कविताएं और कहानियां

वसीयत

मंतू शर्मा, वरीय शाखा प्रबन्धक, शाखा चाँदचौरा, गया
शाखा प्रबंधक, पंजाब नेशनल बैंक, बोधगया शाखा

मनोहर जब भी  गाँव जाता खान चाचा की याद आ ही जाती । गाँव से करीब एक किलोमीटर पहले सड़क के किनारे अपने घर के दरवाजे पर चाचा बैठे रहते । गाँव आते – जाते मुलाक़ात हो जाती ।  चाचा गाड़ी के सायरन की आवाज पहचान लेते । वो गाड़ी रोक देता । दुआ-सलाम होता । चाचा घर-परिवार, बाल-बच्चो का हाल-चाल पूछते । उनका पोता सुल्तान दोड़कर गाड़ी के पास आता । मनोहर खिड़की से बाहर हाथ निकालकर चाचा के लिए बीड़ी, माचिस, खैनी, और सुल्तान के लिए पेड़ा बढ़ा देता । लौटते वक्त खान चाचा कभी सारसो का साग, कभी जामुन, तो कभी बेर देते और फिर कब आओगे ? जैसा सवाल पूछकर मनोहर को भावुक कर देते ।

          मनोहर के पिताजी और शकील खान मे दांत-काटी रोटी का संबंध था । उनकी गोद मे खेला हुआ मनोहर प्यार से उन्हे खान चाचा कहता था । दोनों का परिवार कृषि आधारित था । कृषिगत संबंध, पारिवारिक संबंध मे बदल चुका था । दरवाजे पर दोनों घंटो बैठे रहते । दोनों की दोस्ती की खूब चर्चा थी । चाय के शौकीन दोनों खूब ठहाके लगाते । मनोहर के पिताजी दो साल पहले स्वर्गवास कर चुके थे । अपने साथी के श्राद्ध-कर्म  के दिन खान चाचा काफी उदास थे । सुबह से आए हुये थे, पर कुछ खाये नहीं । ब्राहाण-भोज के उपरांत उन्होने घर पहुंचा देने की इच्छा जताई । मनोहर का छोटा भाई गाड़ी से उनको घर तक छोड़ आया । दुनिया का हर प्राणी प्रेम का भूखा होता है । प्रेम कभी भी किसी जाति धर्म, ऊंच-नीच के दायरे मे बंधना पसंद नहीं करता । मनोहर का लगाव खान चाचा से यूं ही नहीं था । जब से होश संभाला, चाचा को अपने परिवार के एक सदस्य की भांति देखा । ये तो बाद मे पता चला कि चाचा दूसरे गाँव के रहने वाले है । दशहरा मे दुर्गा जी की मूर्ति दीखाने से लेकर मुहर्रम का दाहा दिखाने तक का जिम्मा खान चाचा का ही था । दाहा के मेले मे शंकर साव की तेलही जिलेवी खाना और लौटते वक्त चाचा का पिताजी के लिए गमछे के एक खूँटे मे जिलेवी बांध लेना उसे अभी भी याद है । इस मे लच्छा सेवई जमकर उड़ाता, ऊपर से कुछ बांधकर घर भी लाता ।

          आज सुबह एक अंजान नंबर से मनोहर के मोबाइल पर फोन आया । बाथरूम मे था । तीन बार फूल रिंग हुआ । ज्योंही बाथरूम से बाहर आया पलटकर फोन लगाया तो आवाज आई, अब्बा नहीं रहे । वो समझ नहीं पाया । पूछा आप कौन ? कहाँ से बोल रहे है ? आवाज आई, मैं इकबाल बोल रहा हूँ । थोड़ा रुका, फिर समझ गाय, खान चाचा चले गए । आंखे नम हो गई । बचपन का सारा दृश्य एक बार फिर आंखो के सामने दोड़ गया । चाचा तो चले गए पर मनोहर के लिए एक खालीपन छोड़ गए । आना और जाना तो  संसार का नियम है । पर उनका जाना एक युग के जाने जैसा है । अपनापन, सौहार्द और सहिष्णुता की मिसाल थे वे । मनोहर के गाँव मे  सूर्यमन्दिर के पश्चिमी दिवाल से सटा हुआ पाँच डिस्मिल का प्लॉट शकील खान का ही था । सूर्यमन्दिर के बिस्तार के लिए कुछ जमीन की जरूरत थी । मुखिया जी सहित कई लोग, कई दफ़े उनके बड़े लड़के इकबाल खान से अनुनय-विनय कर चुके थे । पर बात नहीं बन पाई । लोग सोंचते थे कि , घर का कर्ता-धर्ता उनके बड़े लड़के  इकबाल जी है, सो शकील जी से मिलने से कोई फाइदा नहीं होगा । बात भी सही था । पहले तो लोगों ने जमीन दान मे मांगी । बात नहीं बनने पर कीमत देकर खरीदने की बात हुई । यहाँ तक कि इस जमीन के बदले दोगुनी जमीन दिये जाने का प्रस्ताव भी नामंज़ूर कर दिया गया । चारों भाइयों मे सहमति नहीं  बन पाने के कारण इकबाल जी भी लाचार थे । हालांकि इकबाल जी ने भी कभी वैसा उत्तर नहीं दिया जिससे लोगों को बुरा लगे । हाँ पारिवारिक असहमति का वास्ता जरूर देते थे । आज जब मनोहर शकील चाचा के चहारम (श्राद्धकर्म) मे शामील होने उनके गाँव पहुंचा तो इकबाल जी ने अलग बुलाकर उसे एक कागज दिखलाया जिसमे खान चाचा ने सूर्यमन्दिर के बगल वाली जमीन को मंदिर के लिए दान देने की इच्छा जताई थी । अब्बा कहते ते उनके भाइयों में जब बंटवारा हुआ तो, एक तो उन्हे पुराने घर मे हिस्सा नहीं मिला ऊपर से घर बनाने के लिए जो जमीन मिली वो गाँव मे न देकर गाँव से दूर भुईटोली में दी गई । सरासर बेईमानी हुई । अब्बा वहाँ जाना नहीं चाहते थे । यह बात जब आपके पिताजी को पता चली तो उन्होने अब्बा को घर बनाने के लिए ये जमीन मुफ्त मे दी थी । सूर्यमन्दिर वाली जमीन को दान के बारे मे अब्बा  को सब पता था, मगर छोटे भाई इकराम के डर से कुछ नहीं बोलते थे । इकराम के व्यवहार से वे काफी दुखी थे । कल जब उनका सन्दुक खोला गया तो अन्य कागजात के साथ यह वसीयत पड़ी मिली जिसमे अब्बा ने मंदिर के पास वाली जमीन को मंदिर को दान देने की चर्चा की है । इकबाल जी ने मनोहर के हाथों मे देते हुए कहा कि इसे मुखिया जी को दे दीजिएगा ।

          मनोहर जब-जब छठ मे गाँव जाता है, तो मंदिर के पिछवाड़े बने मंच को देखकर खान चाचा की याद आती है । लगता है, मंच पर चाचा वैसे ही पगड़ी बंधे दोनों हाथ घुटनो में फंसाए बैठे हैं । आज वो चाय नहीं, छठ का प्रसाद पाना चाहते है । खान चाचा तो चले गए लेकिन उनकी वसीयत आज भी रोमांच पैदा करती है । वसीयत का वो दस्तावेज़ गीता और कुरान से भी ज्यादा अहमियत रखता है । काश । हमारा समाज भी खान चाचा का अनुकरण कर लेता ।

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