मुहब्बत का गुलकंद-राजभाषा हिंदी का सम्मान २०२२ का पुस्कृत व्यंग्य
दरवाजे पर दस्तक से अशफाक मियां की नींद खुल गई। दस्तक भी ऐसी कि मानो भूकंप या सुनामी आ गई हो। धरती बस खत्म होने ही वाली हो। दस्तक देने वाले का इतने से भी जी नही भरा तो वह दरवाजे पर लगी डोरबेल पर जुट गए। अशफाक मियां गिरते – पड़ते दरवाजे की ओर भागे।भागे इसलिए कि उन्हें सुबह – सुबह किसी बड़ी घटना के होने का अंदेशा नही था बल्कि वह अपने दरवाजे और डोरबेल को उन बेरहम हाथों से बचाना चाहते थे।
दरवाजा खोलते ही वह बुरी तरह से चौंक गए, सामने जुम्मन मियां लुटे-पिटे से खड़े थे। जुम्मन मियां अशफाक के हम उम्र और रिश्ते में हमारे चचा लगते थे। धूल से सने बाल, नुचे हुए पायजामे के पायेंचे, कुर्ते के नाम पर सिर्फ कोहनी पर अटकी आस्तीने जो इस दुनिया में अपने होने का सबूत दे रही थी और बाकी का हिस्सा गुमशुदा की तलाश में किसी गली में धूल-धूसरित इस नाशवान संसार में अपने वजूद को ढूंढ रही थी। एक जोड़ी आँखों में बाईं आँख के नीचे अमावस की स्याह रात थी तो दाहिनी आँख डग्गामार गाड़ी की तरह डिपर दे रही थी। हम जानते थे जुम्मन मियाँ देशभक्त टाइप शख्स थे पर बिना बॉर्डर पर गए… बिना कोई युद्ध लड़े वो शहीद होते-होते बचे थे।
हमारा ब्लड ग्रुप भले ही निगेटिव है, वैसे हम आदमी बहुते पॉजिटिव स्वभाव के हैं। चचा के मुँह पर हवाइयाँ उड़ रही थी और दिल सुपर फास्ट ट्रेन की धड़क रहा था, जान फेफड़ों कि सीमा-रेखा पार कर हलक में अटकी हुई थी।जुम्मन मिया हमें देख बुक्का मारकर रो पड़े। उनकी आँखों से कम नाक से सुनामी ज्यादा बह रही थी। हमें देखकर उनके कंठ से डोल्बी साउंड सुनाई देने लगा। हमने अपना कंधा उनकी ओर बढ़ा दिया और उन्होंने उसे टिश्यू पेपर समझकर अपनी नाक से बहते सुनामी को समेट लिया। उनका शरीर बुरी तरह कांप रहा था मानो भूकंप का केंद्र बिंदु उनका नाशवान् शरीर ही था, वैसे तो हम कभी झूठ नहीं बोलते पर जिस हिसाब से उनका शरीर वाइब्रेट कर रहा था, रिक्टर स्केल भी अपनी सीमा – रेखा पार कर अंतरिक्ष में गोते लगाने लगता।
उनके हालात कुछ ऐसे थे कि अगले दिन के अखबारों के पहले पन्ने की फ्रंट लाइन न्यूज बन सकते थे पर हम रहे दिलदार आदमी ये बात अलग है कि हमने इस बात का कभी घमंड नहीं किया। उन्हें आगोश में समेट कर अपने दीवानखाने तक ले आए। चचा न जाने क्यों डेढ़ टांग से चल रहे थे। वो हमारी खानदानी कुर्सी को टेक लगाकर खड़े हो गए। हमारी खानदानी कुर्सी कभी इस घर की शान थी पर फिलहाल वो चचा की तरह ही डेढ़ टांग के सहारे जी रही थी, चौथी टांग बेवफा सनम की तरह कब का दामन छुड़ाकर जाड़े की तेज ठंड में अंगीठी के मुँह में स्वाहा हो चुकी थी। फिलहाल तो ईंटों की जोड़-तोड़ से ईंट और पाये का गठबंधन हो गया था।
चचा बुरी तरह हाँफ रहे थे, हमने आव देखा न ताव जग भर पानी उनकी खिदमत में पेश कर दिया। जग भर इसलिए क्योंकि उनके हालात ऐसे थे जिसे देखकर तो यही लगता था एक गिलास पानी में उनका तो कुछ भी नहीं होगा। हाल तो उनके वैसे भी ठीक नही लग रहे पर हमे उनकी चाल भी बिगड़ी लग रही थी आखिर हमने उनसे पूछ ही लिया।
“चचा हुआ क्या है?कुछ तो बताओं?”
