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हिंदी : पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक

डॉ साकेत सहाय
मुख्य प्रबन्धक (राजभाषा)
पंजाब नैशनल बैंक
(लेखक –भाषा, संचार एवं संस्कृति विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं तथा उत्कृष्ट लेखन हेतु भारत सरकार से सम्मानित हिंदी सेवी है। ) 
संपर्क : [email protected]

बीते 15-17 फरवरी, 2023 को फिजी में संपन्न १२वें विश्व हिंदी सम्मेलन का केंद्रीय विषय है-‘’हिंदी : पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक’’।  यह विषय बड़ा ही प्रासंगिक है।  इस विषय पर  विचार करें तो पायेंगे कि हिंदी भाषा  को पारंपरिक प्रयोजनों से अधिक आधुनिक प्रयोजनों के लिए तैयार करना ही भाषिक आधुनिकीकरण है और इस प्रकार के सम्मेलनों का उद्देश्य भी यही होता है।   दरअसल,भाषा का प्रयोजन विस्तार यथार्थ से जुड़ा हुआ है और कोई भी राष्ट्र, समाज एक निश्चित योजना के तहत ही विविध आवश्यक प्रयोगों या प्रयुक्तियों के माध्यम से यह विस्तार करती है|  यही इस सम्मेलन की सार्थकता भी है।  

भाषा की सार्थकता भी तभी है, जब वह लोक के व्यापक हितों की पूर्ति करे। प्रौद्योगिकी के प्लेटफार्म पर आरूढ़ भाषा केवल प्रबुद्ध वर्ग का ही भला नहीं करती, अपितु जन-साधारण के भी काफी काम आती है।  हिंदी ने अब तकनीक के साथ कंधे से कंधा मिलाने की सामर्थ्य विकसित कर ली है और इसके नित नए-नए अनुप्रयोग भी देखने को मिल रहे हैं।  परंतु बहुत कार्य बाक़ी है जिसे व्यवस्था और समाज दोनों को मिलकर करना है। 

आज हिंदी बाजार और प्रौद्योगिकी के साथ अपने को सशक्त करते हुए कृत्रिम मेधा की भाषा बनने की ओर अग्रसर है। हिंदी विविध प्रयुक्तियों में यथा, समाचार पत्रों की, बाजार की, अर्थ की, खेल, सिनेमा आदि विभिन्न प्रयुक्तियों में व्यवहार की प्रमुख भाषा बनाकर उभरी है। कहा गया है जो भाषा तकनीक की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप खुद को ढ़ालती रहती है, वह हमेशा प्रासंगिक और जीवंत बनी रहती है।  हिंदी इस मंत्र में दृढ़ विश्वास करती है| 

 कृत्रिम मेधा ने यह सम्भव कर दिखाया है कि कोई एक भाषा जानने पर भी आप सब भाषा-भाषियों के बीच संवाद, कारोबार कर सकते हैं। इसमें यह उल्लेखनीय है कि हिंदी प्रयोक्ताओं की संख्या ही आज इस भाषा की सबसे बड़ी शक्ति है, जो अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में हिंदी को हमेशा केंद्रीय भूमिका में रखेगी। जब मानवीय समझ की बराबरी की बात आती है तो भाषा की महत्ता का प्रश्न तो उठता ही है।  भारत के संदर्भ में एआई की सफलता काफी हद तक कृत्रिम मेधा और हिंदी के धनात्मक सम्बन्धों पर टिका हुआ है और इस धनात्मक सम्बंध से काफी लाभ होंगे।   

प्रौद्योगिकी का नया दौर कृत्रिम मेधा का ही है। आज वित्त, बैंकिंग, वाणिज्य, कारोबार, शिक्षा, खेलकूद,मनोरंजन, स्वास्थ्य, परिवहन, सोशल मीडिया जैसा कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ कृत्रिम मेधा का इस्तेमाल न हो रहा हो।  सर्वियन ग्लोबल सॉल्यूशन के अनुसार वर्ष 2025 के अंत तक ग्राहकों के साथ 95% वार्तालाप कृत्रिम मेधा से संचालित होंगे। स्टैटिस्टा(Statista) के अनुसार, दुनिया भर में कृत्रिम मेधा(एआई) सॉफ्टवेयर बाजार प्रतिवर्ष 54% की दर से बढ़ रहा है और वर्ष 2025 तक इससे प्राप्त होने वाले राजस्व का आँकड़ा 126 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। 

