नौशेरा के शेर : ब्रिगेडियर उस्मान
भारत-पाक युद्ध 1947 के दौरान ब्रिगेडियर उस्मान ने 1948 में जब अपने देश के लिए कुर्बानी दी तब वे महज 36 साल के होने वाले थे लेकिन इस छोटे से जीवन में उन्होंने अपने पराक्रम से जो शोहरत हासिल की वह बहुत कम लोगों को नसीब होती है । वे संभवतः अकेले भारतीय सैनिक थे जिनके सिर पर पाकिस्तान ने 50,000 रुपए का ईनाम रखा था जिसकी कीमत आज तकरीबन 50 करोड़ रुपए बैठती है । 1948 में नौशेरा की लड़ाई के बाद उन्हें ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाने लगा था । ब्रिगेडियर उस्मान भारत के समावेशी धर्मनिरपेक्षता के सबसे जीवंत प्रतीकों में से एक हैं ।
आरम्भिक जीवन और कैरियर
उस्मान का जन्म 15 जुलाई 1912 को तत्कालीन संयुक्त प्रांत के बीबीपुर गाँव में हुआ था । उनके पिता काज़ी मोहम्मद फ़ारूक़ बनारस शहर के कोतवाल थे और उन्हें अंग्रेज़ सरकार ने ख़ान बहादुर का ख़िताब दिया था । जब उस्मान 12 साल के थे तभी उन्होंने अप्रतिम बहादुरी का परिचय देते हुए कुएं में कूद कर एक डूबते हुए बच्चे को बचा लिया था । भारतीयों के लिए कमीशन रैंक प्राप्त करने के सीमित अवसरों और गहन प्रतिस्पर्धा के बावजूद, वह 1932 में प्रतिष्ठित रॉयल मिलिट्री अकादमी, सैंडहर्स्ट में प्रवेश पाने में सफल रहे। बर्मा, क्वेटा, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रांत में भी उन्होंने अपनी सैन्य सेवाएं दीं ।
विभाजन के साये में निर्णय की परीक्षा
सैम मानेकशॉ और मोहम्मद मूसा, ब्रिगेडियर उस्मान के बैचमेट थे जो बाद में भारतीय और पाकिस्तानी सेना के चीफ़ बने । विभाजन के माहौल में बहुत से लोग उम्मीद कर रहे थे कि उस्मान पाकिस्तान जाना पसंद करेंगे लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का फ़ैसला किया । मोहम्मद अली जिन्ना और लियाक़त अली दोनों ने ब्रिगेडियर उस्मान के फैसले को बदलवाने का काफ़ी प्रयास किया; उनको तुरंत पदोन्नति देने का लालच भी दिया लेकिन उस्मान अपने फ़ैसले पर क़ायम रहे ।
कबाइलियों का कश्मीर पर ताबड़तोड़ हमला और ब्रिगेडियर उस्मान का अद्भुत सुरक्षा-कवच
अक्तूबर, 1947 में क़बाइलियों ने पाकिस्तानी सेना की मदद से कश्मीर पर हमला बोल दिया । 7 नवंबर को कबाइलियों ने राजौरी पर क़ब्ज़ा कर लिया और बहुत बड़ी संख्या में वहाँ रहने वाले लोगों का क़त्लेआम हुआ । 24 दिसंबर को क़बाइलियों ने अचानक हमला कर झंगड़ पर क़ब्ज़ा कर लिया । इसके बाद उनका अगला लक्ष्य नौशेरा था । 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान ने 4 जनवरी, 1948 को अपनी बटालियन को आदेश दिया कि वो झंगड़ रोड पर भजनोआ से क़बाइलियों को हटाना शुरू करें लेकिन ये असफल हो गया । उत्साहित होकर क़बाइलियों ने उसी शाम नौशेरा पर हमला बोल दिया लेकिन भारतीय सैनिकों ने उस हमले को विफल कर दिया । दो दिन बाद उन्होंने उत्तर पश्चिम से दूसरा असफल आक्रमण किया । फिर उसी शाम क़बाइलियों ने 5000 लोगों और तोपखाने के साथ एक और हमला बोला लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान के नेतृत्व वाली भारतीय सेना ने उसे भी विफल कर दिया ।
साम्प्रदायिकता, ब्रिगेडियर उस्मान का व्यक्ति-प्रबंधन और ऑपरेशन किपर
