कथा बैठकजीवियों की
चित्रगुप्त अवैतनिक अधिकारी | धर्मराज के लेखपाल का हमनाम
अरे तुम फिर बैठ गए? जब देखो तब तुम तो बैठ जाते हो? इतना आलस ठीक नहीं, कभी-कभी खड़े भी रहा करो?
मैंने विस्मित हो अपनी आत्मा को देखा तो वो भी हमको हिकारत भरी निगाहों से इसे देख रही थी, जैसे इस संसार में केवल हम ही बैठे हैं, बाकी तो सभी खड़े हो भाग रहे हैं!
मैंने अपनी प्रिय आत्मा से पूछा ” देवीजी! कम से कम तुम तो हमें समझने का प्रयास करो, अब तुम भी इस तरह देखोगी तो हम कहाँ जाएँगे?
मेरी आत्मा ने मुझसे कहा ” तुम इतने आलसी काहे हो? जब देखो तब कहीं भी बैठ जाते हो, खड़े होने का नाम ही नहीं लेते हो, एक बात समझ लो इस समाज में आलसी लोगन का कछु इस्थान नाही है।”
मैं बोला ” अरे मैं आलसी नहीं हूँ, बस थोड़ी देर बैठ गया हूँ, उसमें भी तुम लोगन को दिक्कत होए रही, अरे हम इंसान हैं कौनहूँ कोल्हू के बैल नाही हैं और फिर संसार में सिर्फ हम ही नाही बैठे हैं, बड़े बड़े पदों पर भी लोग बैठे हैं, सफेद हाथी सरीखे हजारों आयोग जाँच करने के लिए बैठे हैं, लिपिक (क्लर्क) और अफसर फाइल पर बैठे हैं और तो और हमारे न्यायाधीश लोग न्यायालयों में
लाखों फैसलों और रिपोर्टों पर बैठे हैं। ” मेरी बात सुनकर मेरी आत्मा ने पहली बार कदम पीछे खींचे और शायद ये कारनामा वीर महाराणा प्रताप के हल्दी घाटी युद्ध जीतने से भी बड़ा था। (क्या कहा इतिहास? अरे भाई उस इतिहास पर थोड़ी देर आप बैठ जाइए)
मेरी आत्मा ने मुझसे कहा ” आप जरा विस्तार से बताएँ, कौन-कौन कहाँ-कहाँ बैठा है और अपने पापों को थोड़ा कम करने का प्रयास करें।
“मैंने हँस कर कहा “तो चलो अब तुम भी आराम से बैठ कर इतिहास के कुछ बड़े बड़े बैठकजीवियों के कारनामे सुनो।”
और फिर मैंने इतिहास के पन्नों से कुछ महान बैठकजीवियों का कच्चा चिट्ठा निकाल अपनी आत्मा के सामने
कुछ यूँ रखा-
केंद्र सरकार और राज्य सरकारें
भारत देश के लोकतंत्र को बचा कर रखना और उसको पल्लवित करना सरकारों का उत्तरदायित्व है जिसमें केंद्र और सभी राज्य सरकारें आती हैं। आश्चर्य की बात तो ये है कि सभी तरह की सरकारों ने ये जिम्मेदारी विपक्ष पर डाल कर इतिश्री कर ली, खैर इस मुद्दे को किसी और दिन के लिए छोड़ते है।
आज बताते हैं कि हमारी ये सरकारें कितनी बड़ी बैठकजीवी हैं? दिन, महीने, साल नही बल्कि दशकों तक बैठी रहती हैं! क्या कहा? मैं कुछ भी बोले जा रहा हूँ? अरे नाही देवीजी, नीचे प्रस्तुत उदाहरण देख लीजिए, फिर खुद ही आपको भरोसा हो जायेगा।
1. वोहरा समिति की रिपोर्ट और बैठकजीवी केंद्र सरकार:
“सरकारें आएँगी, जाएँगी, पार्टियाँ बनेंगी, बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए” ये ऐतिहासक कथन हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलजी का है जो उन्होंने संसद में एक बहस के दौरान दिया था।
