पार्थिव नहीं पार्थ
पार्थिव नहीं पार्थ
(मौलिक एवं अप्रकाशित कहानी)
“आप भी न कहाँ चले गये थे सुबह से, दिन चढ़ गया अब आ रहे हैं , पता है न आज निशु आ रहा है …कोई फ़िक्र है आपको अपने बेटे की ?” रमा ने लकड़ी की फाटकी को उढ़ेल कर भीतर आते अपने पति को आड़े हाथ लिया |
“भागवान ! मुझे अपने बेटे की फ़िक्र न होती तो अभी घर ही में बैठा होता |”
“मतलब !…और ये लकड़ी का कबाड़ क्यों उठा लाए ,पहले ही घर में क्या कम कबाड़ है।” रमा ने पति के हाथों में लकड़ी देखकर झुंझलाते हुए कहा।
“नाराज क्यों होती हो निशु की माँ , अरे जानती नहीं अपना बेटा अब बड़ा अफसर बन गया है। अब जब आएगा तो उसकी वो कीमती वर्दी….है कोई जगह घर में उसे रखने के लिए।“ मोहन ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
“अरे वाह ! तो क्या इनसे बेटे के लिए कुछ बना रहे हो ? “ बेटे का नाम सुनते ही रमा के स्वर में नरमी आ गई |
“हाँ ! सिनेमा में नहीं देखती कैसे बड़े- बड़े अफसर अपनी यूनिफॉर्म स्टैंड पर टांगते हैं।“
“हाँ ! देखा, ऊपर हेट टंगी होती है , फिर ये ड्रेस। कहीं जाते हैं तो फट से ड्रेस अंग पर डाली ,हेट लगाया और निकल पड़े।“
“हाँ वैसा ही स्टैंड ?”
“मगर आप एक दर्जी के साथ बढ़ई कब से हो गए जी।“
“अपुन अपने बेटे के लिए कुछ भी बन सकता है, मेरा बेटा मेरा अभिमान है रमा।“ मोहन ने छाती फूलते हुए कहा |
“वो तो है, पूरे गाँव में हमारा मान बढ़ाया है हमारे बेटे ने मगर वो तो आज आने वाला है। पता है मैंने उसकी पसन्द के दही बड़े, पूरी, मैथी वाले आलू, मखाने की खीर बनाई है। …अरे ! च्च …अब यू हीं खड़े रहोगे जरा पता तो करो उसकी गाड़ी का समय तो हो गया…आया क्यों नहीं अभी तक !”
“अच्छा- अच्छा पता करता हूँ तुम थोड़ा धीरज रखो। मोहन अपना फोन लेने अंदर बढ़े ही थे कि फोन की घण्टी बज उठी।“
“अरे ! रमा ये तो अपने निशु का ही फोन है।“
“अरे ! तो देख क्या रहे हो उठाओ न, आप भी न !” उतावली सी रमा बोली |
“हेलो ! निशु, कहाँ हो बेटा…?”
“पापा ! अभी तो मैं वहीं हूँ ,मेरा मतलब कश्मीर ।“
“क्या कश्मीर में है तू…मगर तू तो आज आने वाला था न !” मोहन आगे कुछ कह पाते उससे पहले ही रमा ने लगभग फोन हाथ से छीनते हुए कहा,
“हेलो ! बेटा निशु ,तू …तू आया नहीं ,मैं तो तेरी राह तकती बैठी हूँ बच्चे ,तेरे पसन्द की सारी चीजें बनाई हैं मैंने। तूने बताया भी नहीं कि तू नहीं आ रहा !“
“सॉरी माँ ! मैं बता नहीं पाया कि मैं अब अगले छह महीने और घर नहीं आ पाऊँगा।“
“क्या छह महीने…ये नहीं हो सकता बेटा, मैं कुछ नहीं जानती, बस तू अभी की अभी आ जा…इसे अपनी माँ का हुक्म मान समझे।“
“जो हुक्म मेरी माँ ।“ कहते हुए बाहर गली में खड़े निशु ने यूनिफार्म पहने हुए घर के दरवाजे पर दस्तक दी तो मायूस से माँ – पापा दोनों दरवाजे पर आए। सामने अपने जवान बेटे को देख दोनों की आँखों में चमक आ गई।
