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इनबुक फाउंडेशन द्वारा आयोजित – राजभाषा हिंदी का सम्मान प्रतियोगिता 2022 – “द्वितीय पुरस्कार” विजेता कहानी “बैसाखी”

डॉ शीला गौरभि
सह आचार्या–हिन्दी
यूनिवर्सिटी कॉलेज
तिरुवनन्तपुरम, केरल

दूर पेड़ों के बीच में से दीखता वह घर जेनी के मन में ढेर सारी यादों को पुनः जीवंत बना दिया…. बड़े-बड़े नारियल के पेड़ों, कदली के पेड़ों के बीच में से धुंधले पड़े, पर मन का अतिपरिचित वह घर एवं अहाता, जेनी कैसे भूल पाती ?… अपने मीठे, नमकीन एवं कड़वे अनुभवों से भरे बचपन का हर एक लम्हा… हर एक दृश्य… उभर उभरकर ऐसे सामने आता है कि सबकुछ आज ही की बात हो।

मध्याह्न के सूरज की तपती रोशनी में घर के आँगन पर अपने हमउम्र दोस्तों से मिलकर आँखों पर पट्टी बाँधकर आँख मिचौली खेल रही थी जेनी। अचानक घर के सामने कुछ शोरगुल सुनाई दिया… उसने अपनी आँखों की पट्टी खोली… अपने चारों ओर अपनी छोटी एवं चमकीली आँखें घुमा दीं। घर के सामने एक मुर्दागाड़ी खड़ी है… कुछ का जत्था था… ये सब क्या हैं? लोगों
ऐसी सोच मन में पूरा होने के पहले ही घर के अंदर में से माँ की चीख-पुकार कर्णपटों को भेदकर निकली। आस-पड़ोस की कुछ औरतें जल्दी-जल्दी घर के भीतर दौड़ती जा रही हैं। छोटी जेनी, भौंचक्का हो, सभी पर अपनी नजर घुमा रही है।… यह दृश्य उसे चकित बना दिया कि कुछ पुरुष सफेद कपड़े में ढके एक शरीर को घर के आँगन में लिटा दे रहे हैं।

दशहरे के लिए नए कपड़े खरीदने के लिए गए पापा का पार्थिव शरीर…. निर्जीव….. निश्चेष्ट… जेनी ने एक बार पापा के चेहरे की ओर निर्निमेष देखा। उसे लगा कि पापा उससे कुछ कहना चाहते हैं। जिंदगी में इतनी जल्दी पापा हमें छोड़ कर कैसे इस दुनिया से… अपने को एवं अपनी माँ को अकेला छोड़कर शांतिलोक की ओर चले गए…। ये बातें जेनी की सोच के बाहर की रहीं।

तुरन्त ही उसके अन्तर्मन से अपने को उदास बनाते हुए यह सवाल उभरने लगा कि डाय, अब तो इस दशहरे पर मुझे नये कपड़े नहीं मिलेंगे क्या? कितनी बचकानी बात है? उसने अपने को संभाल लिया। फौरन उसके मन में कुछ बातें बिजली – सी कौंधी। वह अशांत एवं बेचौन हो उठी। हाय, यह कैसे !.. इस धरती पर केवल मैं और अपनी माँ… मैं अकेली क्या करूँ ?… माँ तो ठीक से खड़ी भी हो नहीं सकतीं ।

दो साल पहले रसोई घर में फिसलकर गिरने से जिन्दगी भर के लिए मिला बड़ा तोहफा… | …. रीढ़ की हड्डी में चोट लगी थी। फिर पापा का पूरा ध्यान केवल माँ के उपचार एवं मेरी देखभाल में लग गया था। दस वर्षीया मैं सदा अपने पापा के साथ ही रही और अब पापा नहीं रहे। माँ को सहारा देकर उठाने बैठाने में पापा को मदद करने से लेकर उनके शरीर को साफ-स्वच्छ करने का काम, घर में झाडू बुहारना, बर्तन माँजना आदि छोटे-छोटे काम जेनी अपने आप ही करती थी। पड़ोसिनें इसे मुँह में उँगली रखकर देखती रहतीं, यही कहतीं कि हमारे घर में भी बच्चे हैं, वे इस जेनी के सामने क्या हैं?