हमको नाही पता कि हमारे राजनीतिज्ञ और नेताओं ने उनकी बात का कितना अनुसरण किया लेकिन एक बात तो सत्य है लेकिन वोहरा समिति की रिपोर्ट को किसी भी सरकार ने उजागर करने की जहमत नहीं उठाई। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकारों ने अटलजी के उपर्युक्त कथन को कुछ ऐसे ले लिया कि ” सरकारें आएँगी, सरकारें जाएँगी पर वोहरा समिति की रिपोर्ट खुलनी नहीं चाहिए।”
अरे बताए देते हैं कि वोहरा समिति क्या थी और क्या थी उसकी रिपोर्ट, तनिक धीरज तो रखो, देखत नाही हम बैठे हैं। तो मेरी आत्माश्री, हुआ यूँ कि 12 मार्च 1993 वीभत्स मुंबई (तब की बंबई) धमाके के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने पूर्व केंद्रीय गृह सचिव श्री एन एन वोहरा की अध्यक्षता में एक समित गठित की थी। जिसका काम था राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों (देशी और देशी परिवर्तित विदेशी) की साँठगाँठ और गठबंधन का पता लगाना और देश में पनप रहे अपराध के वटवृक्ष की जड़ों में मट्ठा डालना।
खैर वोहरा जी और उनके साथी कोई बैठकजीवी तो थे नहीं, जो आलस से काम करते, जैसा कि अन्य समितियाँ करती हैं। वो निकले मिल्खा सिंह जैसे फरटेदार धावक और केंद्र सरकार की आशा के विपरीत 6-7 महीनों में ही राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के काले गठबंधन की कहानी अपनी रिपोर्ट में लिखकर केंद्र सरकार को अक्टूबर 1993 में सौंप दी।
कहा जाता है कि उस रिपोर्ट से कुछ ऐसे कुत्सित गठजोड़, देश विरोधी षड्यंत्र और तथ्य निकल कर सामने आए कि तत्कालीन केंद्र सरकार के हाथपैर फूल गए और वो फूले हुए शरीर से रिपोर्ट पर ऐसे बैठी कि आज तक नहीं उठ पाई। तब से लेकर सरकारें आती गईं, जाती गईं लेकिन किसी भी सरकार ने वोहरा समिति की रिपोर्ट के ऊपर से अपनी तशरीफ को नहीं उठाया। मजे की बात ये है कि हर विपक्षी नेता इस रिपोर्ट को लेकर आवाज उठाता है, लेकिन सत्ता में आते ही वोहरा समिति की रिपोर्ट पर रखे स्टूल पर जा कर अपनी तशरीफ दीर्घकाल के लिए टिका देता है।
ऐसा क्या था इस रिपोर्ट में? अरे आत्माजी, हमाओ दिमाग खराब न करो, जाके गूगल बाबा पर खोज कर लो। वहाँ सबकछु मिल जायेगो
2. बैठकजीवी राज्य सरकारें:
बैठने के मामले में सरकार, सरकार होती है। मजे की बात यह है कि सरकार खुद ही निर्णय लेती है कब भागना है और कब बैठना है? कुछ भी घोटाला हो या बवाल हो तुरंत एक कमेटी किसी पूर्व नौकरशाह या फिर पूर्व न्यायाधीश साहब की अध्यक्षता में गठित कर दी जाती है। उसके बाद तो पहले तो वह कमेटी ही बैठी रहती है मामले के ऊपर।
खुदा ना खाश्ता अनेकों समय विस्तार के बाद अगर वह कमेटी अपनी रिपोर्ट दे भी दे, तब भी सरकार उसके ऊपर अपनी तशरीफ रख देती है और तब तक उसके ऊपर से नहीं हटती जब तक उस रिपोर्ट को दीमक ना चाँट लें। क्या कहा ? ऐसी बैठकजीवी सरकारों के नाम बताऊँ? अरे मोरी मैया, गूगल बाबा से पूछ ले, सब राज्य सरकारें एक से बढ़कर बैठकजीवी हैं।
भारतीय न्यायालय