“निशु तू …तो ये सब क्या था।” आँखों में आँसू लिए रमा बोली।
“बस यूँ ही माँ, देखना चाहता था आपका क्या रियेक्शन है।“
“चल हट तू न कभी नहीं सुधरेगा, बचपन में भी इसी तरह रुलाया करता था अपनी माँ को…बड़ा मजा आता था न तुझे।
“मेरी अच्छी माँ, (कहते हुए निशु ने माँ को गले से लगा लिया। )| एक बात बता माँ, मैं जब सीमा पर जाता हूँ तब तू रोती है, बात समझ में आती है | मगर जब आता हूँ तब भी तू रोती है बात कुछ समझ नहीं आती न पापा …?” निशु ने फिर से माँ की चुटकी लेते हुए कहा |
“तू नहीं समझेगा बेटा …इसका जवाब सिर्फ एक माँ ही दे सकती है |”रमा बेटे के हाथ से बेग लेते हुए बोली |
“माँ- पापा ! मैं आप दोनों को हँसते-मुस्कुराते देखना चाहता हूँ, बहुत सुख देने चाहता हूँ आपको।”
“अब कौशल्या और राम का मिलाप हो गया हो तो यह गरीब भी पीछे खड़ा है।“ मोहन ने बेटे से मुखातिब हो कहा |
“पापा !” कहते हुए निशु ने पापा को बाहों में भर लिया। पापा ने भी अपने अफसर बेटे को यूनिफोर्म में देखकर एक जोरदार सैल्यूट मारा …मगर उनके हाथ की मुद्रा गलत थी | जिसे सुधारते हुए निशि बोला ,
“पापा ऐसे नहीं ऐसे |” अब यहीं खड़े रहोगे दोनों कि अंदर भी चलोगे। चल मैं तेरे लिए पानी गर्म करती हूँ फटाफट नहा ले फिर गर्मागर्म खाना तैयार है।
“माँ तुम पानी रखो , मैं अभी आया।“
“अरे ! अब कहाँ चल दिया, घर के भीतर तो आ।“ रमा चिल्लाती रह गई निशु दरवाजे से बहर हो लिया |
“जाने दे रमा, जवान बच्चों को इस तरह टोकते नहीं।“ मोहन ने रमा के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा |
“अरे ! मगर …ऐसे कैसे, अभी तो आया है। हमसे जरूरी भी कोई काम है क्या ?”
“ये तू नहीं समझेगी बावरी, तूने किसी से प्रेम किया हो तो पता चले। होठो ही होठों में बुदबुदाए मोहन।“
“ये तुम क्या मन ही मन बड़बड़ा रहे हो …|” रमा खीजते हुए बोली |
“कुछ नहीं भागवान चल भीतर पानी रख, निशु बस आता ही होगा।“ उधर निशु, नीति से मिलने पहुँचा,
“कैसी हो नीति ?”
“आखिर छह माह बाद याद आई आपको मेरी ।“ नीति बनावटी गुस्से में बोली |
“कैसी बात करती हो , तुम्हें भूला ही कब था जानू |”
“भूले नहीं थे तभी तो फोन भी नहीं करते |”
“अरी पगली ! जहाँ मै तैनात था वहाँ नेटवर्क की बहुत समस्या रहती है , मैं माँ –पापा को भी नहीं बता पाया उधर वो भी नाराज हैं मुझसे |”
“चलो माफ़ किया आप भी क्या याद रखोगे |”
“अच्छा ये बताओ तुमने यही प्रोफेशन क्यों चुना ? कितनी दूरियाँ हैं इसमें |” निशि के सीने से लगी नीति उसकी शर्ट के बटन से खेलते हुए बोली |
“नीति ! बचपन में माँ ने शिवाजी की वीरता की इतनी कथाएँ सुनाई, जो मेरे लहू में घुटी की तरह समा गई | मातृभूमि के प्रति शिवाजी का प्रेम देखकर मेरे मन में भी अपनी मिटटी और तिरंगे के प्रति प्यार उमड़ आया और मैंने भी अपने जीवन का ध्येय यही बना लिया |”
“अब तुम एक बात बताओ?”
