Generalशूरवीरो की गाथा

भारत के गुमनाम नायक – वासुदेव बलवंत फड़के जी

भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए देश के अनेकों देशभक्तों ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया था। इस यज्ञ में अपने प्राणों की आहुतियाँ दी तब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। स्वतंत्रता के यज्ञ में योगदान देने वाले अनगिनत नींव के पत्थर बन आधार शिला बन गये। इसी आधार शिला के एक गुमनाम पत्थर के रुप में थे वासुदेव बलवंत फड़के जी.

वासुदेव बलवंत फड़के जी का जन्म महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के शिरधोन गांव में एक ब्राह्मण परिवार में ४ नवंबर १८४५ में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के बाद सन् १८६२ में स्नातक परीक्षा बांबे विश्वविद्यालय से की। तत्पश्चात बंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज और कमिश्नरी परीक्षक कार्यालय जैसे सरकारी संस्थानों में नौकरी की।वाद में पुणे के सैन्य वित्त विभाग में क्लर्क की नौकरी की। सन् १८७६-७७ में महाराष्ट्र में अकाल पड़ा। अकाल के दौरान महाराष्ट्र के कई जिलों का भ्रमण किया। फड़के जी किसानों और लोगों की दुर्दशा देखकर एवं अंग्रेज अधिकारियों की उदासीनता से बहुत चिंतित हुए। तब उन्होंने ठाना कि इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब ब्रिटिश सरकार भारत से बाहर चली जाएं। इस तरह से फड़के जी पहले ऐसे व्यक्ति थे जो सम्पूर्ण स्वराज के समर्थक थे।

एक बार उन्हें उनकी माता जी की तवियत खराब होने का समाचार मिला, समाचार सुनकर वह अंग्रेज अधिकारी के पास अवकाश मांगने गए। लेकिन अंग्रेजों को तो भारतीयों को अपमानित करने में आनंद आता था तो उन्होंने फड़के जी को भी अपमानित कर अवकाश देने से मना कर दिया। किंतु किसी भी बात की परवाह न करते हुए वह अपने घर पहुंच गए। वहां जाकर देखा कि माता जी का स्वर्गवास हो गया, उनकी मां उनका मुंह देखें बिना चली गई। उन्होंने मां के पांव छूकर माता से क्षमा मांगी और अंग्रेजों के प्रति विद्रोह करने की ठान ली।

महाराष्ट्र स्वदेशी आंदोलन प्रमुख नेता न्यायमूर्ति रानाडे का भाषण सुनकर उनसे प्रेरणा लेकर एक संगठन बनाने का विचार किया। महाराष्ट्र के बहुत से जिलों में जाकर लोगों से विचार विमर्श किया और उन्हें संगठन में शामिल होने का आह्वान दिया किन्तु उन्हें वह सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। कुछ दिनों के बाद गोविंद राव दावरे तथा कुछ अन्य लोग संगठन से जुड़े लेकिन अभी भी एक शक्तिशाली संगठन के लिए यह कम था।वह लोगों के बीच जाकर कहते थे कि ”हमारा देश आजाद होना चाहिए, अंग्रेजों को देश से बाहर निकलना ही होगा। यह कैसे होगा, इसे करने के तरीके और साधन में बताऊंगा“ तब उन्होंने वनवासी जातियों को संगठित कर संगठन को शक्ति प्रदान की।

फड़के जी जानते थे कि भगवान राम ने भी वानरों के सहयोग से रावण को युद्ध में हराया था, महाराणा प्रताप ने भी इन्हीं वनवासियों के सहयोग से औरंगजेब को टक्कर दी थी। फड़के जी ने लक्ष्मण इंदापुरकर और वामन भावे के साथ मिलकर पूना नेटिव इंस्टीट्यूशन शुरू किया, वाद में इसका नाम बदलकर महाराष्ट्र एजुकेशन सोसायटी कर दिया।यह सोसायटी आज भी कई स्कूल और कॉलेज चलाती है।

पुणे से ही फड़के जी ने भावनात्मक और प्रेरक भाषण देकर लोगों को संगठित किया और भारतीयों के मन में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति विद्रोह जगा दिया। सैन्य विद्रोह के लिए धन जुटाने के लिए फड़के और उनके साथियों ने ब्रिटिश प्रतिष्ठानों को लूटना शुरू किया। इससे अंग्रेजी हुकूमत इनके पीछे पड़ गई।अव तक संगठन का असर मजबूत हो गया था। इससे अंग्रेज अधिकारी चिंता में पड़ गए।

एक दिन सरकारी भवन में अंग्रेज अधिकारियों की बैठक चल रही थी तभी रात को फड़के और उनके साथियों ने यहां आकर अधिकारियों को मारा और भवन में आग लगा दी। इस घटना से अंग्रेजी हुकूमत इनको पकड़ने का प्रयत्न करने लगी। अंग्रेजों ने इनके ऊपर पुरूस्कार घोषित कर दिया। जगह जगह इश्तहार लग गये कि फड़के को जो भी पकड़वाने में मदद करेगा उसे ५०,००० रु दिए जाएंगे। दूसरे ही दिन फड़के जी ने अपने हस्ताक्षर सहित इश्तहार लगवा दिए कि जो कोई अंग्रेज अधिकारी रिचर्ड का सिर काट कर लाएगा उसे ७५,००० रु दिए जाएंगे।

अंग्रेजों की गिरफ्तारी से बचने के लिए फड़के जी महाराष्ट्र से भागकर आंध्र प्रदेश के श्री शैल मल्लिकार्जुन में पहुंच गए। यहां रहते हुए भी उन्होंने निजाम की सेना के रोहिल्लाओं, अरबों और सिखों की मदद से एक नया विद्रोह संगठन बनाने का प्रयास किया लेकिन यहां पर अपने लोगों की गद्दारी और मुखवरी से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।उन पर पुणे में मुकद्दमा चलाया गया। और उन्हें ३१अगस्त १८७९को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई,वचाव में फड़के जी ने कहा कि ‘भारत वासी आज मृत्यु के समीप खड़े हैं, परतंत्रता की इस लज्जा पूर्ण स्थिति से मर जाना ही श्रेयस्कर है‘। ”में भगवान या सरकार से नहीं डरता क्योंकि मेंने कोई पाप नहीं किया“

अदन जैल में कारावास के समय उन्हें तपेदिक हो गया, परिणाम स्वरूप मात्र ३७ वर्ष की अल्पायु में उनका स्वर्गवास हो गया। आजादी के बाद भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया।

महाराष्ट्र में की जगह भारत माता के इस वीर सपूत की मूर्तियाँ स्थापित हैं। १८५७ की स्वतंत्रता क्रांति ने देश वासियों के दिलों में आजादी की जो चिंगारी भड़की थी, वो धीरे धीरे बुझनी लगी थी उस समय महाराष्ट्र के दूसरे शिवाजी कहें जाने वाले वासुदेव बलवंत फड़के जी ने क्रांति की मशाल अपने हाथों में थामी थी।

कैफे सोशल मासिक पत्रिका भारत माता के इस अग्रणी नायक की देश और देशवासियों के लिए किए गए योगदान को याद करते हुए उन्हें शत् शत् नमन करता है।

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