शुभ और अशुभ – डॉ राकेश कुमार सत्यश्री
शुभ और अशुभ को मानव के दो व्यावहारिक भावों के अंतर्गत स्पष्ट किया जा सकता है, यथा आवश्यकता और कामना। जब हम शारीरिक आवश्यकता के लिए भोजन करते हैं तो उसमें कुछ भी अशुभ नहीं है। परंतु जब भोजन का उद्देश्य स्वाद, सुख, अनुराग की तृप्ति मात्र हो तो वह अमर्यादित होकर न केवल स्वास्थ्य का नाश करता है बल्कि अपने व्यवहार को भी अशुभ बना लेता है। मनुष्य के सम्बन्ध में भोजन सम्बन्धी उपरोक्त निष्कर्ष जीवन के अन्य क्षेत्रो में भी लागू होता है। उच्च चरित्रवान व्यक्तियों का सात्विक और संयमी होना इसी दृष्टिकोण की पुष्टि करता है।
मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसके प्रत्येक क्रियाकलाप का कोई न कोई सामाजिक प्रभाव भी होता है। उसका असंयमित और अमर्यादित व्यवहार न केवल कर्त्तव्यपालन में बाधक है बल्कि इसमें अधिकारों के दुरुपयोग की प्रायिकता (संभावना) सदैव बनी रहती है। निःसंदेह तुच्छ अहं व्यक्ति को दम्भी और ईर्ष्यालु बनाता है जो मानवीय कर्तव्यों के पालन में बाधा उत्पन्न करता है। इससे व्यक्ति और समाज दोनों का ही अहित होता है। वर्तमान में उच्च पदों पर आसीन सक्षम अधिकारी जानबूझकर भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है, जो सामाजिक संस्कारों के मार्ग में एक बड़ा रोड़ा है। यही पहलू और भी अधिक दुखद बन जाता है जबकि समाज का एक बड़ा वर्ग उन्हीं का अनुचर बनकर उन्हीं के मार्ग पर जीवनयापन करने का प्रयास करता है। चेतना और शरीर में प्रगाढ़ सम्बन्ध है। चेतना में किसी तरह के अशुभ का समावेश शारीरिक क्रियाकलापों को भी अशुभ कर देता है। व्यक्ति समाज का एक अनिवार्य अवयव है। यदि समाज का सर्वांग हित या शुभ होगा तो व्यक्ति भी उससे अवश्य लाभान्वित होगा। यदि मनुष्य की अहं प्रवृत्तियाँ मात्र सुख भोग सिद्धान्त का अनुसरण करेंगी तो उसकी परिणति मानवता में अशुभ के रूप में ही होगी और यदि शारीरिक और मानसिक प्रवृत्तियाँ आत्म कल्याण और परहित के मार्ग पर चलेंगी तो उससे शुभ का उद्भव अवश्य होगा। फलस्वरूप आत्मिक शक्ति का विकास होगा। इस प्रकार शुभ और अशुभ मनुष्य में ही निहित है और इन दोनों में से चयन करने की उसे पूर्ण स्वतंत्रता है।