“पूछो |”
“तुम्हें डर नहीं लगता तुमने एक आर्मी वाले से प्यार किया है , वह भी कश्मीर में तैनाती ….अगर मुझे कुछ …|” कुछ कहता निशु उससे पहले ही नीति ने उसके होठों पर अपनी ऊँगली रख दी |
“तुम्हें मेरी कसम है निशु कुछ ऐसा-वैसा न कहना | मुझे अपने प्यार पर पूरा भरोसा है , दुश्मन भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ सकता |” निशु ने नीति का चेहरा हाथ में लेकर एक चुम्बन उसके माथे पर दिया |
“चलो अब चलता हूँ , माँ नाराज होंगी| घर के अंदर भी कदम नहीं रखा और तुमसे मिलने आ गया |”
“अच्छा ! फिर कब मिलोगे | अब तो एक महीना यहीं हूँ और फिर अब तो नेटवर्क की भी कोई दिक्कत नहीं तुम्हें बता दूंगा |” पलकें बिछाए बैठी माँ ने अपना सारा प्यार रसोई में उढ़ेल दिया था | अरसे बाद निशि अपनी पसंद का खाना खा रहा था | पिता ,माँ को कह-कहकर थाली में व्यंजन डलवाते जा रहे थे तो माँ केवल बेटे को अपने सामने पाकर अपनी तृप्ति का एहसास कर रही थी कि तभी मोबाइल की घंटी बज उठी ,
“जय हिन्द सर ! मैं रामरतन बोल रहा हूँ , कमान्डर साहब बात करेंगे |” निशु के हाथ का निवाला हाथ में ही रह गया | उधर से फिर कोई आवाज आती उससे पहले निशु अपनी थाली पर से खड़ा हो गया था |
“जयहिंद सर , मैं निशि ….|”
“निशि ! तुम्हें वापस ड्यूटी ज्वाइन करना है |”
“सर !” निशि के हाथ सैल्यूट की मुद्रा में उठ गये |
“यहाँ उग्रवादियों ने हमारे दो ठिकानों पर हमला कर दिया है , ऊपर से भारी पथराव उनके युवाओं द्वारा किया जा रहा है | हमारे कई सैनिक हताहत हो गये हैं |”
“सर ! मुझे कब ज्वाइन करना है |”
“कल तुम्हारी रिपोर्टिंग है |”
“जयहिंद सर ! मैं पहुँच जाऊँगा |” फोन की बातें सुनते ही सामने बैठे निशि के माँ –पापा ठगे से रह गये | उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था |
“क्या हुआ बेटा , क्या कह रहे थे तेरे अफसर ?” रमा का दिल सब कुछ सुनकर भी मानने को तैयार नहीं था |
“माँ ! मेरे बॉस का फोन था, मुझे वापस कश्मीर बुलाया है |”
“ये फिर तेरी मुझे रुलाने की कोई नई चाल है न ,…देख कह दे बेटा यह तू मुझसे मजाक कर रहा है |” निशु माँ –पापा के जज्बात समझता था किन्तु उससे बढ़कर था इस समय उसके लिए अपना फर्ज | यही तो सौगंध खाई थी उसने | माँ के हाथों को अपने हाथ में लेकर बोला ,
“माँ ! पापा मैं आपकी भावना समझ रहा हूँ | मगर देखा न आपने कमांडर साहब कह रहे थे, अचानक वहाँ ऐसे हालात पैदा हो गये हैं कि मुझे जाना ही होगा |”
“मगर बेटा मैंने तो अभी तुझे जी भरकर देखा भी नहीं |” डबडबाई आँखों से रमा बोली |
“कोई बात नहीं माँ , अबकी बार मैं पूरे दो माह की छुट्टी लेकर आऊँगा तब हम साथ रहकर बहुत मस्ती करेंगे| तुम जितना मर्जी मुझे डांटना ,मगर इस समय मेरा जाना बहुत जरुरी है माँ |” भावुक तो निशि भी था …आखिर इन्सान है वह, जज्बात हैं उसके भी , अभी-अभी तो अपनी नीति को वचन देकर आया है कि एक महीना रहकर उसकी सारी शिकायत दूर कर देगा | सोच रहा था निशि , हम फौजियों से हमारे परिजनों को हमेशा शिकायत बनी रहती है और हम देश की शिकायतों को दूर करने में लगे रहते हैं, अपनों को नजरंदाज कर |
“कब जाना होगा बेटा ?” मायूस से स्वर में मोहन ने पूछा |”
“पापा ! कल रिपोर्ट करना है, मतलब आज ही निकलना होगा | सामान तो बंधा हुआ ही है …फिर जैसे उसे कुछ याद आया उसने अंदर कमरे में ले जाकर एक बेग खोला, उसमें से कुछ पैक सामान निकालकर बोला,
