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राजभाषा हिंदी का सम्मान २०२२ की पुरस्कृत कहानी: जीवन का अर्थ

दिन ढलान पर था,साँझ धीरे धीरे अपना सुरमई आँचल  फैला रही थी। अंजुरी में ढेर सारे तारे लिए रात्रि अपने आगमन की प्रतीक्षा में दूर खड़ी मुस्कुरा रही थी। सड़कों पर धुआं उगलते हुए अनगिनत वाहन अपनी  कर्णभेदी आवाज़ में चीखें जा रहे थे मानों गंतव्य तक पहुँचने की अधीरता उन्हें बेचैन कर रही हो। सड़क पर इन वाहनों के अलावा पैदल चलने वालों की भी भारी भीड़ थी जिनमें कुछ तेज गति से भाग रहे थे तो कुछ थोड़ा धीरे चल रहे थे। कुछ के चेहरों पर चमक थी तो कुछ के चेहरे बुझे हुए थे। सबकी आँखों में सपनों का अम्बार था जिसे पूरा करने की ज़िद उन्हें चला रही थी। लोग चल तो रहे थे परन्तु  भविष्य की संभावनाओं तक न पहुंच पाने का डर उनके  पैरों में लिपटकर उनकी गति को शिथिल भी बना रहा था। परन्तु इन सब के बावजूद एक बात तो तय थी कि सभी कहीं न कहीं पहुंचने के लिए व्यग्र थे। इस भीड़ में ऐसा जीवन चल रहा था जिसके कारण पूरा शहर चलता है, इन बेचारे चलने वालों का कोई गंतव्य निर्धारित नहीं था। सभी अपने जीवन का अर्थ ढूढने में व्यस्त थे। सुबह घर से निकलने के बाद वापस घर आकर एक कप चाय की प्याली में अपने पूरे दिन की थकान को घोल देने के का यह क्रम वर्षों से अनवरत चल रहा था। इनका जीवन किसी यंत्र की तरह चलायमान था जिसमें धड़कन तो थी परन्तु ह्रदय में निराशा और हताशा की अनुगूँज पसरी हुई थी। 

इसी भीड़ में माधव भी था जो कल ही गांव से शहर आया था। माधव गांव का एक भोला भाला बारहवीं पास होनहार युवक था जिसकी आँखों में ढेर सारे रंगीन सपने थे । उसके सपनों में आलीशान बंगला, बड़ी-बड़ी इम्पोर्टेड गाड़ियां और नौकर-चाकर थे। वह ढेर सारा धन कमाकर किसी रईस की तरह जीवन जीना चाहता था।  माधव ने एक दूकान पर 5,000 रुपये प्रति माह की नौकरी कर ली और एक छोटा सा कमरा किराये पर ले लिया। उसका पूरे महीने का  वेतन कमरे के भाड़ा और खाने -पीने  में ही निकल जाता था। महीने के अंत में उसके पास कुछ भी नहीं बच पाता था जिससे वह अपने सपनों को साकार करने को कोई योजना बना सके । रात  होते ही उसके सपने उसकी आँखों में दीपशिखा की भांति जलने लगते थे और सूरज निकलते ही धुंध बनकर  बिखर जाते थे। रात  दिन वह यही सोचता रहता था कि उसके सपने कैसे पूरे होंगे। फिर उसने एक दिन निर्णय लिया  कि वह आगे की पढ़ाई करेगा। अपने वेतन में से थोड़ा पैसे बचाकर वह धीरे -धीरे आगे की पढ़ाई करने लगा। पढ़ाई के प्रति उसकी लगन और मेहनत रंग लाई और उसने स्नातक की पढ़ाई अच्छे अंकों से उत्तीर्ण  कर लिया। अब उसके मालिक ने उसका वेतन भी बढ़ा दिया जिससे माधव और अधिक उत्साहित होकर प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) की परीक्षा की तैयारी करने लगा।

