कविताएं और कहानियां

सुख का अधिकार

‘चटाक’ … की जोरदार आवाज के साथ शीतल को ऐसा लगा जैसे उसके कानों पर किसी ने घंटा बजा दिया हो | कुछ देर तक कान सुन्न ही रहे | पति मोहित के बड़बड़ाने की आवाजें तो आ रही थी पर सारे शब्द मानो उसके सर के ऊपर से गुजर रहे थे | इसी उधेड़बुन में सीधे बाथरूम में चली गई और सफ़ेद रंग की उस शीशी को हाथ में उठा लिया जो उस गुसलखाने को जीवाणुमुक्त करने के काम आती थी | अपनी जीवन लीला समाप्त कर आत्मा को उस खुबसूरत शरीर से मुक्त ही करना चाहती थी कि 8 वर्षीय बेटे की आवाज आई “माँ आओ न मुझे आपके बिना नींद नहीं आ रही |” शायद पति -पत्नी के झगड़े और मोहित की ऊँची आवाज से उसकी नींद खुल गई थी | उस शीशी पर उसके हाथ की पकड़ ढीली हो गई | शीशी को वहीँ रख किसी तरह खुद को संभालती हुई वापस अपने बेटे के पास बिस्तर पर आ गई |

आज से 9 वर्ष पूर्व वह व्याह कर इस घर में आई थी शुरुआत में मोहित के रोमांस को वह प्यार समझती रही और नवजीवन के सपनों में खो गई | पर जैसे – जैसे दिन बीतते गए उसे मोहित के रोमांस में जबरदस्ती का एहसास होने लगा | मोहित की यह जबरदस्ती तब और बढ़ जाती जब वह किसी बाहरी व्यक्ति से बात करती, यहाँ तक की अपनी सहेलियों के साथ हँसते-बोलते देख लेने पर भी मोहित की उस पर शंका बढ़ जाती | शीतल इतनी खूबसूरत थी कि मानो भगवान ने उसे फुरसत से बनाया हो | पर उसकी यही खूबसूरती उसके वैवाहिक जीवन के लिए अभिशाप बन गई थी | मोहित इतना अधिक शंकालु था कि शीतल यदि ताज़ी  हवा खाने के लिए भी खिड़की खोलती तो उसके अत्याचार और भी बढ़ जाते |

      किसी तरह उसने आँखों में रात गुजार दी सुबह होते ही उसे अपना सामान पैक किया और मोहित से बिन कुछ कहे ही अपनी माँ के पास मनेन्द्रगढ़ पहुँच गई | दरवाजे पर ही माँ ने चौंक कर कहा – “अरे तू अचानक कैसे?”  

शीतल का सब्र का बांध टूट पड़ा | माँ से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी | शीतल को ऐसे दहाड़ें मार कर रोते देख मुन्नू सहम गया | परिस्थिति देख कर शीतल के छोटे भाई रोहन ने मुन्नू को पुचकारा और अपने साथ लेकर चला  गया |  शीतल भरे गले से माँ से बोली-

      “माँ अब और नहीं सहा जाता | मोहित की मारपीट, जबरदस्ती और शंकालु स्वभाव को मैं और नहीं सह सकती | यदि तुम इस बार फिर मोहित की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर मुझे वापस भेजोगी तो मेरा मरा मुँह देखोगी |” 

और फिर माँ और रोहन की सहमति से मोहित को तलाक का नोटिस भेज दिया | बहुत रोई उस दिन | बड़ी मसक्कत के बाद तलाक मिल जाने पर शीतल ने मानो अपने जीवन के काले अध्याय को समाप्त कर दिया था | पर उस काले अध्याय की काली छाया उसका पीछा न छोडती थी | जिस प्यार और अपनापन की तलाश में वैवाहिक जीवन की शुरूआत की थी वह  उसे कभी मिल ही नहीं सका |

भोर का समय था | प्रकृति बड़ी सुहानी लग रही थी | शीतल खिड़की से दो चिड़ियों की आपसी चुहल देख रही थी | उनकी चहचहाहट में अलग ही प्रेम रस घुला हुआ था | तभी माँ की आवाज आई  –

‘’रोहन अशोक को आज खाने पर बुला ले मीनाक्षी अपने मायके गई है न | वह अकेला है |”

“जी माँ “ – रोहन बोला|  

‘अशोक’ नाम सुनते ही शीतल को नाम पहचाना सा लगा | मस्तिष्क पर जोर डाला जैसे अचानक कई स्मृतियाँ मूर्त रूप में उसके सामने नाचने लगीं | कक्षा ग्यारहवीं  में एक नए विद्यार्थी ने प्रवेश लिया था, नाम था अशोक | पहले ही दिन शीतल के ठीक पीछे की बेंच पर बैठा था | टीचर ने कक्षा में उसका परिचय देते हुए शीतल से कहा – “शीतल, अशोक की थोड़ी मदद कर देना , ताकि वह अब तक का अपना काम पूरा कर सके |”

शीतल अशोक की मदद करती और अशोक उसका विशेष ध्यान रखता | ऐसे ही एक दूसरे के साथ दो वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला | कक्षा बारहवीं का आखिरी पेपर था अशोक उसे ‘बाय’ बोलने आया –

       “शीतल मेरे पिताजी का ट्रांसफर हो गया है हम आज ही निकल रहे हैं |”