कृत्रिम मेधा के सहयोग से नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेस(प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण)के माध्यम से वार्तालाप को यथासंभव मानवीय और आत्मीय बनाने के उद्देश्य से किया जाता है ताकि ग्राहक को मशीन के साथ संवाद में वास्तविक जुड़ाव का अनुभव हो। भारत में कृत्रिम मेधा से संचालित जनोन्मुखी प्रणालियों के लिए हिंदी व भारतीय भाषाएँ सबसे उपयुक्त विकल्प सिद्ध हो सकती है। गूगल, फेसबुक, ई-कामर्स वेबसाइट की कृत्रिम मेधा हमारी पूर्व की गतिविधियों के आधार पर हमारी पसंद या नापसंद का सहज अनुमान लगा लेती है| कृत्रिम मेधा पूर्व के अनुभवों, व्यवहार, विश्लेषण और पैटर्न की पहचान के द्वारा एक विशिष्ट अल्गोरिद्म पर कार्य करती है, अतएव, वेब पर हिंदी का जितना अधिक कंटेट होगा,कृत्रिम मेधा के साथ हिंदी उतनी ही प्रभावी तरीके से कार्य करेगी। भारत में कृत्रिम मेधा का भविष्य सूचना, ज्ञान और आंकड़ों पर आधारित है और इन सब के उपयोग में हिन्दी की भूमिका सिद्ध है| 

हिंदी अपने भाषायी गुण, व्याकरणिक गुण, संस्कृत से निकटता, देवनागरी लिपि इत्यादि की वजह से एक संपन्न भाषा है।  ये सभी गुण इसे कृत्रिम मेधा प्रौद्योगिकी की भाषा के रुप में सिद्ध करते है। यह देखा गया है कि बीते वर्षों में हिंदी का भाषायी प्रयोग जनसंचार और व्यवसायपरक प्रशिक्षण के रूप में ज्यादा हो रहा है।  इससे प्रौद्योगिकी की अपेक्षाओं के अनुरुप हिंदी भाषा का प्रयोजनमूलक स्वरुप ज्यादा उभर कर आ रहा है, जिससे हिंदी भाषा का विकास,व्यवहार और शिक्षण-प्रशिक्षण अनिवार्य हो गया है।  कंवर्जेंस के बहुलप्रयोग से भी हिंदी का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। संचार माध्यमों के क्षेत्र में हिंदी भाषा की प्रौद्योगिकी विशेषता संस्थापित हो चुकी है।  सूचना प्रौद्योगिकी के विकसित होने से हिंदी भी समान रुप से विकसित हो रही है।  

यह कहा जा सकता है कि हिंदी प्रौद्योगिकी की नित नई भाषाई माँगों को पूरा कर रही है।  कहा गया है है ‘सही चिन्तन की भाषा सदा अपनी ही होती है। दूसरों की समृद्धि से समृद्ध भाषा को व्यवहार में लाकर उसे मौलिक तथा स्वतंत्र चिन्तन की भाषा के रूप में कतई प्रयोग नहीं किया जा सकता।  उधार की भाषा मौलिक चिन्तन और आविष्कार की स्वतंत्रता पर अंकुश ही लगाती है और धीरे-धीरे अपना पालतू बना लेती है। फलत: हम घिसी-पिटी लकीरों पर चलते रहते है। ‘  मनुष्य के विकास एवं समृद्धि में विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है।  

आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे देश के गिने-चुने वैज्ञानिकों, विद्वतजनों को ही नोबल पुरस्कार मिल पाया है तो इसके पीछे यह भी एक बड़ा कारण है कि विदेशी भाषा के अध्यापन से हमारी सोच में नयापन नहीं रह पाता।  अब प्रौद्योगिकी की विशिष्ट तकनीक क्रुत्रिम मेधा और हिंदी व भारतीय भाषाओं के बीच संबंध स्थापित करना भाषिक प्रगति के लिए आवश्यक है।   समय की मांग है कि सरकार, समाज मिलकर पुरातन ग्रंथों, श्रुतियों में निहित ज्ञान-विज्ञान और लोकविद्याओं को संरक्षित करें। यह काम जनभाषा ‘हिंदी’ में सहजता से किया जा सकता है। कृत्रिम मेधा के द्वारा इस ज्ञान को हिंदी में संजोकर न केवल हम उसे पुनर्स्थापित कर सकते हैं, अपितु बहुउद्देशीय भी बना सकते हैं। 

