुरुष की सम्पत्ति पर तुम लालसा करते हो! इसके परिणाम स्वरूप तुम्हें ‘उल्लू‘ की गति प्रदान होगी और तुम सूर्य का तेज तक भी कभी देख नहीं पाओगे।”

यह सब मन को सहन न हुआ, अपना इतना निरादर होते देख वह स्वयं ही वहाँ से चला गया, परंतु उसके भीतर एक ज्वाला धधक रही थी। ईर्ष्या की ज्वाला।

 

“बड़े आए मुझे उल्लू बनाने वाले हँह! मूर्ख।” यह कहकर मन आगे की ओर बढ़ा।

 

इतना सब घटित होते देख मन थोड़ा घबरा जाता है, परंतु अपनी जयकार के स्वप्न उसे पुनः नया साहस प्रदान करते हैं। वे सब आगे की ओर प्रस्थान करते हैं। कहीं दूर जाकर उन्हें एक जलप्रपात नज़र आता है साथ ही कुछ फलदार वृक्ष भी। क्षुधा-पूर्ति हेतु वे सब वहाँ ठहर जाते हैं तथा जल और फल ग्रहण करते हैं। क्षुधा-पूर्ति के पश्चात ज्यों ही वे सब उठते हैं, वहाँ एक गौ उन्हें भागते हुए आती दिखाई देती है।

 

मार्ग की जटिलता को देखते हुए सेनापति विचार ने कहा – “महाराज क्यों न हम इस गौ को अपने साथ ले जाएँ, यह दुग्ध देती रहेगी तो हमें यूँ भोजन हेतु भटकना न पड़ेगा।”

 

“हाँ! विचार उत्तम बात कही। गौ को पकड़ लाओ।” मन ने आज्ञा दी।

 

इतने में एक व्याकुल ब्राह्मण अपनी गौ को ढूँढते हुए वहाँ आ पहुँचे। यह देख मन ने स्वांग किया और बड़े आदर सहित प्रणाम करते हुए ब्राह्मण से पूछा – “हे विप्रवर! कहिए क्या मैं आपकी किसी प्रकार कोई सहायता कर सकता हूँ? अपनी सेवा प्रदान करने की कृपा करें प्रभु।”

 

मन के यह वचन सुनते ही ब्राह्मण प्रसन्न हो गए। “ऐसी मीठी वाणी, वो भी किसी असुर की जिह्वा से, आप बहुत धर्मी प्रतीत होते हैं भूपति। मेरी परम् तेजस्वी गौ कहीं भाग गई है, बस उसकी ही खोज में हूँ। हे हितैषी! क्या आपने इस स्थान पर किसी गौ को देखा है?” व्याकुल ब्राह्मण बोले।

 

मन बड़ा चतुर था, अपने मीठे कथनों में फँसा कर वह ब्राह्मण को उलझाना चाहता था।

 

बोला – “नहीं प्रभु हम सब तो बस अभी-अभी ही दक्षिण से आ रहे हैं, क्षुधा-पूर्ति के कारण इन वृक्षों और जल को देख यहाँ रुक गए। महात्मन् आपकी गौ के विषय में तो हमें कुछ ज्ञात नहीं। क्षमा करें!”

 

ब्राह्मण दुखी हो गए। अपनी गौ की रक्षा न कर पाने पर वे बहुत लज्जित थे। उन्होंने अपनी तेजस्विता जाग्रत करते हुए जल से पूछा – “हे वरुण देव! अगर आपको मेरी गौ के विषय में कुछ भी ज्ञात हो तो कृपा कर बताइए प्रभु।”

 

ब्राह्मण की करुण प्रार्थना सुन कर जल देव अपने प्रपात पर अंकुश लगाते हुए कहते हैं – “हे ब्राह्मण देव! आपकी गौ इस मनासुर के ही पास है, इसने ही उन्हें पकड़ रखा है।”

 

ब्राह्मण कुछ कह पाते उससे पूर्व ही मन बोला – “जल देव! मुझ पर यह मिथ्यारोप लगाते हुए आपको तनिक भी लज्जा न आई। आपके जल को ग्रहण करने का यह दंड दे रहे हैं मुझे? मुझसे बड़ी भूल हुई क्षमा कीजिए।”

