मेरी कलम से
लड़कियाँ मेहमान होती हैं।
लड़कियाँ मेहमान होती हैं
शीशे का सामान होती हैं
लड़कियाँ गढ़ी जाती हैं
समाज की चाक पर
सेंकी जाती हैं
संस्कारों की आँच पर
ठोंक पीटकर
जाँची परखी जाती हैं
बाहर से खूब सजाकर
भीतर से ख़ाली रखी जाती हैं
बार बार टोही जाती हैं
कि भीतर कुछ अनचाहा
पक तो नहीं रहा
कभी छोड़ी जाती हैं
चौराहे पर असगुन की तरह
तो बेवजह फोड़ी जाती हैं
चिता की परिक्रमा के बाद
लड़कियाँ तैयार की जाती हैं
हर रोज़ चूल्हे पर चढ़ने के लिए
कभी फेंक दी जाती हैं
सड़ने के लिए
लड़कियाँ काम आती हैं
समाज को पढ़ने के लिए
कभी बरतन
कभी शो पीस
कभी गुलदान होती हैं
लड़कियाँ दरअसल
मिट्टी का सामान होती हैं
लड़कियाँ मेहमान होती हैं
-श्री हूबनाथ
प्राध्यापक, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय
संपादक,शोधवारी (मुंबई विश्वविद्यालय की शोध पत्रिका)