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चाहत…..सौजन्य: श्री डी. के.सक्सेना(दीप-दर्शन)
हम भी क्या लगन कर बैठे?
सबकुछ खोने की खातिर,पाने की ललक कर बैठे।
मूंदकर आँखों को अपने!
इक चाहत की आग में,ख्वाबों को सजा बैठे।
काबू न किया दिल पर!
बेफजूल की छांव में, हम सुकून बना बैठे।
भटका लिया मन हमने!
इस किराए के घर को, अपना घर समझ बैठे।
मोह की आंधियों में बहकर!
इन रंगीन हवाओ के, आँचल में सिमट बैठे ।
असीम ख्वाहिशों की खातिर!
बिगाड़कर ईमान अपना , हम नियत बिगाड़ बैठे।
एक जुस्तजू की चाह में!
पालकर सपने हजार,मोहपाश में बंध बैठे।
हम भी क्या मनन कर बैठे!
होकर खाना बदोश ,जहाँ अपना समझ बैठे।
होकर खाक मिलना मिट्टी में,
भटककर मृगमरीचिका में !असीम चाहतों में फंस बैठे।
हम भी क्या लगन कर बैठे?
सब कुछ खोने की खातिर,पाने की ललक कर बैठे।
डी. के.सक्सेना(दीप-दर्शन)
ग्वालियर(म.प्र.)
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