परमवीर चक्र

कारगिल नायक दीपचंद जी – लचीलेपन और दृढ़ संकल्प की मिसाल

यह कहानी भारत के हर उस नागरिक की है जो मन में देशभक्ति की भावना रखता है, उस नागरिक की है जो हार के बाद खुद ही उठकर जीतता है और जीतकर दुनिया के लिए एक मिसाल बनाता है।

छोटे से गांव के अपने कमरे में बैठे दीपचंद की पढ़ते – पढ़ते दीवार पर लगे कैलेंडर पर नजर पड़ी। देखा कि आज महीने की आखरी तारीख है। तारीख बदलने का समय आ गया था। वह आगे बढ़ा और पन्ना पलटने लगा। पर वह यकायक रुक गया। उसकी नजर कैलेंडर में लगी तसवीर पर पड़ी। गोल बड़ा काला चश्मा, मुखमंडल पर विस्तृत आभा लिए एक चेहरा आकर्षित कर रहा था। वह चेहरा किसी आम आदमी का नहीं बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महानायक सुभाषचंद्र बोस का था। दीपचंद ने कैलेंडर से सुभाषचंद्र बोस का चित्र निकालकर अपनी जेब में रख लिया और फिर पन्ना पलटकर पढ़ने बैठ गया। बचपन से उसके आदर्श नायक का स्मरण होते ही उसमें देशभक्ति जाग उठती थी।

चित्र देखते ही उसके मन में फिर से देशभक्ति के भाव जाग उठे। वह चाह कर भी अपने भावों को रोक नहीं पाया और उसका सेना में जाने का सपना अथाह समुद्र की लहरों सा उबाल मारने लगा। वह दौड़ा -दौड़ा माता – पिता के पास जाता है और कहता है, ”मुझे भी सेना में भर्ती होना है। मैं भी युद्ध लडूंगा, देश की रक्षा करूंगा।“ उस समय जब कोई सैनिक शहीद हो जाता तो उसके घर वालों को केवल उसके मौत की खबर मिलती थी, उसका पार्थिव शरीर भी नहीं मिलता था। इसलिए उसके माता – पिता ने पहली बार में ही मना कर दिया कि बिल्कुल नहीं जाना है।


दीपचंद मन में हजार ख्वाब सजाए बैठा था पर माता – पिता की मनाही ने अरमानों पर पानी फेर दिया। अब आखरी सहारा मतलब उसके सपनों को सहमति देने वाले बचे थे उसके दादा -दादी। उनको मनाया। वे मान गए और उसका सहयोग भी किया। ग्यारवीं पास करने के बाद दीपचंद ने सेना में भर्ती होने के लिए पैंसठ रुपए जैसी मामूली रकम पाकर खेतों में काम किया और फॉर्म भरा। सेना में तीन सौ चौरानवें उम्मीद् वारों में से अंतिम उम्मीदवार के रूप में चयनित हुआ।

दीपचंद का प्रशिक्षण नासिक और अंबाला छावनी में हुआ और प्रथम नियुक्ति कश्मीर में हुई। दीपचंद को यह सब विदेश यात्रा जैसा प्रतीत हो रहा था क्योंकि वह तो अपन गांव छोड़कर भी कभी बाहर नहीं गया था। कश्मीर नियुक्ति के नाम से बहुत खुश था कि बहुत बर्फ होगी, हरियाली होगी और बड़ा सुहाना मौसम होगा। पर जब हकीकत सामने आई कि यहां की जनता आतंकवादियों के कारण सुरक्षित नहीं है तो वह सब बातें घुल हो गई और याद रही अपनी जिम्मेदारी और कर्त्तव्य। दीपचंद बचपन से बहुत स्वाभिमानी और जिम्मेदार बालक था। जब वह सेना में भर्ती हुआ तो उसने कश्मीर में घुलने – मिलने के लिए और अपने कार्य के लिए उसने वहां की भाषा, बोली और संस्कृति सीखी। यहां तक कि लोगों से जान पहचान बढ़ाने के लिए उसने वहां की वेशभूषा भी पहनी। उसे देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह कश्मीरी नहीं है।

उन्हीं दिनों कईं आतंकवादियों ने घाटी में कोहराम मचाया हुआ था। मुश्किल यह थी कि उन्हें पहचाने कैसे? दीपचंद की यह कला वहां काम आई। उसे खुफिया एजेंसी में नियुक्ति मिली। उसकी योजनाओं के आधार पर कईं आतंकवादी पकड़े गए। वह सेना में सुर्खियों में आ गया। पर उसे तो सुर्खियां नहीं बल्कि देश की सुरक्षा चाहिए थी।