 दो वर्ष दोनों ने अन्य सहपाठियों की तरह ही बिताए थे और आज जब पर जा रहा था तो ऐसा एहसास हो रहा था जैसे कोई उसकी आत्मा और शरीर को विलग कर रहा हो | उधर अशोक की आँखों में अलग तरह की मायूसी थी | दरवाजे की घंटी की आवाज में जैसे शीतल की तंद्रा भंग कर दी|

“ शीतल दरवाजा खोल दे शायद अशोक ही होगा |” –  माँ ने रसोई से आवाज देते हुए कहा | शीतल ने जैसे ही दरवाजा खोला तो ठिठक कर रह गई शीतल को देखते ही अशोक भी जड़वत हो गया | आश्चर्य मिश्रित फुसफुसाहट के साथ मुख से केवल ‘शीतल……’ कहकर रुक गया | अशोक के चेहरे पर पैंतीस की प्रौढ़ता झलक रही थी | बारीक दाढ़ी में भी शीतल को उसे पहचानते देर न लगी कि यह तो वही अशोक है | देर लगती देख माँ आ गई और बोली “अरे दरवाजे पर खड़े रहोगे या अंदर भी आओगे|”  

      “अशोक यह मेरी बड़ी बेटी शीतल है और शीतल यह अशोक है सिविल इंजीनियर है पिछले कुछ दिनों पहले ही पड़ोस में रहने आया है बड़ा भला है, मेरे लिए बिलकुल बेटे जैसा है|”  माँ ने अशोक की शीतल से पहचान करवाते हुए कहा |

      अशोक और शीतल ने औपचारिक रूप से ‘हलो’ कहा और खाने की मेज पर बैठ गए | अशोक ने  शीतल के माथे पर पड़ी कष्टों की लकीरों को जैसे पहचान लिया था | एकांत पाते ही शीतल के हाथ पर हाथ रखकर अशोक ने अनायास ही पूछ लिया – “क्या हुआ शीतल दुखी लग रही हो मुझे अपने मन की बात नहीं बताओगी|”

      अशोक के ठन्डे हाथों का स्पर्श शीतल के लिए वैसा ही था जैसे उसके संतप्त ह्रदय पर किसी ने गुलाब जल का शीतल फाहा रख दिया हो और उस फाहे के संसर्ग ने ह्रदय के भावों को झिझोड़  दिया और वह फफक कर रो पड़ी | जिस प्रकार मिट्टी में व्याप्त सुगंध जल के संसर्ग में आकर पूरे वातावरण को महका देती है वैसे ही अशोक का साथ और उसके वचनों ने शीतल के अंतर्मन में सुसुप्त भावनाओं को उभार दिया | समय की गति ने फेरा लिया और दोनों को ही नई आशाओं से भर दिया | अशोक के प्यार और अपनेपन को पाकर शीतल मानो हवा में उड़ रही थी | समय के साथ साथ दोनों की नजदीकियाँ भी बढती जा रहीं थीं | लोक-लाज-समाज उसे किसी बात का ख्याल ही नहीं था |

      सदा संस्कारों और आदर्शों की राह पर चलकर भी  शीतल कभी सुख न पा सकी थी | आज अपने सुख के लिए वह स्वार्थी हो रही थी | जीवन में जिस निस्वार्थ प्रेम, अपनेपन और सुख की चाह उसने की थी वह अशोक के साथ रहकर ही पूरी हो सकती थी | कई बार उसने स्वयं को धिक्कारा भी पर अंत में उसकी स्वार्थी वृत्ति ने उस पर विजय पा ली थी | भगवान के सामने खड़े होकर उसने कहा- “ हे प्रभु, मुझे माफ़ कर देना पर सुख से जीने का अधिकार तो मुझे भी है |” 

      अशोक के करीब जाते हुए धड़कते दिल से उसने कहा –“अशोक मैं तुम्हारी हो जाना चाहती हूँ |” तभी अचानक मीनाक्षी की आहट पाकर अशोक दूर हट गया | अशोक के चेहरे से अपराध बोध झलक रहा था |

      अशोक की पत्नी मीनाक्षी ने अशोक से अपने हिस्से के सुख की कोई माँग ही नहीं की थी वह तो जैसे देवी थी | शीतल से बोली – “ अशोक को मैंने सदा देवता ही माना और मानती रहूँगी | पर तुम्हें माफ़ न कर सकूँगी |”

शीतल ने  अपना तर्क देते हुए कहा – “पर तुम्हें दुःख देने में तो हम दोनों का बराबर हिस्सा होना चाहिए न मीनाक्षी |”

व्यथित ह्रदय से मीनाक्षी बोली- “नहीं, अशोक को मैंने सदा एकतरफा प्यार ही किया है | उसने मेरी भावनाओं का सम्मान कर मुझे स्वीकारा था | पर उनके ह्रदय पर तो तुम सदा से विराजमान थीं | अशोक ने मुझे कभी धोखे में नहीं रखा | हमारे मिलन के पहले ही दिन अपने दिल का हाल खोल दिया था |  पर तुम तो एक स्त्री हो | एक स्त्री होकर भी दूसरी स्त्री के अधिकारों का हनन किया है तुमने | प्यार जबरदस्ती की नहीं त्याग की वस्तु है | जिस सुख पर केवल मेरा अधिकार है उसे भी मैं जबरदस्ती नहीं पाना चाहती | मैं जा रही हूँ तुम दोनों सुख से रहो |”

डॉ. कमोद जैन
दिल्ली पब्लिक स्कूल, बिलासपुर

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