मेरी कलम से
कविता – शब्दों से शिकायत
शब्द तुम बोलते वक्त कहाँ चले जाते हो?
समय पर मेरे काम क्यों नहीं आते हो?
मैं निःशब्द – सी रिक्त हो खड़ी रह जाती हूँ,
तुम मेरी बेकसूरी को कहाँ छिपाते हो?
शब्द तुम बोलते वक्त कहाँ चले जाते हो?
बात कुछ सीधी और, और ही होती है।
साफ़ इतनी कि जैसे हीरा और मोती हैं।
हालात मेरे सब जानते हुए भी तुम,
तुरंत मेरी जुबा पर क्यों नहीं आते हो?
शब्द तुम बोलते वक्त कहाँ चले जाते हो?
अबके कुछ होगा तो यह, वह, सब कह दूंगी।
हर बात को तोल – मोल करके मैं बोलूंगी।
पर तुम एन वक्त पर गले की खराश बन,
तुम तुतलाकर आखिर हकला क्यों जाते हो?
शब्द तुम बोलते वक्त कहाँ चले जाते हो?
मुझे ही क्यों संस्कारों का जामा ओढ़ाते हो?
उसको क्यों नहीं उसकी भाषा बताते हो?
मुझमें विनम्रता का घर बना लिया है तुमने,
आधी बात बता आधी को तो खा ही जाते हो?
शब्द तुम बोलते वक्त कहाँ चले जाते हो?

भीलवाड़ा, राजस्थान