इसी दौरान उसके कईं परम मित्र भी बने। दीपचंद उन्हीं को अपना परिवार मनाता था क्योंकि वहां वही उनका परिवार होता है। पहले साथी और सहयोगी तो वही होते हैं। उनमें से दीपचंद की दोस्ती ….. से हो गई जो दोस्ती उसके मरते दम तक रही। सन्…… भारत – पाकिस्तान के मध्य हुए कारगिल युद्ध में भी दीपचंद की तैनाती हुई। उसके लिए यह किसी सपने का सच होने से कम नहीं था क्योंकि वह सैनिक के रूप में यह मानता था कि युद्ध लड़ना और जीत हासिल करना ही सैनिक का धर्म होता है। युद्ध में जाने की स्वीकृति मिलना मतलब देश का सबसे बड़ा तमगा मिलना था। वह तो बचपन से ही भारत माता के लिए कुर्बान होने के लिए तैयार था। युद्ध में उसके कईं साथी घायल हो गए और कुछ मारे भी गए। दीपचंद और उसके साथी युद्ध के दौरान अपने घायल साथियों को लेने जा रहे था। दीपचंद ने देखा कि बीच रास्ते में जगह – जगह मांस के टुकड़े पड़े हुए हैं। कहीं कटा हुआ हाथ तो कहीं पैर, तो कहीं धड़।


वह यह सब देखता – देखता आगे बढ़ रहा था तभी उसे उसके जिगरी दोस्त मुकेश कुमार का कटा सिर दिखा। मानों ‘काटो तो खून नहीं‘ पर क्या करता उसे वापस अपने साथियों के साथ सुरक्षित लौटना भी तो था। वो दिन उसके लिए सबसे बुरा दिन था। अपने मित्र की मृत्यु से पूरी तरह टूट चुका था। अब उसके मन में यही भावना थी कि देश के दुश्मनों को मार गिराना है ताकि फिर से कोई सैनिक शहीद न हो। वह युद्ध में आगे बढ़ता गया। कारगिल युद्ध में भारत की विजय हुई। चारों तरफ खुशी का माहौल था। पर दुश्मन भी कब अपनी हरकतों से बाज आए हैं । कुछ न कुछ हरकतें करता ही रहता है। एक घटना के लोडिंग के दौरान दीपचंद के शरीर के कईं हिस्से घायल हो गए। उसके बचने की उम्मीद नहीं थी पर सेना के नायक को विश्वास था कि बच जायेगा। हस्पताल में भर्ती करवाया गया।

इलाज के दौरान उसे पता चला कि उसका एक हाथ और दोनों पैर नहीं रहे। मात्र सत्ताइस साल में ऐसा पहाड़ टूट पड़ना उसके लिए किसी नर्क से कम नहीं था। वह अपनी मौत मांग रहा था कि ”इससे तो अच्छा होता कि मैं मर ही जाता।“ अपने सैनिक जीवन को याद कर दुखी होता कि मैं क्या था और अब क्या हो गया हूं। मन में हजार बुरे खयाल लाकर भी मर नहीं पाता था। अब उसके जीवन में उसकी मां भी नहीं थी। उसकी पत्नी और बच्चों के लिए वह दुखी होता था कि ये कैसे जीवनभर मेरी सेवा करेंगे? अभी तो बहुत उम्र पड़ी है।

बचपन में उसके दादा जी कहते थे कि भगवान ने अगर कोई समस्या धरती पर दी है तो उसका समधन भी साथ का साथ दिया है। बस जरूरत होती है हमें उठकर देखने की। वह बिस्तर पर पड़ा – पड़ा सोचता रहता। इसी दौरान उसने सोशल मीडिया के माध्यम से कृत्रिम पैरों की जानकारी ली और अपने पैर लगवाए। उम्मीद की किरण जागी।

वह उल्लास से भर गया कि मैं फिर से खड़ा हो पाऊंगा, चल पाऊंगा और फिर से सैनिक बनूंगा। उसके पैर लगते ही उसने धरती मां को प्रणाम किया और कहा कि ”मैं आपका शुक्रगुजार हूं जो आपने मुझे फिर से अपने आंचल में लिया।“ अब इसमें होसलें भर गए थे। उसके चेहरे पर आशा की किरण आ गई गई। उसके मन से सारी नकारात्मकता चली गई। वह सेना में तो नहीं जा पाया पर उसने सोच लिया कि मैं देश के उन सभी सैनिकों का हौसला बनूंगा जो मेरे जैसे हैं या उन लोगों की हिम्मत बनूंगा जो अपने जीवन से निराश हो गए हैं।

अब मानों दीपचंद के पंख लग गए। वह देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर लोगों की हौसला अफजाई करने लगा। लोग उससे प्रभावित भी होने लगे। होते भी क्यों न उसने सबके सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर दिया था।

”रूह मेरी दुश्मनों के लिए खतरा बन जाए।
वतन की खातिर लहू मेरा कतरा बन जाए।।
मिट्टी में मिलकर हर अंग मेरा आबाद रहे।
मैं रहूं या न रहूं, वतन मेरा जिंदाबाद रहे।।”


”तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा“ नारे से प्रभावित होने वाला और सुभाष चंद्र बोस को अपना आदर्श मानने वाले यह दीपचंद जी और कोई नहीं बल्कि भारत का परमवीर चक्र विजेता कारगिल नायक दीपचंद जी ही हैं जो आज हम सभी के लिएआदर्श और प्रेरणा के स्त्रोत बन चुके हैं।

कैफे सोशल मैगजीन उनके हौसले व जज्बे को सलाम करती हैं।

ललिता शर्मा नयास्था’
भीलवाड़ा, राजस्थान

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