वह बुक्का मारकर रो पड़े,हमने अपने हाथों का बोझ सांत्वना के स्वर में उनके कंधों पर धकेल दिया। उन्होंने डग्गामार गाड़ी की तरह हिचकोलें खाती अपनी आवाज को संभालते हुए कहा
“क्या बताए मियाँ तुम्हारी चची…”
“चची!पर उनको तो गुजरे दस साल हो गए हैं।”
हमारा दिल हमारे शरीर का साथ छोड़ते-छोड़ते बचा।चचा की आँख में 440 वोल्ट के लट्टू जल गए
और गाल…गाल सुर्ख गुलाब हो गए।चचा ने अपने जज्बातों पर ब्रेक लगाते हुए अपनी आवाज को चाशनी में डुबोकर कहा,
” वो नुक्कड़ पर चाय की टपरी वाली सकीना बानो है न…”
“वो$$$$$…”
“हमे उनसे इश्क़ हो गया है।”
“फिर से…?”
फिर से इसलिए क्योंकि जनाब का ये पहला और आख़िरी इश्क नही था। इश्क की गली में वह दिन – दुपहरिया, सांझ – रात हमेशा मॉर्निंग वॉक पर निकल जाते।चची का जियोग्राफिया हमारी आँख के सामने था। खुदा कसम अगर अमावस की रात में कोई उन्हें देख ले तो पक्का जान भी दुम दबाकर भाग ले पर ये लफ्ज़ हमारे हलक तक आते-आते रुक गए।चचा सर से पाँव तक सकीना के इश्क़ में डूबे हुए थे।
“चचा निकाह भी कर लिया और हमें सेवइयां तो छोड़ो गुलकंद भी न खिलाया।”
चचा की आँखें डबडबा गई,
“मियाँ गुलकन्द का नाम न लो।”
जुम्मन मियाँ की आवाज़ में एक ख़लिश थी।
“क्या हुआ चचा कुछ गलत कह दिया क्या…?”
हमने अपनी आवाज़ में मिश्री घोलते हुए कहा
“मियाँ चाँद-सितारें तोड़ने की अब हमारी उम्र तो रही नहीं…तुम्हारी चची मेरा मतलब होने वाली ने तोहफ़े में लाल सुर्ख गुलाब माँग लिए…उन्हें गुलकंद बनाना था।”
चचा के पोपले मुँह पर शर्म की लाली छा गई।
“तो…”
हम अब तक हत्थे से उखड़ चुके थे।
“हम गुलाब खरीदने बाजार गए थे पर वो छोटू पूरा डकैत है।मरियल से ग़ुलाब का पन्द्रह रुपए मांग रहा था। हम सोचे अपने मुहल्ले के कर्नल साहब के बगीचे में बड़े खूबसूरत गुलाब लगे हैं।घर की बात है हमारा उनका कुछ बांटा हुआ थोड़ी है।बस चुपचाप जाएंगे और…”
“और?”
हमारी आँखों का डायमीटर अचानक से बढ़ गया पर डिक्लेयर आशिक़ की आँखें न जाने किस मंजर को सोच भर आईं।
“कर्नल साहब की बेगम को शायद कोई गलतफहमी हो गई।वे हमें चोर समझ बैठी,उन्होंने कुर्ते-पायजामे में लिपटे हमारे जिस्म पर तनिक भी तरस न खाया और अपने निशाचर टाइप कुत्ते सॉफ्टी को हमारे ऊपर छोड़ दिया।”
कर्नल साहब की मोहतरमा का सॉफ्टी अपने हार्ड दाँतों की मजबूती चेक करने के चक्कर में उनके पिछवाड़े पर पुच्ची दे गया था और प्रेम की निशानी के तौर पर अपने नुकीले दाँतो के निशान उन पर छोड़ गया था।जुम्मन मियाँ भी कम दिलदार आदमी नहीं थे,बदले में गोश्त का एक बड़ा टुकड़ा रिटर्न गिफ्ट के तौर पर उनके जबड़े में छोड़ आए थे।शायद इसी वजह से वह दीवानखाने में अपनी तशरीफ़ लेकर तो आये पर अपनी तशरीफ़ को ठीक से रख नहीं पा रहे थे।
डिक्लेयर आशिक़ हमारे चचा हमारे कंधे का सहारा लिए गला फाड़ कर रो रहे थे और हम…हम उस गुलकंद के सपने में डूबे हुए थे जो बनते-बनते रह गया।
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डॉ. रंजना जायसवाल
मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
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