मैं और मेरा स्वार्थ
डी. के. सक्सेना((दीप-दर्शन)
ग्वालियर म.प्र.
घण्टियों का ये शोर मुझे जँचता नही । पतित पावन यहाँ कोई दिखता नही ।
अरमानों के शिखर पे हैं ख्वाइशें खड़ी!
स्वार्थ में सिमटी हैं यहाँ चाहतें बड़ी!
बिन आस कोई शीश यहाँ झुकता नही । पतित पावन यहाँ कोई दिखता नही।
उम्मीदों के बिखरे यहाँ फूल कई हज़ार!
बिन आरजू के पैर कौन रखता माँ के द्वार!
बिन निराशा नतमस्तक कोई होता नही ! पतित पावन यहाँ कोई दिखता नहीं।
सिर्फ पाने की , प्यास है, कितना व्यभिचार!
लुट गया , वजूद यहाँ होकर निराधार!
बिन गरज के , यहाँ कोई , बरसता नहीं । पतित पावन यहाँ कोई दिखता नही।
लोभ की बहती, मन मे, लहरें हजार!
स्वार्थ मन से, डाले शिव पे, गागर की धार!
मासूम चेहरे पे, आडंबर जँचता नहीं । पतित पावन यहाँ कोई , दिखता नही।
जलाकर दीप-आरती, कर जोड़, स्तुति करे !
छोड़ते ही द्वार , मंदिर का , ढीठ प्रस्तुति करे!
आवेग सात्विक का यों फबता नहीं । पतित पावन यहाँ कोई, दिखता नहीं ।
भस्म करके ,इंद्रियों को , ख्वाइशों को आग दी!
रखके, मोह-माया को , हवाएँ हज़ार दीं!
इस कदर (इरादतन),जाल में,कोई फँसता नही । पतित पावन कोई यहाँ दिखता नही ।
कभी माँगकर , तो देखो , उसको उससे !
दूर हो जाएंगी व्यधाएँ ,खुद ही, खुद से!
प्रेमी उसका यहाँ कोई दिखता नही । पतित पावन यहाँ कोई दिखता नही ।
डी. के. सक्सेना((दीप-दर्शन)
ग्वालियर म.प्र.