मेरी कलम से

कविता – मंजिल

जब “मंजिल” से हुई, गुफ्तगू,
हर “मोड़” पर “कश्मकश” थी,
कभी काँटे लदे,कभी कंकड़ बिछे,
“मजबूर” चलने को जिंदगी थी।

तूफ़ां तो,कभी हवाओं के जलजले,
कभी थपेड़े,कभी “थकन” के बसेरे,
बसी “अकांक्षाओं” की रहनुमाई,
रास्ते के “पार” जिन्दगी थी ।

हजारों “उम्मीदों” का जुनूँ,
आशाओं के सफर का सुकूँ,
जटिल दीवारों की “मेड़” थी,
बढ़ने का “हौंसला” जिंदगी थी।

कभी “दलदलों” सा सफर,
कभी “नीरसता” का शज़र,
“गर्त” में कभी धँसती जमीं,
आशाओं के शामियाने जिंदगी थी।

वेदना के दामन तले,
डगर में लाखों “खामियां” पलें,
अक्सर उठती हुंकार “भूख” की,
जिंदगी की दरकार “मंजिल” थी।

जब “मंजिल” से हुई गुफ्तगू,
हर “मोड़” पर “कशमकश” थी।

डी. के.सक्सेना(दीप-दर्शन)
ग्वालियर म.प्र.

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