“माँ –पापा इसमें आप दोनों के लिए कश्मीर के शाल हैं , मैं बस अभी आया पन्द्रह मिनट में , फिर निकलूंगा |”
“मेरे बच्चे ! इतने मन से खाना बनाया …वह भी चैन से न खा सका |” रमा जैसे कुढ़ कर रह गई |
“कोई बात नहीं माँ आप ये खाना मुझे पैक कर दीजिए , मै रास्ते में खा लूँगा |” कहते हुए निशि बाहर निकल गया | पत्नी का दुःख मोहन जानते थे , आंचल से अपनी नम आँखों को पोंछती रमा के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले ,
“भागवान ! बेटा जब जाए तो उसके सामने रोना मत , उसका दिल भी दुखता है | काम पर जाते हुए उसके चेहरे पर सुख-संतोष का भाव होना चाहिए ताकि युध्द भूमि में वह निश्चिन्त होकर दुश्मनों से लड़ सके | वरना उसके दिमाग में तुम्हारा आंसू भरा चेहरा ही घूमता रहेगा |”
“मैं तो अपने रोने का कोटा उसके जाने के बाद भी पूरा कर लूंगी ,मगर आपका का क्या …जानती नहीं क्या मैं आपको; भीतर ही भीतर दुःख दबाए रहते हो |” मोहन प्रसाद अपने गमछे से नम आँखों को पोंछते हुए बाहर आंगन में आ गये और अभी थोड़ी देर पहले जो लकड़ियाँ बेटे की वर्दी के लिए स्टैंड बनाने को लाये थे उन्हें एक कोने में खड़ा करने लगे | अभी चंद घंटे पहले जिस आंगन में खुशियों का स्वर गूंजा था थोड़ी ही देर में वह सन्नाटे में बदल गया | यह उदासी निशि के मन पर भी अपनी धुंध चढ़ा चुकी थी मगर एक सैनिक को सिखाया जाता है कैसे भावनाओं पर काबू पाकर मुस्कुराया जाता है ,
“अरे ! क्या हुआ …इतनी जल्दी बुला लिया | निशि ने फोन पर सूचना देकर नीति को उसी मिलन स्थल पर बुलाया |
“नीति ! तुमने अभी-अभी कहा था न तुम्हें अपने प्यार पर पूरा भरोसा है …तो देखो भगवान् ने तुम्हारी परीक्षा ले ली |” निशि ने मुस्कुराते हुए कहा |
“मतलब !”
“मतलब ! ये कि मुझे आज बल्कि अभी वापस अपनी ड्यूटी पर जाना है |”
“आप मजाक कर रहे हैं न ?”
“नहीं नीति , अभी हेड ऑफिस से फोन आया है ,वहां उग्रवादियों ने अचानक हमला कर दिया है , मुझे कल ही रिपोर्ट करना है |”
“ओह ! ये क्या हुआ निशि , कितने इंतजार के बाद ये पल आये थे |”
“कोई बात नहीं पगली , इन पलों का क्या ,एक बार ये समस्या खत्म हो जाए फिर बस ये पल हैं और हम हैं | देखो मैंने कश्मीर से तुम्हारे लिए पचमिना का यह शोल खरीदा था सोचा दे दूँ इस बहाने तुम्हें सूचना भी दे दूंगा | तुम्हारी शिकायत रहती है न कि मैं सूचना नहीं देता |
“मगर निशि ….|”
“अभी बात करने का समय नहीं नीति, कभी नेटवर्क मिला तो फोन पर बात करूंगा | मुझे निकलना है अभी , उधर माँ-पापा भी मायूस हैं उन्हें भी समझाना है |” अपनी जिन्दगी से विदा ले निशि जन्म देने वाले माँ – पापा के पास आया | उसके लिए खुद यह परीक्षा की घड़ी थी | कैसे समझाएगा उन्हें , देश सेवा का व्रत उसने लिया है लेकिन माँ पापा के प्रति भी उसका फर्ज है ….कम से कम उनकी आँखों में उसकी वजह से आंसू तो न हो |
“पापा ! आप माँ को समझाना , और आप भी इस तरह उदास मत हो पापा , मैं जल्द ही आऊंगा |”
“अरे ! कुछ नहीं हुआ है हमें , तू चिंता मत करना बेटा हमारी ओर से, और सुन पूरे होंसले के साथ लड़ना हमारा आशीर्वाद है तेरे साथ ,कुछ नहीं होगा तुझे | जल्द ही तू यह लड़ाई जीतकर ,अपने सीने पर मैडल लेकर लौटेगा न …तब मैं उस मैडल को अपने सीने पर लगाकर पूरे गाँव में घूमूँगा |”
“वादा ?”