जेनी को देख कितनी चतुर… कितनी होशियार ।
मगर जेनी की सारी की सारी खुशियों पर
अब ओले पड़ गए थे।

पापा के सफेद कपड़े से ढँके शरीर को देखने पर उसके मन में अनजाने ही एक के पीछे एक करके प्रश्नों के पुंज उभरने लगे. मैं अकेली कैसे रहूँगी ? माँ की देखभाल मैं अकेले कैसे करूंगी? मैं क्या करुँगी? ऐसे अनेक प्रश्नों ने उसे घेर लिया। नाँ तो अपने-आप अपने पैरों पर ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती हैं। किसी के सहारे बिना सारा कार्य कैसे चलेगा…. अब आगे क्या होगा?
रिश्ते के एक मामा जेनी के पास आए और उन्होंने उसका हाथ पकड़कर पिता के पार्थिव शरीर के पास खड़ा कर दिया। हाथ में अक्षत एवं फूल देकर पिता के मुँड पर डालने को कहा। जेनी ने वैसा ही किया। जेनी को कुछ भी पता नहीं था कि ये सब क्यों और किसलिए करवाया जा रहा है? लेकिन किससे क्या पूछे ? यह समय भी उसके लिए उपयुक्त नहीं था। जेनी की आँखों के सामने ही घर के दक्षिणी कोने में एक स्थान पर पापा के शव का अग्निसंस्कार मामा के बेटे ने कर दिया। तब जेनी के मन की अतल गहराइयों में से एक लंबी आह निकल गई। साथ ही ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न भी। अंत्येष्टि की सभी क्रियाएँ हो चुकने के बाद जेनी माँ के पास गई। उनकी आँखों को देखकर जेनी ने यह जान लिया कि उनकी आँखें यही सवाल कर रही हैं कि अब आगे क्या होगा। छोटी जेनी तो कुछ भी नहीं जानती थी।

माँ के आँचल से लिपट कर रोती हुई वह माँ को कसकर पकड़कर लेट गई। रह-रहकर माँ बुदबुदाती रही हे मेरे भगवान…. हमारा अब क्या होगा…. जेनी को ऐसा लगा कि ये शब्द उस माहौल में छायी खामोशी को चीर रहे हैं। जेनी के मन में विचार एवं विकारों की बाढ़ सी आ गई। उसका वह बाल मन इस विचार में मग्न रहा कि आगे वह अकेली और उसकी माँ घर में क्या करेंगी?

सूरज प्रतिदिन अपने निश्चित समय पर अपनी प्यार भरी किरणें लेकर आता हैं और सायं होते-होते जेनी के मन में अनाथ का भाव भर जाता है। दिन एक – एक करके बीतते रहे। चौथे का कर्म होने तक इक्के-दुक्के रिश्तेदार डी यहाँ रह गए थे। तब नी माँ के मुँह से यह सवाल बीच-बीच में से जेनी सुनती रही कि हम आगे क्या करेंगे? रिश्तेदार एक-एक कर वहाँ से अपने दृ अपने घर चले गए।

अगले दिन तड़के डी माँ से लिपट कर लेटी गयी जेनी को ऐसा लगा कि उसके हाथों में एवं नसों में ठंडापन फैल रहा है। जल्दी ही उठी और माँ को पुकारा। प्रत्युत्तर न मिलने पर उसने नों को खूब जोर से झकझोरा। उस छोटी लड़की के मुँह में से दिगन्त को चीरनेवाली एक चीख निकल गई।… माँ… माँ….