आखिर समय ने करवट बदला और माधव आई ए एस की परीक्षा में भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया । उसकी खुशियों का कोई ठिकाना नहीं रहा। ख़ुशी के मारे उसकी आखों से आँसू बहने लगे। आज उसे अपने माता पिता की बहुत याद आ रही थी। काश वे  जीवित होते और उसे  तरक्की  की उड़ान भरते हुए देख पाते। माधव को विश्वास था कि वे जहाँ भी होंगे उसकी उपलब्धि देखकर फूले नहीं समा रहे होंगे और अपना आशीर्वाद दे रहे होंगें। अब माधव के सारे सपने बसंत के फूलों की  तरह खिलने लगे और चन्दन की तरह महकने लगे। उसने जो भी चाहा था, जिस चीज की भी कल्पना की थी,आज सब कुछ उसे उपलब्ध होने जा रहा  था।  बंगला ,गाड़ी नौकर,पद, प्रतिष्ठा  क्या कुछ नहीं था उसके पास । किसी चीज  कोई कमी नहीं थी। कल तक जो जीवन अभावों में व्यतीत हो रहा था आज वह हर प्रकार के सुख -सुविधा से भर गया था। माधव पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने लगा। 

समय अपनी निर्वाध गति से काल खंड पर अपने पदचिह्नों को छोड़ते हुए आगे बढ़ता रहा और माधव संतुष्ट भाव से अपने जीवन में आगे बढ़ता रहा। परन्तु  कभी-कभी उसके मन के किसी कोने में एक हल्की सी अपूर्णता की टीस,असंतोष का भाव उभर आता था। रातों में नींद उचट जाती थी और वह परेशान होकर सोचने लगता था  इतनी अकुलाहट क्यों है ? उसे लगता था जैसे सब कुछ होते हुए भी कहीं कुछ कमी सी है। उसके समझ में नहीं आ रहा था उसके पास किस चीज की कमी है जिसके कारण उसे अपूर्णता का बोध होता है। कुछ दिनों बाद उसकी शादी भी हो गई। एक अच्छी और समझदार पत्नी के रूप में उसे सुशीला मिली जो उसकी पूरक बनकर हर पल उसके जीवन में अत्यधिक खुशियां भरने के प्रयास में लगी रहती थी। सुशीला के साथ माधव बहुत खुश था। उसे लगने लगा उसकी खुशियां पूर्ण हो गई हैं। परन्तु इसके बाद भी कभी-कभी असंतोष की टीस,अपूर्णता के भाव की अनुभूति के साथ उसके ह्रदय को व्यथित कर देती थी। उसे लगता था कहीं न कहीं जीवन का अर्थ अभी भी अधूरा है जिसे ढूंढने की दिशा में उसकी चेतना भटकती रहती है। 