“पक्का वादा |” कश्मीर में भारतीय सेना की दो पोस्ट पर धावा बोल चुके उग्रवादियों के होंसले बढ़ गये | पाक उग्रवादियों के द्वारा बहकाए गये युवाओं में भारी आक्रोश था वे भारतीय सेना पर बेरहमी से पथराव कर रहे थे | निशि के जाते ही कमाण्डर ने उनके नेतृत्व में एक नई टुकड़ी तैयार की | दोनों ओर से धुआंधार फायरिंग हो रही थी | चार भारतीय जवानों का मुकाबला सामने से फायरिंग करते 7 उग्रवादियों से था | सीमित साधनों के बावजूद एक-एक कर भारतीय सेना ने उग्रवादियों को मार गिराया जिनमें से तीन उग्रवादियों को धराशाही करने का श्रेय निशि के हिस्से आया | इसी फायरिंग के दौरान निशि ने देखा एक उग्रवादी बचा है और उसकी रायफल में गोली ख़त्म हो चुकी थी | निशि ने सोचा अब वे इस उग्रवादी को आसानी से कब्जे में कर लेंगे | कहते हैं न दुश्मन को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए | यही गलती निशि ने की , वे अकेले ही फायरिंग करते हुए उसके पीछे चल पड़े | वे सोच रहे थे दुश्मन निहत्था है इसलिए उनसे बचकर भाग रहा है |
उधर वो उग्रवादी जिसकी रायफल की गोलियां भले ही खत्म हो गई मगर अब भी वह हथियारों से लैस था और अपने दुश्मन (निशि) को दूर खदेड़कर ले जा रहा था | वह अपनी कूटनीति में सफल रहा , निशि ने उस पर कई फायरिंग की मगर उसकी चालाकी के रहते महज एक गोली उसके कंधे को छिलती हुई निकली | मौका पाते ही उसने अपनी छुपी हुई खुखरी निकालकर निशि के पेट में गोप दी | जांबाज निशि ने होंसला नहीं खोया , अपने पेट से उसी खुखरी को निकाल उसने उस उग्रवादी पर धड़ाधड़ वार कर दिए | वह वहीँ ढेर हो गया | तब तक भारतीय सेना अपने नायक की सहायता के लिए पहुँच चुकी थी | उन्होंने निशि के पेट से निकलते लहू को ट्रेनिंग में सिखाए तरीकों से रोकने का प्रयास किया | निशि की सांसे चल रही थीं ,बस समय पर उपचार मिल जाने की उम्मीद से वे फौरन जीप से कश्मीर के सैनिक अस्पताल की ओर निकल पड़े |
अभी थोड़ी दूर ही निकले थे कि रास्ते में बाधा बने कुछ उग्रवादी जो कश्मीर के ही थे मगर उग्रवादियों ने इन युवाओं के दिमाग में भारतीय सैनिकों के खिलाफ जहर बो दिया था | उन्होंने जीप पर पथराव करना शुरू कर दिया | दुर्भाग्य से एक पत्थर सीधे निशि की कनपटी पर जा लगा खून का फव्वारा सर से फूट पड़ा और अस्पताल पहुँचने से पहले ही निशि ने दम तोड़ दिया | सेना में अपने नायक को खे देने का शोक था दूसरी ओर अपनी जान पर खेलकर भी उग्रवादियों को मौत के घाट उतारने वाले देश के इस जाबांज सैनिक को मरनोपरांत देश का सबसे बड़ा पदक परमवीर चक्र प्रदान करने की घोषणा हुई | सेना के दफ्तर से निशि का यूनिफार्म उसके पिता को सौंपा गया | उन्होंने बेटे की वर्दी को ससम्मान अपने द्वारा बनाए उस स्टैंड पर लगा दिया | अब उस गरीब माँ –बाप के लिए यही उनके बेटे की उपस्थिति का एहसास कराता है |
‘कश्मीर में चार उग्रवादियों को मौत के घाट उतारने वाला वीर नायक निशि खटरा को सरकार परमवीर चक्र से सम्मानित करती है |’ राष्ट्रपति भवन में जैसे ही निशि का नाम पुकारा उनके पिता मोहन प्रसाद खटरा राष्ट्रपति के सामने उपस्थित हुए | जैसे ही राष्ट्रपति ने ट्रे से पदक उठाने हाथ बढ़ाया मोहन प्रसाद बोले ,
“माननीय ! मैं कुछ कहना चाहता हूँ |” संचालक ने झट दौड़कर उनके हाथ में माइक पकड़ाना चाहा |