रसोई घर में खाड़ी राधा बुआ, जो घर के सामने सड़क के दूसरे छोर पर रहती है. दौड़कर जेनी के पास आई और उसे पकड़ कर अपने शरीर से लिपटा लिया। घर में फिर वही गतिविधियों चलने लगीं जो पापा की मृत्यु पर की गई थीं। जेनी ने अन्त्येष्टी क्रिया स्वरूप माँ के शव पर अक्षत एवं पुष्प समर्पित कर दिए। पापा की चिता के पास ही माँ का भी अग्नि-संस्कार किया गया। इस बार छोटी जेनी रो भी नहीं सकी। वड निश्चेष्ट एवं निर्विकार खड़ी रही। इन हृदयविदारक दृश्यों को वह अपने आपको संभालकर देखती रही। क्या करें क्या न करें की स्थिति। कुछ भी नहीं पता। एक अधिकारी भाव। राधा बुआ हर समय उसके साथ थी। जेनी खाना नहीं खा रही थी और उसे ठीक से नींद भी नहीं थी। ये सब देखकर राधा बुआ ने समझाया प्यारी –
बिटिया जेनी निराश मत हो। ईश्वर का द्वार हमेशा बंद नहीं रहता। एक न एक दिन वह खुलेगा ही। मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हारी बुआ मेरे लिए तुम हो…

राधा बुआ अकेली रहती है। उनका कोई आसरा नहीं था। बगल के घरों में जाकर काम करने से उन्हें जो कुछ मिलता है उससे बुआ अपनी जीविका चलाती है। उस जगह के सभी घरों के विशेष अवसरों पर राधा बुआ का होना घरवालों के लिए बहुत जरूरी है। उन्हें लोग इतना चाहते हैं कि राधा बुआ के बिना कोई मांगलिक कार्य नहीं हो सकता था। चाहे जन्मोत्सव हो, शादी हो या मृत्यु संबन्धी कार्य ।

अपनी युवावस्था में ही माँ-बाप की मृत्यु से अनाथ हो गई वाली… फिर अपने नामा के आश्रय में जीने को मजबूर अभागिन…. फिर मामा के शराबी बेटे से शादी करने को विवश….. जिंदगी में गम ही गम थे… संध्या होने पर शराब के नशे में मस्त डोकर आनेवाला रत्नाकर, रत्न तो केवल नाम में ही था। अपनी फिसलती धोती को पकड़-पकड़, लड़खड़ाकर आने वाला यह शख्स… राधा बुआ के मन में के नरा देता। हालाँकि नामी की मृत्यु तो सालों पहले हो चुकी थी पर बेटे की इन सारी करतूतों को देखने सुनने का दुर्भाग्य मामा को मिला। ये बेहद निराश थे। उन्होंने ऐसा सोचा कि शादी होने पर रत्नाकर ठीक हो जाएगा। उसके चरित्र में बहुत कुछ बदलाव आ जाएगा। लेकिन कुछ भी बदलाव नहीं हुआ। रत्नाकर जैसा था, वैसा ही रहा। शादी के बाद भी उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं आया। अभागी राधा बुआ की स्थिति बद से बदतर हो गयी। दारू पीने के बाद आए तो वह पागल जैसा हो जाता था। रत्नाकर मारपीट करता एवं गालियाँ देता, सब यह सहती रही। जब राधा बुआ अकेली रहती थी तब वह स्वस्थ एवं चौन से रही। लेकिन अब पूरा का पूरा अस्वस्थ का वातावरण… डर एवं बेचैनी…

एक दिन सवेरे चाय पीने का समय था । पर रत्नाकर सोकर उठा नहीं। राधा बुआ उसे बुलाने गई तो उसकी चीख निकल गई। ऊँची आवाज सुनकर आस पड़ोस वाले दौड़कर आ गए। उन्होंने देखा रत्नाकर के मुँह से खून बह रहा है और वह बेहोश पड़ा है। जल्दी ही कुछ लोग मिलकर उसे गाड़ी में अस्पताल की ओर ले गए। लेकिन विधाता का निर्णय क्या है, केवल वही जानते हैं। सबसे बड़ा रैफरी वही है न? कहाँ खेल बंद करना, कहाँ जारी रखना है ये सब दो ही जानते हैं। रास्ते में ही रत्नाकर की इस दुनिया के खेल को विराम देते हुए वे लेकर गए। अपने मंगलसूत्र उतार कर रखने पर और उसकी मांग के सिन्दूर को पोंछ देने पर वहां इकट्ठे सभी नारियों के चेहरे में बहुत मातम की भावना थी। लेकिन राधा बुआ का मन एक अजीब दशा को पार कर रहा था । क्योंकि वह मन ही मन तसल्ली एवं राहत महसूस कर रही थी। जो भी हो, जन्म भर के एक शाप से मुक्त होने की प्रतीति उसे लगी। रत्नाकर के चलते-चलते अधिक दिन न हुए, मामा भी बेटे के पीछे-पीछे चल बसे। राधा बुआ अपने गांव की पंचायत से दी गयी रोजगार योजना में शामिल हुई। उनसे जोमजदूरी मिलती थी और आसपास के घरों में छोटी-छोटी सहायताएँ कर देने पर जो आनदनी मिलती थी, उससे अपनी जीविका चलाती थी।