इसी बीच एक दिन कार्यालय के काम से उसे शहर से दूर जाना पड़ा। वापस लौटते  समय रास्ते में उसने देखा कि कुछ छोटे-छोटे मासूम बच्चे सड़क पर पड़े कूड़े के ढेर में से कुछ ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं। उसने अपनी कार रोकी और उन बच्चों के पास पहुँच गया। पूछा ‘क्या कर रहे हो?’ बच्चे डरकर भागने लगे परन्तु माधव ने उन्हे पकड़ लिया और पुचकार कर पूछा कि वे स्कूल न जाकर यहाँ क्या कर रहे हैं। बच्चो ने उत्तर दिया कि वे अनाथ हैं ,उनका इस दुनिया में कोई नहीं है। वे इसी तरह प्रतिदिन दिनभर कूड़े के ढेर में से  बिकने वाली चीजें बटोरते हैं जिन्हें बेचकर वे अपना पेट पालते हैं। उन्होंने  यह भी बताया कि जिस दिन उन्हे पूरा  दिन भटकने के बाद भी कुछ नहीं मिलता उस दिन वे भूखे ही सो जाते हैं। यह सुनकर माधव को अपने  बीते हुए  दिनों की यादें ताज़ा हो गईं। वह सोचने लगा उसके साथ तो उसके मा- बाप थे जो मजदूरी करके बहुत ही मुश्किल से दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाते थे। इन बच्चो का तो कोई भी नहीं है। बचपन को इस रूप में देखकर माधव  की आँखें भर आईं । उस दिन उसने उन बच्चों के साथ ही खाना खाया और घर आकर पूरी रात सोचता रहा, कितनी विचित्र दुनिया है। किसी के पास इतना धन है कि वह उनसे ऐसी-ऐसी चीजें खरीदता है जिनकी आवश्यकता भी नहीं है और कुछ लोगों के पास इतना भी पैसा नहीं है की वे दो जून की रोटी भी खा सकें। समाज में इतना बड़ा असुन्तल किस लिए? यही सोचते सोचते उसे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। नींद तो आ गई परन्तु बच्चो की चिंता के बादल नींद में भी आँसू  बनकर  उसकी आँखों से बरसते रहे। उस दिन उसने जो सपना देखा उसने उसे पूरी तरह उसे  झकझोर कर रख दिया। उसने सपने में देखा कि उसका धन, उसकी संपत्ति उसके ऐशो-आराम सब उसके सामने खड़े होकर उसे चिढ़ा रहे हैं।  माधव स्वयं को बौना महसूस करने लगा। इतना धन, संपत्ति आखिर क्यों चाहिए ? इसका प्रयोजन क्या है? इनकी उपयोगिता क्या है ? भूखे बच्चों को अगर अपनी भूख मिटाने के लिए कूड़े के ढेर पर जाकर निवाला ढूढना पड़े तो धिक्कार है ऐसे धन पर। अपने पास धन का अम्बार लगाकर आखिर हम क्या दिखाना चाहते हैं ? किसको दिखाना चाहते हैं? दिखावे का मुखौटा हम कब तक लगाए रहेंगे? इन्हीं प्रश्नों की  बौछार ने उसकी नींद आधी रात को ही खोल दी परन्तु उसकी आँखों में उमड़ता हुआ समुन्दर अब शांत प्रतीत हो रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उसने कोई बड़ा निर्णय ले लिया है।   

दूसरे दिन सुबह ही माधव उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ वे बच्चे आज भी कूड़े के ढेर में अपना जीवन तलाश रहे थे। वह उन  बच्चों को अपने साथ घर लाया।  उनके रहने, खाने -पीने  और पढ़ाई की पूरी व्यवस्था की।  इतना ही नहीं माधव ने अपने जीवन की सारी जमा पूंजी लगाकर एक बाल विकास केंद्र की भी स्थापन की जहां ऐसे अनाथ बच्चों की परवरिश और उनकी शिक्षा का पूरा ध्यान रखा जा सके। देखते ही देखते इस केंद्र में असहाय बच्चों के चौमुखी विकास और उनके सुन्दर भविष्य के निर्माण हेतु काम होने लगा। 

आज उस घटना को २० वर्ष बीत चुके हैं। माधव ने बाल विकास केंद्र के रूप में जो बीज बोया था आज वह वटबृक्ष के रूप में विकसित हो गया है जहाँ  लगभग 1000  बच्चों की  परवरिश और पढ़ाई के साथ-साथ उनके भविष्य के विकास का भी ध्यान रखा जाता है। आज भी माधव अपने वेतन का एक छोटा हिस्सा अपने पास रखकर बाकी पैसे बाल विकास केंद्र को दान कर देता है। यह देखकर उसे बहुत ख़ुशी और संतोष होता है कि केंद्र से निकले हुए  बच्चे आज अपने पैरों पर खड़े होकर देश के  विकास में अपना अप्रतिम योगदान दे रहे हैं। अब उसका मन कभी अशांत नहीं रहता और न ही उसके हृदय के किसी कोने में कोई अपूर्णता या असंतोष  की टीस  ही उठती है। अब उसे रात में गहरी और प्यारी नींद भी आती है क्योंकि वह जान गया है कि निष्काम मानव सेवा ही मनुष्य को पूर्ण बनाती है। माधव को ख़ुशी है कि उसने जीवन का सही अर्थ पा लिया है ।  

-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बैंगलोर। 

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