“इसकी आवश्यकता नहीं , मैं एक वीर सैनिक का पिता हूँ , मेरे स्वर में इतनी ताकत तो होनी चाहिए कि यहाँ बैठा हर व्यक्ति तक मेरी आवाज पहुँच सके |
साहब ! मैं यह पदक नहीं ले सकता, यद्यपि मुझे अपने बेटे पर फक्र है | साहब सीने पर दुश्मन की गोली खा कर वीर गति को पाने वाला शहीद कहलाता है न मगर मेरा बेटा तो पत्थर की चोट से मरा !, कारण उसे सही समय पर अस्पताल नहीं पहुँचाया जा सका , इसलिए उपचार के अभाव में रास्ते में उसने दम तोड़ा | और साहब ये घटना घटी भारत की जन्नत कही जाने वाली भूमि कश्मीर में ? ….क्या ऐसी होती है जन्नत …? मेरा सवाल है भारत सरकार से कि कौन लोग हैं ये जिनके हाथों में पत्थर है …? और कौन है जिन्होंने इनके हाथों में पत्थर पकड़ाए हैं …? हमारे सैनिक जो अपना परिवार छोडकर सीमा पर देशवासियों की सेवा में अपना जीवन गंवाते हैं क्या उनका यही सम्मान है कि उन पर पत्थर फैंके जाए …? उन्हें क्यों अधिकार नहीं कि वे इन पत्थरबाजों को कोई जवाब दे सकें …? उन पर पत्थर फैंकने वाले भी आखिर भारत के ही युवा हैं |
मैं पूछना चाहता हूँ उन युवाओं से आज मेरा बेटा पत्थर का निशाना बना है ,कल को वो भी निशाना बन सकते हैं | क्या उनके अपनों के कंधे इतने मजबूत हैं कि वे अपने ही बच्चों की अर्थी को कान्धा दे सकें …? मुझे देखिये महोदय , जिस बेटे के बच्चों को खिलाने का सपना देखा था इन आँखों ने , उन्होंने अपने बेटे का पार्थिव देखा है | जिस बेटे के कंधे पर जाने की आरजू थी ,उसी बेटे को अपने काँधे पर विदा किया है मैंने …दुनिया की सबसे भारी अर्थी का बोझ उठाया है इन कमजोर कंधों ने इसलिए कह सकता हूँ किसी बाप में इतनी ताकत नहीं कि वह अपने ही बेटे की अर्थी को कान्धा दे मगर उसे देना पड़ता है साहब | मैंने तो अपना बेटा देश की खुशहाली के लिए खोया है इसलिए फक्र से मेरा सर ऊँचा है किन्तु जो देश के युवा किसी के बहकावे में आकर अपने ही जवानों की जिन्दगी से खिलवाड़ कर रहे हैं …क्या उनके माँ –बाप फक्र महसूस करते होंगे …? अपने ही घर की दुल्हनों की ये डोलियाँ लूट रहे हैं , बहनों के हाथ से राखियाँ छीन रहे हैं | साहब ये बच्चे बद दिमाग हो जाएँ इससे पहले इन्हें समझाना बहुत जरुरी है कि ऐसा करके वे अपने ही घर को तबाह कर रहे हैं | पहले उन्हें सही रास्ते पर लाइए साहब |
मैंने अपने बेटे से वादा किया था कि जिस दिन वह इस युध्द में जीत हासिल कर अपने सीने पर मैडल लेकर आएगा मैं उस मैडल को अपने सीने पर लगाकर पूरे गाँव में घूमूँगा | वह भले ही पार्थिव में परिवर्तित हो चुका है किन्तु मैं मानता हूँ वह पार्थ है …उसका जाना हमारे देश के युओं के लिए बड़ी क्षति है |यकीन मानिये मैं भी अपने बेटे को श्रध्दांजलि देना चाहता हूँ किन्तु मैं उसका मगर इस मैडल के माध्यम से नहीं | मैं इस मैडल को तभी स्वीकार करूंगा जब कश्मीर की हर वादी में शांति हो, युवाओं के हाथों पत्थर बरसाने के बजाय मैत्री के लिए बढ़े | उस दिन मेरे बेटे की कुर्बानी पूरी होगी | तब इस मैडल को लेकर मैं गाँव में ही नहीं पूरे हिंदुस्तान में शान से घूमूँगा |
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डॉ. लता अग्रवाल
30 एमआई जी , अप्सरा कोम्प्लेक्स-A सेक्टर
इंद्रपुरी , भोपाल- 462022
मो.-9926481878