मामा के मरने के बाद उस आधे एकड़ जमीन एवं उस छोटे घर की मालकिन बनकर वह चैन से जीती रही। अकेली होने पर भी बहुत तेज व्यक्तित्व की रही। अपमान भरी दृष्टि से तिरछी आंखों से उनकी ओर देखने की हिम्मत वहाँ किसी को भी नहीं थी। सभी के मन में उनके प्रति प्यार एवं आदर का भाव था। ईश्वर का नामजप एवं दूसरे लोगों की सहायता कर राधा बुआ अपने दिनों को काटती रही। सभी गांववासियों के लिए राधा बुआ एक आसरा थी। केवल यही ही नहीं, ममता की मूर्ति भी।

अपने मां-बाप के बिछोड से इस पृथ्वी पर अकेली पड़ी जेनी को बिल्कुल यह मालूम नहीं था कि क्या करें या क्या न करें। ऐसी छोटी लड़की जेनी को राधा बुआ ने अपना कर लिया। राधा बुआ को अब इस जगत् में कहने के वास्ते अपने लिए कोई नहीं है। ऐसी स्थिति में पलों को गिन-गिनकर काटनेवाली राधा बुआ ने सोचा कि जेनी उनके लिए ईश्वर द्वारा प्रदत्त इनाम है। उन्होंने जेनी को अपने साथ सटा लिया और कहा कि जेनी अब मैं तेरी देखभाल कर लूंगी। ऐसा कहकर जेनी को उसके घर से साथ लेकर राधा बुआ अपने घर में लायी। जेनी के किराए पर रहे घर की चाबी घर मालिक को देने पर जेनी की कपोलों से बहनेवाली अश्रुधारा ने वहाँ खड़े सभी लोगों के मन को पिघल कर दिया ।

साल एक-एक कर बीत चुका । ऋतुएं एक – एक डोकर चलने लगीं। आज जेनी एक अफसर के ओडदे पर विराजित हैं। नामूली धन्धा नहीं है। वह आई ए एस ऑफीसर बन गयी है। जेनी पढने में माहिर थी राधा बुआ को पास-पड़ोस के घर से जो पैसे मिले और अपनी पंचायत के ग्रामीण धंधा योजना से जो आमदनी निली उनके सहारे से जेनी को खूब पढ़ा लिखवा दिया। हमेशा राधा बुआ जेनी से पढ़ाई की बातें करती रहती । जेनी को पढ़ा रखने में राधा बुआ का जोश देखते ही बनता। जेनी नी हर एक कक्षा में अव्वल रही। स्कूल के अधिकारी लोग एवं अपने इलाके के लोगों के प्रोत्साहन एवं प्रेरणा से जेनी ने सुचारु रूप से एक-एक कक्षा में अच्छा अंक पाकर पार कर लिया। ऐसे चलते-चलते अंत में उसने ऐ ए एस की उपाधि भी हासिल की नई नियुक्ति पत्र हाथ में रखकर वह दूरदेखती ऐसी ही बैठी। ये सब देखने के लिएअब नां-बाप अपने पास नहीं है यह सोच उसके मन-तन को बहुत कटकती रही। दूर दिखाई देने वाला अपना घर… वहां पुराने घर की जगह पर नया घर आया … केवल वही एक बदलाव है। लेकिन जिस मिट्टी पर मां-बाप की चिरनिद्रा हैं उस मिट्टी की जगह पर कुछ भी हेर-फेर नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि माँ-बाप ने सभी की आँखों को चुराकर उस जगह पर सो रहे हैं। उस जगह को लोगों ने छुआ तक नहीं। जब कभी चाहे तब जाकर उनकी अंत्यविश्राम की जगह देख सकती है। जेनी के लिए यह एक बड़ी सांत्वना रही। उसे ऐसा लगा कि उसके नां-बाप दोनों वहाँ से हँसकर उसे अपनी ओर बुला रहे हैं। वह देखती ही रही….