विभाजन के बाद फैले सांप्रदायिक वैमनस्य की वजह से कुछ सैनिक अपने मुस्लिम कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान की वफ़ादारी के बारे में निश्चिंत नहीं थे लेकिन उनके शानदार व्यक्तित्व, व्यक्ति-प्रबंधन और पेशेवर रवैये ने कुछ ही दिनों में हालात बदल दिए । जनवरी 1948 में लेफ़्टिनेंट जनरल करियप्पा ने नौशेरा का दौरा किया और उस्मान से एक उपहार माँगा कि वे नौशेरा के पास के सबसे ऊँचे इलाके कोट पर क़ब्ज़ा करें, क्योंकि दुश्मन वहाँ से नौशेरा पर हमला करने की योजना बना रहा है । ब्रिगेडियर उस्मान ने करियप्पा से उपहार देने का वादा किया ।
कोट नौशेरा से 9 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में था जो क़बाइलियों के लिए एक तरह से ट्राँज़िट कैंप का काम करता था । उस्मान ने कोट पर क़ब्ज़ा करने के अभियान को ‘किपर’ का नाम दिया क्योंकि करियप्पा इसी नाम से सैनिक हल्कों में जाने जाते थे । क़बाइलियों को ये आभास दिया गया कि हमला वास्तव में झंगड़ पर हो रहा है । इसके लिए घोड़े और खच्चरों की व्यवस्था की गयी । इस लड़ाई में हाथों और संगीनों का जम कर इस्तेमाल किया गया । एक बार कब्ज़ा करने के बाद दोबारा कोट पर कब्ज़ा करना पड़ा क्योंकि कुछ कबाइली घरों में छिपे हुए थे । इस तरह करियप्पा को किया गया वादा पूरा हुआ ।
कश्मीर की सबसे महत्त्वपूर्ण लड़ाई
6 फ़रवरी, 1948 को कश्मीर युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई । क़बाइलियों की तरफ़ से इस हमले में 11000 लोगों ने भाग लिया । 1 राजपूत की पलटन नंबर 2 ने इस हमले के पूरे आवेग को झेला । अंत में बचे हुए मात्र तीन सैनिकों ने तब तक लड़ना जारी रखा जब तक उनमें से दो सैनिक शहीद नहीं हो गए । सिर्फ़ एक सैनिक बचा था तभी वहाँ कुमुक पहुंच गई और उसने स्थिति को बदल दिया । अगर उनके वहाँ पहुंचने में कुछ मिनटों की भी देरी हो जाती तो तेनधार भारतीय सैनिकों के हाथ से जाता रहता । अभी तेनधार और कोट पर हमला जारी था कि 5000 पठानों के झुंड ने पश्चिम और दक्षिण पश्चिम की ओर से हमला किया लेकिन उसे भी भारतीय सैनिकों ने विफल कर दिया । इसके बाद पठान पीछे चले गए और लड़ाई का रुख़ बदल गया ।
सफ़ाई कर्मचारी और ‘बालक सेना’ की बहादुरी
क़बाइलियों के लगातार आने वाले जत्थों के हमले के दौरान जब भारतीय सैनिक पीछे हटने लगे थे तो 1 राजपूत पलटन के सफाई कर्मचारी ने एक घायल सैनिक के हाथ से राइफ़ल लेकर क़बाइलियों पर गोली चलानी शुरू कर दी । अविश्वसनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए उसने एक हमलावर के हाथ से तलवार खींचकर तीन क़बाइलियों को भी मार गिराया । इस अभियान में ‘बालक सेना’ की भी बड़ी भूमिका रही जिसे ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा में अनाथ हो गए 6 से 12 साल के बच्चों को शामिल कर बनाया था । नौशेरा की लड़ाई के दौरान इन बच्चों का इस्तेमाल चलती हुई गोलियों के बीच संदेश पहुंचाने के लिए किया गया था । लड़ाई ख़त्म होने के बाद इनमें से तीन बालकों को बहादुरी दिखाने के लिए सम्मानित किया गया और प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें सोने की घड़ियाँ ईनाम में दीं ।
राणा प्रताप जैसा प्रण