 

ब्राह्मण व्याकुल हो गए।

 

पृथवी पर खड़े वृक्ष परम् सत्यवादी होते हैं, ब्राह्मण कहते हैं – “हे वृक्ष देव! कृपया इस सत्य को उजागर कीजिए।”

 

ब्राह्मण की व्याकुलता देख वृक्ष देव बोले -“महात्मन्! वरुण देव उचित कह रहे हैं। आपकी गौ इस असुर के ही पास है, इसने उन्हें अपने स्वार्थ वश पकड़ लिया है।”

 

“वृक्ष देव तुम भी…” मन ने कहा।

 

“चुप! एक दम चुप! नीच असुर! ब्राह्मण की गौ चुराते तुम्हें लज्जा न आई। मेरी तेजस्वी गौ के स्पर्श मात्र से तुम्हारा नाश हो सकता है! स्वार्थी! अपना अर्थ सिद्ध करने के लिए रंग बदलते हो मूर्ख ‘कृकलास‘ मेरी गौ का तुमने हरण किया है, मेरा वरदान है तुम्हें तुम ‘गिरगिट‘ हो जाओगे।”

 

यह सुनकर वरुण देव कहते हैं “महात्मन् वरदान…?”

 

“देव! हमने इसे अपना हितैषी माना था। हम अपने हितैषी को श्राप नहीं दे सकते तथा विप्रों को किसी को भी श्राप देना शोभा नहीं देता। अतः इस वरदान के स्वरूप यह अपना स्वरूप तो परिवर्तित कर सकेगा मगर कोई इसे पहचान न पाएगा।”

 

“जय हो ब्राह्मण देव, आपकी जय हो।” वरुण देव कहते हैं।

 

तत्पश्चात् ब्राह्मण अपनी गौ के साथ अन्तर्धान हो गए।

 

अब क्रोधित वरुण देव मन की ओर देखते हुए कहते हैं – “मुझ पर मिथ्यारोपण करने वाले दुराचारी असुर! सत्य का उपहास बनाते हो, अपने स्वार्थ के वशीभूत ऐसे कार्य करते हो। इसी क्षण तुम ‘भूत लोक‘ को जाओगे।”

 

क्योंकि वे सभी जल ग्रहण कर चुके थे, वरुण देव के क्रोध से भूत लोक में जा गिरे। जैसे ही वहाँ पहुँचे तो मन की तीव्र गति के कारण भूत लोक की विशाल पिशाचिनी ‘कामना‘ का एक नख टूट गया। अपने नख को टूटा देख वह फूट-फूट कर रोने लगी। पुत्री का विलाप सुनकर कामना के पिता ‘पाप’ वहाँ आ पहुँचे। पाप बड़े ही विशाल तथा शक्तिशाली पिशाच थे। उनकी शक्ति का कोई पार न था।

 

अपनी पुत्री को रोते देख उन्होंने कहा – “क्या हुआ, मेरी पुत्री क्यों रोती है?” रोते-रोते कामना ने कहा – “पिताजी इस धूर्त असुर ने… इस धूर्त असुर ने मेरा… मेरा नख तोड़ दिया!” पुनः वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है। पाप के लाल नेत्र विशाल हो गए, उनसे रक्त टपकने लगा।

 

उसने मन से पूछा – “कौन हो.. कौन हो तुम? यहाँ किस प्रयोजन से आए हो? बताओ?”

 

मन घबरा गया और बोला – “मैं… मैं मनासुर हूँ, मनुष्य वन का स्वामी…”

 

“क्यों आए हो यहाँ, हाँ?” पाप कहता है।

 

(तभी प्रेत ‘अधर्मा‘ आकर पाप को देवी का रक्त प्रसाद देती है। भूत लोक रक्त प्रसाद की कभी अवज्ञा नहीं करता इस कारण पाप उसी क्षण प्रसाद ले लेता है।)

 

“बस यूँही इच्छा हुई तो भ्रमण करने चले आए भूतराज,,,,” मन घबराते हुए कहता है।

 

“क्या कहा तुमने??, क्या कहा…??? 