तभी अचानक आइट पाकर जेनी ने मुड़कर देखा तो- “मैडम सब सामान गाड़ी पर चढ़ा दिया है और देखा तो…” पीछे ड्राइवर खड़ा है।
जेनी ने बताया आऊंगी…… – हां जाओ, मैं अभी
ऐसा कहते जेनी घर के भीतर गई। कमरे में पहुंचने पर जेनी ने जो दृश्य देखा था, वह उसकी आंखों को नम किए बिना नहीं रह पायी। रूई की गांठ जैसे बालों एवं झुर्रियोंवाले चेहरे से कूबड़ – सी कुर्सी पर बैठनेवाली राधा बुआ की सूरत…. उनके चेहरे पर खुशी है या अवसाद…. पहचान पाना बहुत मुश्किल लगा । जेनी के मन में ऐसी एक सम्मिश्र संवेदना हुई… जेनी ने उनके
पास जाकर बुलाया….. राधा बुआ…. आइए न… जाने का समय हो गया…”
तो राधा बुआ ने कहा- बेटी जेनी, आगे… मेरा दिन कितना बाकी है पता नहीं, इस घर और इस जगह को छोड़कर आने की बात मैं बिल्कुल सोच भी नहीं सकती। लेकिन मेरी लाडली को छोड़कर कैसे…. मैं उसके बारे में भी सोच नहीं सकती। इसीलिए मैं तेरे इट पर आने को तैयार हुई।”

ये सब सुनने पर जेनी को ऐसा लगा कि अपना मन काबू से बाहर आ जाएगा। उसने राधा बुआ को गले से लगाकर बताया….
राधा बुआ, सुनिए… राधा बुआ को अकेली छोड़कर मैं कहीं भी नहीं जाऊंगी। मेरे लिए राधा बुआ और राधा बुआ के लिए मैं …”
उन दोनों के गालों पर से बढ़ते आंसू ने सालों पहले की घटनाएँ याद दिला दी।
इनको विदा देने के लिए पड़ोस वाले सब इकट्ठे हुए थे। सभी यह देखकर अभिभूत हो
उठे थे कि कार के निकलने पर जेनी का हाथ राधा बुआ को कसकर पकड़ रखी थी। गद्गद भरे गले से एवं भाव विभोर मन से राधा बुआ की विदाई अपने घर और अहातों से थी तो जेनी की विदाई अपने मां-बाप के अंत्यविश्राम लेने की जगह से थी।

कार की पिछली सीट में जनी आंखे मूंदकर बैठी थी, तब अचानक जेनी को लगा कि अपने हाथों में कुछ गीलापन महसूस हो रहा है। तो वह जल्दी ही राधा बुआ की ओर देखा… तब उसने पाया कि राधा बुआ की आंखों से आंसू बह रह है। वह ठीक से बैठकर राधा बुआ के चेहरे को अपनी ओर सीधा करके पूछा-
“क्या हुआ बुआ? क्यों ऐसा ?”
राधा बुआ ने नर्माडत पीड़ा से कहा “जेनी बेटी, यदि तुम नहीं होती… तो मेरी हालत क्या होती….. ।
जेनी एक निर्विकार हँसी हँसने लगी ।
हंसकर उसने कहा- तो राधा बुआ यदि आप न होती तो……

उनके बीच का सन्नाटा ऐसा लगा मानो वह बहुत सारी बातें याद दिला रही हों । दिनकर अपनी परिपूर्ण प्रभा ढारकर विलसित हो रहा था। उस तप्त मध्याह्न में उन दो बैसाखियों को लेकर वह गाड़ी उसके गंतव्य की ओर….. जिंदगी के अगले सोपानों की ओर… मारुति के समान हवा को चीर कर तेजी से जा रही थी…. गाड़ी से भी तेज चल रहे थे दो हृदय, जो प्यार से, सांत्वना से एक दूसरे को पराजित करने में तुले थे… |

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