नीव के पत्थर

टाइपिस्ट क्लर्क – ज्ञानेश्वर प्रसाद सिंह

डिजिटल युग में, जहां ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मुख्य भूमिका निभा रहे हैं, कार्यालयों में एक टाइपिस्ट क्लर्क की भूमिका अभी भी महत्वपूर्ण और अपरिहार्य है। उनकी उपस्थिति कार्यस्थल में न केवल कार्यकुशलता को बढ़ाती है बल्कि तेजी से विकसित हो रहे कार्यालय वातावरण में मानवीय स्पर्श भी लाती है।कैफे सोशल के इस लेख में, आधुनिक कार्यालयों में टाइपिस्ट क्लर्कों की अपरिहार्य भूमिका पर प्रकाश डाला गया है, जो संगठनात्मक सफलता में उनके योगदान को उजागर करता है।

किसी भी संस्थान में टंकक यानी टाइपिस्ट की बड़ी भूमिका होती है।किसी भी दस्तावेज को लिपिबद्ध करना इनकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। नींव के पत्थर के नायक ज्ञानेश्वर प्रसाद सिंह, एस. एन. सिंहा महाविद्यालय वारिसलीगंज उस जमाने के टाइपिस्ट रहे हैं, जब हमारे देश में टाइपिंग के क्षेत्र में इतनी सुविधाएं नहीं थी। एक टाइपिंग मशीन हुआ करती थी और दिन भर नजरें गड़ाए उसे देखते रहना पड़ता था और उंगलियों के माध्यम से खट खट की आवाज गूंजती रहती थी। सारे कागजात को संभालने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की होती थीं। तनख्वाह बेहद कम और उसी में घर संभालने की जिम्मेदारी, सचमुच ज्ञानेश्वर प्रसाद सिंह के संघर्षों के दिन थे वो।

सन् १९८० की बात है। इनकी शादी जल्दी हो गई। इनके चाचा डॉ विश्वेश्वर प्रसाद सिंह हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे और एक एम कालेज गया में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर थे। किंतु एक तरह से पिता का धर्म उन्होंने ही निभाया। ज्ञानेश्वर प्रसाद सिंह के घर का नाम अशोक है और ये अपने चाचा विश्वेश्वर प्रसाद सिंह को अपना आदर्श मानते हैं।

तब उस समय महाविद्यालय के प्रधानाचार्य हुआ करते थे डॉ रामानुग्रह शर्मा। प्रधानाचार्य का स्नेह इन्हें मिलता रहता था। उस जमाने में वेतन भी बहुत कम हुआ करता था। तीन पुत्रियों और एक पुत्र के ये पिता बने। शादी विवाह में तब लेन देन की प्रथा भी थी । आर्थिक कठिनाइयों के बीच जीना भी एक चुनौती है। सभी का देखो नहीं होता है नसीबा रोशन सितारों जैसा, सयाना वो है जो पतझड़ में भी सजाले गुलशन बहारों जैसा। इस सिद्धांत को अपनाकर अशोक ने सारा शोक पीकर अपनी जिंदगी को खुशहाली के आकाश से ढंक लिया। कम है तो कम में जियो, यही इनका मूल सिद्धांत रहा।

बचपन में सिनेमा देखने और फिल्मी गीतों का सुनने का बड़ा शौक था इन्हें और बहुत सारी फिल्में देख डाली, तब सपने भी बड़े-बड़े थे, पर ख्वाब देखने और हकीकत का सामना करने में बड़ा अंतर होता है। जिंदगी की मुश्किलें बड़ी कठिन होती है। एक ही तरह की जिंदगी जीते जीते लगभग सत्तर साल गुजर गये। कभी कभी दमा से भी परेशान रहे, पर हौसला नहीं छोड़ा। आज भी अपने शौक़ के साथ जिंदगी का लुत्फ ले रहे हैं, क्योंकि इनका मानना है कि जेहि विधि राखे राम सेहि बिधि रहिये। कोई लाख करे चतुराई करम का लेख मिटे ना रे भाई।

बच्चियों की शादी हो चुकी है और  बेटा शिक्षा जगत से जुड़ा है। उसकी शादी हो जाये तो फिर दो रोटी खानी है और राम धुन में मस्त रहना है, अब इनका यही मकसद है।इनका मानना है कि प्रायः अमीरों के पास दिल नहीं होता है। इसीलिए भौतिक चमक दमक से जरा भी प्रभावित नहीं हैं और खरी खरी सुनाने से भी बाज नहीं आते हैं। जिंदगी प्रभु की इच्छा है और उसे इसी रुप में लेना चाहिए, यही इनका संदेश है, सभी के लिये।

एक टाइपिस्ट क्लर्क की औसत आय प्रायः मध्यम स्तर पर होती है, जिससे उन्हें अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने में और एक सामान्य जीवन यापन में कठिनाई हो सकती है। बढ़ती महंगाई और सीमित वेतन वृद्धि के कारण, कई टाइपिस्ट क्लर्कों को अपने बजट का प्रबंधन करने में संघर्ष करना पड़ता है, विशेषकर बड़े शहरों में जहां जीवन यापन की लागत अधिक होती है। इस संघर्ष के बावजूद, वे अपनी जिम्मेदारियों के प्रति समर्पित रहते हैं, जो उनकी पेशेवरता और दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।

टाइपिस्ट क्लर्क, अपने अनूठे कौशल और विशेषताओं के मिश्रण के साथ, आधुनिक कार्यालयों की कार्यक्षमता और उत्पादकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका योगदान केवल टाइपिंग से परे है; वे सटीकता, कुशलता, गोपनीयता, और मानवीय स्पर्श के संरक्षक हैं जिसे डिजिटल उपकरण दोहरा नहीं सकते। कार्यालयों के विकास के रूप में, टाइपिस्ट क्लर्क की भूमिका अधिक बहुमुखी और अमूल्य है।

प्रो. विनय भारद्वाज
ज्योतिषाचार्य और मानविकी संकायाध्यक्ष,
मगध विश्वविद्यालय, गया

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