मेरी कलम सें – मैं स्त्री हूँ
मैं स्त्री हूँ ,
काम से लौटकर, काम पर जाती हूँ।
स्थान बदलते ही,नाम नया पाती हूँ।।
सिर से लेकर पैर तलक,हर ज़िम्मेदारी उठाती हूँ।
प्याज के आँसू से लेकर, ब्याज तक के बहाती हूँ॥
जिन आभूषणों और वस्त्रों तले, मैं दबकर रह जाती हूं।
उन्हीं को दूसरों की खुशी के लिए,बड़े प्यार से तन पर सजाती हूँ।।
चुभ जाती हैं बातें कईं, पर बार-बार भुलाती हूँ।
बस मेरी न चुभे किसी को, यही खुद को याद दिलाती हूँ।।
गर कोई रूठे, घर का सदस्य, तो उसे मनाती हूँ।
इस बीच खुद का रूठना और ऐंठना भूल जाती हूँ।।
मैं स्त्री हूँ,
काम से लौटकर काम पर जाती हूँ।।
घर की दीवारों को, रिश्तों से सजाती हूँ।
खुद पर जमीं धूल, आईने पर से हटाती हूँ।।
जो सबको पसंद हो खाने में, वही बनाती हूँ।
अपनी पसंद भूलकर, सबको खिला, खुश हो जाती हूँ।।
मैं स्त्री हूँ,
काम से लौटकर काम पर जाती हूँ।।
थककर भी नहीं रुकती, चलती ही जाती हूँ।
हर रोज नयी ऊर्जा, जाने कहाँ से लाती हूँ?
एक पल में जमीं पर व दूसरे में आसमां को छूकर आती हूँ।
कल्पना के घोड़े, काम के वक्त भी दौड़ाती हूँ।।
जिन सपनों को रोज़ सुबह उठते ही दिलासा दिलाती हूँ।
रात होने तक, उसी दिलासे पर, पानी फेर सुलाती हूँ।।
खुद के मरे ही स्वर्ग मिलता है, यह दोहराती हूँ।
किसी ओर के सहारे नहीं बल्कि विश्वास पर जीवन बिताती हूँ।।
घर की चिक-चिक, किसी को नहीं सुनाती हूँ।
दफ़्तर की थकान, दफ़्तर में ही रखकर आती हूँ।।
आँखों से छलक न जाए, बॉस की डांट, इसलिए मुस्कराती हूँ।
रिश्तों की खटास चेहरे पर कभी नहीं लाती हूँ।।
चाम का रंग, अपने काम पर, कभी नहीं लाती हूँ।
बल्कि नाम का रंग, काम से चमाकर, चमकाती हूँ।।
मैं स्त्री हूँ,
काम से लौटकर काम पर जाती हूँ।।