स्वामी विवेकानंद कहते हैं ‘’एक राष्ट्र उसी अनुपात में विकास करता है जिस अनुपात में वहाँ की जनता शिक्षित होती है|’’ स्वामी जी का यह कथन किसी भी देश या समाज के लिए शिक्षा की अहम् भूमिका को सार्थक करता है।   भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ शिक्षा के इन तीनों मूल तत्त्वों को भी महत्व दिया गया है।  इसमें भाषा और प्रौद्योगिकी की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित है। कृत्रिम मेधा का एक सिरा लगातार भाषा के साथ जुड़ा होता है, क्योंकि बिना भाषा के ज्ञान के अभिव्यक्ति की क्षमता प्रभावित होती है। इसमें संसार भर की सूचनाओं को कृत्रिम मस्तिष्क में निवेशित करने और समय पर उसको व्यवहार में लाने के लिए एक भाषा की आवश्यकता होगी। आज समाज के हर वर्ग तथा हर आयु के लोग कृत्रिम मेधा के विभिन्न पक्षों के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं। यहीं पर हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की सबसे अधिक आवश्यकता है| 

अंत में, किसान, जवान सभी की बेहतरी के लिए एआई उपयोगी हो सकता है और जनभाषा इसमें सबसे अधिक सहायक हो सकता है। परंतु इन सभी के बीच सबसे अधिक विचारणीय यह है कि कृत्रिम मेधा के विकास में अधिक से अधिक डिजिटल आँकड़ों की आवश्यकता पड़ेंगी, जिसमें भाषाई आंकड़ें भी शामिल है।  कृत्रिम मेधा व ज्ञान के अन्य क्षेत्र में भी हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषओं में तकनीकी सामग्री बहुत सीमित है। कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में भी बेहतर प्रगति के लिए यह जरुरी है कि भाषिक सहजता के लिए सभी के लिए  उपयुक्त हिंदी को समतुल्य बनाने की दिशा में कार्य हो।  इस क्षेत्र में जर्नल्स, पुस्तकें तथा लेखों के साथ ही अखबारों में भी कृत्रिम मेधा के सम्बन्ध में नियमित स्तम्भ देना होगा। आम तौर पर मीडिया चैनल एवं अखबारों में प्रौद्योगिकी संबंधी लेखों, सूचनाओं का नितान्त अभाव रहता है।  कृत्रिम मेधा की भाषा बनने में हिंदी व भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित समस्याओं को दूर करने हेतु सामूहिक प्रयास करना होगा। 

हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति बढ़ती रहे, इसके लिए देश में आर्थिक, वैज्ञानिक, सामरिक, राजनीतिक और ज्ञान के स्तर पर जितना अधिक सशक्त कार्य होगा, विश्व फलक पर हिंदी का परचम उतनी ही तेजी से लहराएगा और इस परचम में समय के साथ कृत्रिम मेधा एवं हिंदी के जुडाव से हिंदी शिक्षा, चिकित्सा,सुरक्षा, मौसम विज्ञान और प्रशासन में और अधिक गतिमान होगी| कृत्रिम मेधा के बारे में स्टीफन हाकिंग ने कहा था ‘जिन्न बोतल से बाहर आ चुका है|  इनकी टिप्पणी से  स्पष्ट है कि कृत्रिम मेधा के भावी अनुप्रयोग में ज्ञान, संस्कार, प्रेम, नैतिकता के विशिष्ट स्थान को समझने की आवश्यकता है|  यहाँ भी भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका है।  राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कृत्रिम मेधा के साथ भाषा-प्रौद्योगिकी के विकास की बात की गई है और इस आधार पर देश की शिक्षा में गुणात्मक बदलाव की उम्मीद भी है।  आइए, कृत्रिम मेधा के इस युग में हिंदी के उज्ज्वल भविष्य के बीच हम इसके प्रति संवेदनशील बने और खुद को इसकी प्रगति में भागीदार बनाएं।  आशा है, १२वें विश्व हिंदी सम्मेलन से निकले निष्कर्षों से कृत्रिम मेधा और हिंदी के सहज संबंधों द्वारा देश व समाज के सशक्त पथ का निर्माण होगा। 

डा. साकेत सहाय
@saketsahay

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