भारत की स्वतंत्रता के गुमनाम नायक
भारत की स्वतंत्रता के गुमनाम नायक – १८५७ की क्रांति के अग्रदूत लाला हुकुमचंद जैन
हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 में हांसी (हिसार) हरियाणा के प्रसिद्ध कानूनगो परिवार में श्री दुनीचंद जैन के घर हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा हांसी में हुई थी। जन्म जात प्रतिभा के धनी हुकुमचंद जी की फ़ारसी और गणित में रुचि थी। अपनी शिक्षा व प्रतिभा के बल पर इन्होंने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के दरबार में उच्च पद प्राप्त कर लिया था और बादशाह के साथ इनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे।
1841 में मुगल बादशाह ने इनको हांसी और करनाल जिले के इलाकों का कानूनगो व प्रबन्धकर्ता नियुक्त किया। ये सात साल तक मुगल बादशाह के दरबार में रहे, फ़िर इलाके के प्रबन्ध के लिए हांसी लौट आये। इस बीच ब्रितानियों ने हरियाणा प्रांत को अपने अधीन कर लिया। हुकुमचंद जी ब्रिटिश शासन में कानूनगो बने रहे, पर इनकी भावनाएँ सदैव ब्रितानियों के विरुद्ध रहीं।
1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तब लाला हुकुमचंद की देशप्रेम की भावना अंगड़ाई लेने लगी। दिल्ली में आयोजित देशभक्त नेताओं ने इस सम्मेलन में, जिसमें तात्या टोपे भी उपस्थित थे, हुकुमचंद जी उपस्थित थे। बहादुर शाह से उनके गहरे सम्बन्ध पहले से ही थे अतः इन्होंने ब्रितानियों के विरुद्ध युद्ध करने की पेशकश की। इन्होंने सबको विश्वास दिलाया की वे इस संग्राम में अपना तन मन और धन सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं।
इनकी इस घोषणा से बहादुर शाह ने भी हुकुमचंद जी को विश्वास दिलाया कि वे अपनी सेना, गोला-बारूद तथा हर तरह की युद्ध सामग्री सहायता स्वरूप पहुँचाएँगे। हुकुमचंद जी इस आश्वासन को लेकर हांसी आ गये।
हांसी पहुँचते ही इन्होंने देशभक्त वीरों को एकत्रित किया और मोर्चा लेने के लिए तैयारियाँ कीं। जब ब्रितानियों की सेना हांसी होकर दिल्ली पर धावा बोलने जा रही थी, तब उस पर हमला किया और उसे भारी हानि पहुँचाई। हुकुमचंद व इनके साथियों के पास जो युद्ध सामग्री थी वह अत्यंत थोड़ी थी, हथियार भी साधारण किस्म के थे। दुर्भाग्य से जिस बादशाही सहायता का भरोसा इनको मिला था वह भी समय पर नहीं पहुँची, फ़िर भी इनके नेतृत्व में जो वीरतापूर्ण संघर्ष हुआ वह 1857 की क्रांति का अविस्मरणीय घटनाक्रम है।
इसके बाद से लालाजी ब्रितानियों को परास्त करने के उपाय खोजने लगे। लाला हुकुमचंद जी व उनके साथी मिर्जा मुनीर बेग ने गुप्त रुप से एक पत्र फ़ारसी भाषा में मुगल सम्राट को लिखा, (कहा जाता है कि यह पत्र खून से लिखा गया था) जिसमें उन्हें ब्रितानियों के विरुद्ध संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्वास दिलाया, साथ ही ब्रितानियों के विरुद्ध अपने घृणा के भाव व्यक्त किये थे और अपने लिये युद्ध सामग्री की मांग की थी।
हुकुमचंद जी मुगल सम्राट के उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए हांसी का प्रबन्ध स्वयं सम्हालने लगे। किन्तु दिल्ली से पत्र का उत्तर ही नहीं आया। इसी बीच दिल्ली पर ब्रितानियों ने अधिकार कर लिया और मुगल सम्राट् गिरफ़्तार कर लिये गये।
15 नवम्बर 1857 को व्यक्तिगत फाइलों की जाँच के दौरान लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग के हस्ताक्षरों वाला वह पत्र ब्रितानियों के हाथ लग गया। यह पत्र दिल्ली के कमिश्नर श्री सी.एस. सॉडर्स ने हिसार के कमिश्नर श्री नव कार्टलैण्ड को भेज दिया और लिखा कि – इनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाये।
पत्र प्राप्त होते ही कलेक्टर एक सैनिक दस्ते को लेकर हांसी पहुँचा और हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग के मकानों पर छापे मारे गये। दोनों को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ में हुकुमचंद जी के 13 वर्षीय भतीजे फ़कीर चंद जैन को भी गिरफ़्तार कर लिया गया। हिसार लाकर इन पर मुकदमा चला, एक सरसरी व दिखावटी कार्यवाही के बाद 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट जॉन एटकिंसन ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को फ़ांसी की सजा सुना दी। फ़कीर चंद को मुक्त कर दिया गया।
19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग़ को लाला हुकुमचंद के मकान के सामने फ़ांसी दे दी गई। क्रूरता और पराकाष्ठा तो तब हुई जब लाला जी के भतीजे फ़कीर चंद को, जिसे अदालत ने बरी कर दिया था, जबरदस्ती पकड़ कर फ़ाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया।ब्रितानियों की क्रोधाग्नि इतने से भी शान्त नहीं हुई। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहचाने के लिये ब्रितानियों ने इनके रिश्तेदारों को इनके शव अन्तिम संस्कार हेतु नहीं दिये गये, बल्कि इनके शवों को इनके धर्म के विरुद्ध दफ़नाया गया। ब्रितानियों ने लाला जी की सम्पत्ति को कौड़ियों के भाव नीलाम कर दिया था।