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व्यंग्य – कचरा…

-इंजी. प्रकाश मालवीय


वैसे भी , व्यंग्य ,कटाक्ष जैसी विषय वस्तु तो दिन भर के कार्यकलाप में से कहीं से भी उठा सकते है …. जैसे कचरा ….चौकिये नहीं यह शब्द मेरे दैनिक जागरण का कारण हर दिन ही बनता रहा है .. सुबह-सुबह 6:00 , 6:30 बजे नगर निगम की कचरा गाड़ी की परिक्रमा की शुरुआत मेरे घर से ही होती है… ऊंची आवाज में स्पीकर बोलने लगता है… स्वच्छता की राजधानी है भोपाल… हमारी जिम्मेदारी है हमारी साझेदारी है वगैरह-वगैरह…इसी अनुक्रम में आज पत्नी के स्वर तेजी से गूंजे… फेक आओ ना अंदर का कचरा जल्दी से… मुझे शीर्षक मिल गया था… कचरा बस फिर क्या था मैं उसका तालमेल साहित्य से बिठाने की जुगत में लग गया… गाड़ी पर अलग-अलग श्रेणी के तीन खंड वर्गीकृत थे इधर रचना की शब्द सीमा भी 3200 थी ;उसके हिसाब से गीला कचरा ,सूखा कचरा और ई कचरा… प्रत्येक के हिस्से में लगभग हजार हजार शब्द आ रहे थे . जो कोई श्रम साध्य नहीं लगा.. उस वाहन से रही अप्रिय महक भी मुझे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम लग रही थी… गीत संगीत के साथ विसर्जन स्थल तक पहुंचाना जो 10 , 15 साल पहले जो काल्पनिक सा था उस कूड़े के दिन फिरने के रूप में आजकल साकार होते देखना… महात्मा गांधी के चश्मे से इसका संदर्भ जुड़ना… अब हर किसी की दिनचर्या की शुरुआत का हिस्सा बन चुका है…

मन आत्मविश्वास से भर गया कि कोई न कोई नई चीज तो कचरे में से अवश्य निकलेगी ही… लगा कौन सी एचडी की थीसिस लिखनी है दो-तीन पेज मे निपटा देंगे… दिमाग की बत्ती जल उठी थी लगा कचरा सृजित बायोगैस प्लांट से सीधी ऊर्जा उसे मिल गई हो…. ` हम देख ही रहे हैं कि कचरा किस प्रकार जल थल नभ में सामुद्रिक गहराइयों से लेकर एवरेस्ट , अंतरिक्ष तक में यत्र तत्र सर्वत्र में उसकी दस्तक हो गई है| मुझे तो लग रहा है कि यह सिलसिला ब्रह्मांड में आकाशगंगा तक पहुंचने में अब देर नहीं| जिसकी महिमा का वर्णन ग्रंथों का आकार भी ले सकता है | लेकिन निश्चित शब्द सीमा के अनुसरण की मर्यादा की खातिर मुझे धरातल वापसी करनी पड़ी | अब समस्या थी कि किस प्रकार का गीला कचरा; सूखा कचरा ; ई कचरा आदि के भावार्थ का संदर्भ व्यंग्य लेखन जोड़ा जावे |

चलिए शुरुवात करते है आजकल मौलिक साहित्य लेखन है भी कहां , गीला कचरा अपना स्वरूप बदलकर आजकल तेजी से रीसायकल हो रहा है और इतनी चतुराई से रूपांतरित हो रहा है कि विभिन्न स्तरो पर प्रतिष्ठा सम्मान पाने वाली कृतियों के प्रति विश्वास ही नहीं होता कि यह गीले कचरे का रूपांतरण है …

अब बात करेंगे सूखे कचरे की तो पहले यह गली मोहल्ले कूचे में यहां वहां बेदर्दी से फेंक दिया जाता था लेकिन धन्य हो बापू के चश्मे से झांकते स्वच्छ भारत मिशन की जिसके कारण इसके दिन भी फिरे और इसे भी घर-घर से ससम्मान विशेष वाहन द्वारा गीत संगीत के साथ ससम्मान विसर्जन स्थल की ओर गंतव्य की ओर रवाना किया जाने लगा है