इच्छा हुई तो चले आए…. हँह!”

 

रक्त ग्रहण करते हुए पाप पुनः बोला, “इच्छा हुई तो चले आए… “धूर्त मन, नीच असुर, अनिकेत भिखारी! यह लोक क्या तुम्हें कोई भ्रमण का स्थान लगता है? मेरी पुत्री को कष्ट देते हो, (पाप गर्जना करते हुए अत्यंत क्रोध में चिल्लाता है) मनुष्य वन के तुच्छ प्राणी, तुम…. 

 

तुम… सब इच्छाधारी! (मुख में प्रसाद के कारण यहाँ यति आ जाती है) इंसान हो जाओ!”

 

अपनी असुरी शक्तियों का बल दिखाने के कारण पाप उसे इंसान होने का दण्ड देता है। 

रक्त प्रसाद मुख में होने के कारण क्रोध में कहे गए पाप के वचन उसी समय सत्य हो जाते हैं और मन मृत्यु लोक का एक साधारण इंसान बन जाता है तथा उसे मिले हुए सभी श्राप, वरदान और कथन भी सत्य हो जाते हैं। मनुष्य वन में निवास करने तथा उसका राजा होने के कारण वन को काया प्राप्त होती है तथा मन उसका चालक बन जाता है।

 

देवी प्रसाद के प्रताप से सभी के वचन एक साथ पूर्ण हो जाते हैं और पाप के कहे उस ‘इच्छाधारी’ शब्द के कारण वरदान स्वरूप उसे जब चाहे तब उपरोक्त जीवों में स्वयं को परिवर्तित करने की शक्ति मिल जाती है। सभी सैनिक और बंदी उसके अनन्य रोम छिद्र और इंद्रियों में परिवर्तित हो जाते हैं और रानी प्रज्ञा को मिले उस वरदान के स्वरूप मन को एक चैतन्य शक्ति भी मिल जाती है। विचार मन के आत्मज के समान अप्रत्यक्ष रूप से उसके साथ ही रहा

 

और

 

अभिमान रूपी कौवा, स्वार्थ रूपी गिरगिट, लालच रूपी उल्लू, इर्ष्या रूपी सर्प तथा पाप रूपी कामना की गति से बन गया वो एक ‘इच्छाधारी इंसान’।

 

इसलिए ही मनुष्य का मन भाँति-भाँति के जीवों में परिवर्तित हो कर लोभ, लालच, विलास, अहंकार, ईर्ष्या, राग, द्वेष तथा कुदृष्टि आदि सब विचारों और अनुभूतियों को पूर्ण करता है। इसलिए यह कहना उचित होगा कि –

 

“गिरगिट होकर रंग है बदला, पंछी बन पाया अभिमान,

फिर भी न रह सका बिल में, यह इच्छाधारी इंसान !”

 

इति।

 

[मनुष्य का मन भाँति-भाँति के विचार करता है। यह विचार उसके द्वारा ही निर्मित होते हैं। पाप भी मन ही करता है। शरीर, बुद्धि तथा इंद्रियाँ तो बस उसका अनुसरण ही करती हैं, परंतु इच्छा वश इतने रूप ले लेने पर भी वो सब कुछ बन जाता है बस इंसान ही नहीं बन पाता। कभी सुखी नहीं रह पाता। इंसानियत चकनाचूर होकर आज दर-भदर भटक रही है और मनुष्य केवल अपना रूप और रंग बदलने में ही लगा हुआ है। इस संसार को भूतों की नहीं इंसानों की आवश्यकता है। इसलिए हे इच्छाधारियों! सर्वप्रथम एक इंसान बनो और अपना जन्म सार्थक करो।

 

सूरदास जी ने सत्य कहा है -“मन पंछी उड़ जइहें जा दिन मन पंछी उड़ जइहें। ता दिन तेरे तन तरुवर के सबहिं पात झड़ जइहें।”]

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