10 मार्च, 1948 को मेजर जनरल कलवंत सिह ने झंगड़ पर पुन: क़ब्ज़ा करने के आदेश दिए । ब्रिगेडियर उस्मान के सैनिक क़बाइलियों के बंकर में पहुंचे तो उन्होंने पाया कि वहाँ खाना पक रहा था । 18 मार्च को झंगड़ भारतीय सेना के नियंत्रण में आ गया था । दिसंबर, 1947 में भारतीय सेना के हाथ से झंगड़ निकल जाने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने राणा प्रताप की तरह प्रण किया था कि वो तब तक पलंग पर नहीं सोएंगे जब तक झंगड़ दोबारा भारतीय सेना के नियंत्रण में नहीं आ जाता । जब भारतीय सेना का नियन्त्रण पुनः स्थापित हुआ तो ब्रिगेडियर उस्मान के लिए एक पलंग मंगवाई गई ।
3 जुलाई 1948 को क़बाइलियों ने ब्रिगेड मुख्यालय पर गोले बरसाने शुरू कर दिए । ब्रिगेडियर उस्मान ने मेजर भगवान सिंह को आदेश दिया कि वो तोप को पश्चिम की तरफ़ घुमाएं और प्वाएंट 3150 पर निशाना लें जहाँ पर कबाइलियों की ‘आर्टलरी ऑब्ज़रवेशन पोस्ट’ थी । उसके बाद वहाँ से आ रही गोलाबारी शांत हो गयी । गोलाबारी रुकने के बाद उस्मान ब्रिगेड कमांड की पोस्ट की तरफ़ बढ़कर सिग्नल वालों से बात कर रहे थे । तभी 25 पाउंड का एक गोला पास की चट्टान पर गिरा । उसके उड़ते हुए टुकड़े ब्रिगेडियर उस्मान के शरीर में धँस गए । ब्रिगेडियर उस्मान शत्रु से एक लम्बी लड़ाई लड़ते हुए भारत-भूमि के लिए शहीद हो गए ।
नेहरू और माउंटबेटन जनाज़े में शामिल हुए
ब्रिगेडियर उस्मान के शहीद होने के बाद जब भारतीय सैनिकों ने सड़क पर खड़े हो कर अपने ब्रिगेडियर को अंतिम विदाई दी तो सब की आँखों में आँसू थे । देश के लिए अपना जीवन खुशी-खुशी न्योछावर कर देने वाले इस शख़्स के सम्मान में दिल्ली हवाई अड्डे पर बहुत बड़ी भीड़ जमा हो गई थी । सरकार ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी । उनके जनाज़े को जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में दफ़नाया गया । उस समय भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ मौजूद थे ।
महावीर चक्र
इसके तुरंत बाद ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को युद्धभूमि में उनके अनुपम शौर्य और साहस के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र देने की घोषणा की गई । झंगड़ मे उसी चट्टान पर ब्रिगेडियर उस्मान का स्मारक बना हुआ है जहाँ वे शहीद हुए । फिल्म निर्देशक उपेंदर सूद और रंजन कुमार सिंह ने भारतमाता के इस सपूत को याद करते हुए 2004 में 50 मिनट की एक फिल्म बनाई थी, जिसकी काफ़ी प्रशंसा हुई थी । ब्रिगेडियर उस्मान देश को अपने आदर्श व्यक्तित्व से सदैव प्रेरित करते रहे हैं, न सिर्फ़ सीमा पर दृढ़निश्चयी पराक्रम और साहसी नेतृत्व कौशल से बल्कि सामाजिक-साम्प्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाले अपने व्यक्ति-प्रबंधन और न्यायप्रियता से भी । ऐसे शूरवीरों को राष्ट्र सदा अपनी स्मृतियों में जीवित रखता है जिससे देशवासियों में राष्ट्र के प्रति अदम्य ऊर्जा सदैव संचरित होती रहे । इसीलिए ऐसे वीरों की जयकार करने का आह्वान ‘दिनकर’ हर कलम से करते हैं –
“पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रहीं लू लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल”
जय हिन्द!