      कुछ एक वर्षों के बाद उसी के ऊंचे ऊंचे टीले  स्थानीय शासन के प्रयासों से हरी भरी घाटियों पर्वत श्रृंखलाओं सा आकार लेकर मनोरम छोटा बिखरने लगते हैं | साहित्य के आधुनिक दौर को भी हम देखें तो उसकी कई इमारतें की नीव  में हमें कचरे की भूमिका की अनुभूति होगी ही; लेकिन हम गहराइयों में क्यों जाएं जब नेत्र मस्तिष्क और  हृदय से आत्म संतुष्टि मिल रही है तो  बेवजह अपनी नाक नीची  कर सूंघने  की जरूरत ही नहीं |वैसे भी साहित्य अनुलोम विलोम नहीं बल्कि कपालभाती  का विषय है इसलिए जो दिखता है वह बिकता है की ध्येय वाक्य का अनुशीलन करें , पहले भी किसी ने लिखा है की खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से..सर्व विदित ही है कि साहित्य भी तो कागजो में ही बसता है . वैसे भी सूखा कचरा गंधहीन तो है ही..... यही सब विचार मंथन चल रहा था की श्रीमती जी ने  फिर आवाज लगाई..... यह तुम्हारे पुराने कंप्यूटर की बैटरी चिप्स मदरबोर्ड टूटे-फूटे बैटरी मोबाइल यह सब पड़े हुए हैं.... कल भूल गए थे अब ध्यान से जब कल कचरा गाड़ी आए तो उसमें एक अलग से ई कचरे का डिब्बा है उसमें पटक देना..... हो सके तो उसमें मेमोरी डिवाइस या कार्ड में बड़े-बड़े ज्ञानी पंडित कवि साहित्यकार आदि के  लेख काव्य संग्रह  विकिपीडिया आदि से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर का डाटा अपने नाम से प्रकाशन के लिए इकट्ठा किया है उसे किसी दूसरी डिवाइस में जरूर ट्रांसफर करवा लेना | इस शर्मनाक वाक्य से मुझे लगा कि ई कचरा का नाम आजकल सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है जबकि 15   ,  20 साल पहले इसका नामो निशा भी नहीं था |

पत्नी के वाक्य से ….अपने आलेख से जो ज्ञात श्रोतो से प्राप्त ज्ञान राशि से मैंने लिपि मय महल बनाया था उस बुलडोजर चल रहा हो ऐसा लग रहा था…. उधर उनका टीवी के चैनल बदल बदल कर देखना बदस्तूर जारी था….. मैं भी टीवी स्क्रीन पर नजर डालता गया और इधर कलम संवैधानिक भाषा की पटरी से बार-बार … मैं टीवी पर अधूरा ही डायलॉग सुनते जा रहा था वह किसी आशावादी चैनल की तलाश में जल्दी-जल्दी रिमोट चला रही थी …. गीत संगीत… समाचार राजनैतिक चीख पुकार वाली बहस उन मिली जुली आवाजों की पैरोडी…. कुछ ऐसे बनती जा रही थी…. कचरा मोहब्बत वाला… राम नाम की लूट… कुर्सी जाएगी छूट…. जनादेश सर्वोपरि… बंपर जीत… धार्मिक अफीम … 800 सौ साल की गुलामी …कारण .निवारण.. स्वाधीनता संग्राम में किसकी भागीदारी नहीं रही …. गांधीवाद…. 70 साल… दोहन कैसे हुआ … जाति ….धर्म.. परिवारवाद..वाशिंग मशीन … बेरोजगारी ..नया भारत ..कालाधन … नारी सम्मान…. सांप्रदायिक जहर… अमृत महोत्सव… तुष्टिकरण… ध्रुवीकरण..अगला चुनाव . हैप्पीनेस इंडेक्स… भ्रष्टाचार इंडेक्स… विश्व गुरु… दुनिया की चौथी बड़ी इकोनॉमी…इतने में घर और दिमाग की पावर सप्पलाई अवरोधित हो गई और निष्कर्ष ये रहा कि कचरा अविनाशी है , वह आत्मा की तरह एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता जाता है , मनुष्य के पंचतत्व में विलीन होने के बाद भी इसका यथा शब्दार्थ वही होता है जिसका संज्ञान जीवन अंकुरण से लिया जाता है | जहां जीवन है वहां कचरा है प्राणी नहीं होंगे वहां वहां कचरा भी नहीं होगा इस प्रकार यह सृष्टि की गतिशीलता का संवाहक है |

शब्द और धैर्य की प्रत्यास्थता सीमा (elastic limit) भी पूरी हो गई लग रहा था | मै भी जान गया था कि कचरा अविनाशी है ,वो कभी मरता नहीं है , वह आत्मा की तरह एक प्रकार के रूप स्वरुप से दूसरे में परिवर्तित होते जाता है, मनुष्य के पंचतत्व में विलीन होने के बाद भी इसका यथा शब्दार्थ वही होता है जिसका संज्ञान जीवन अंकुरण से लिया जाता है | जहां जीवन है वहां कचरा है प्राणी नहीं होंगे वहां वहां कचरा भी नहीं होगा इस प्रकार यह सृष्टि की गतिशीलता का संवाहक है |वर्तमान में रचनाधर्मिता की नियति भी इसी प्रकार की आवृतियों का पर्याय बंटी जा रही है |शेष अर्थ अनर्थ विश्लेषण आस्था अथवा भौतिक सत्यापन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से आप कर ही लेंगे |

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