बैठकजीवी होने के मामले में हमारे मीलाई भी किसी से पीछे नहीं है। तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख, दामिनी फिल्म में सनी द्वारा बोला गया यह डायलॉग सिर्फ डायलॉग नहीं है बल्कि हमारे न्यायतंत्र की • वर्तमान हालात पर एक करारा व्यंग्य है। खैर हम यहाँ न्यायतंत्र में देरी की बात नहीं कर रहे बल्कि महान न्यायतंत्र के बैठकजीवी चरित्र की बात कर रहे हैं।
बैठकजीवी होने के मामले में न्यायालय भी पीछे नहीं है। अब आज ही की बात ले लो उच्चतम न्यायालय ने बोल दिया है कि कोरोना की वैक्सीन लेना या नहीं लेना निजता के मूलभूत अधिकार में आता है और हर पापी का एक भविष्य है। चलिए मान लिया सही है लेकिन क्या न्याय देने में व्यक्तिगत विचारों को स्थान मिलना चाहिए? त्वरित न्याय तो हमारे माननीय न्यायालय चीन्ह चीन्ह (चुनचुन) कर देती ही है, मौलिक अधिकारों के हनन मामलों में भी इनका रवैया एक सा नहीं रहता है, इनके कृत्य देखकर लगता है कि कुछ लोगों के मौलिक अधिकार दूसरे लोगों से अधिक महत्वपूर्ण है। अब आप शाहीनबाग और किसान आंदोलन के मामलों में उच्चतम न्यायालय का रुख ही देख लीजिए। इन मामलों में उच्चतम न्यायालय का कहना था कि आंदोलन करना नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, बिलकुल सही कहा लेकिन उन नागरिकों के अधिकारों का क्या जिनके अधिकारों का हनन इन आंदोलनजीवियों ने सार्वजनिक सड़क को जाम करके किया? नहीं उन लोगों के अधिकार महान न्यायाधीश को दिखाई नहीं दिए। और तो और शाहीनबाग और किसान आंदोलन मामलों में कमेटी बना दी गई और हुआ क्या कमेटी का? अरे होना क्या था, चाय पानी बिस्कुट और तशरीफ। शाहीन बाग कमेटी का गठन जितना रोचक था उतने ही रोचक उसके सदस्यगण वो तो भला हो कोरोना का, जिसकी वजह से रास्ता खुल गया नहीं तो आम जनता आज भी न्यायालय के भरोसे बैठी रहती अपने घरों पर?
अरे हाँ, मैं तो बैठकजीवी न्यायालय के बारे में बताना भूल ही गया। अब हुआ कुछ यूँ की सरकार के कृषि कानून के विरोध में किसानों ने रास्ता जाम कर दिया और मामला न्यायालय में पहुँच गया और न्यायालय ने कृषि कानून की संवैधानिक समीक्षा करने के स्थान पर उस कानून को ही निलंबित कर दिया (शायद पहली बार हुआ क्योंकि यह करना उसके अधिकार में नही आता था) और साथ में ही एक कमेटी भी बना दी और उस कमेटी ने आनन-फानन में काम किया और अपनी रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को सौंप दी और हमारा उच्चतम न्यायालय भी बैठकजीवी बन कर, रिपोर्ट के ऊपर अपनी तशरीफ रख कर बैठ गया और भूल गया। केंद्र सरकार ने कृषि कानून वापस भी ले लिए, तब भी मीलार्ड की नींद नहीं टूटी और बाद में सूत्रों के हवाले से पता चला कि 86% किसान उन कृषि कानूनों के पक्ष में थे। अब पता नहीं कि माननीय मीलाई उस रिपोर्ट को पढ़ना भूल गए या फिर वह रिपोर्ट ही कृषि कानून के पक्ष में थी, ये देखकर? ये वाक्य आप अपनी सुविधा के हिसाब से पूरा कर सकते हैं।
हमारा कहना तो सिर्फ यह था जब रिपोर्ट को सार्वजनिक ही नहीं करना था तो ये बैठक क्यों की और नागरिकों की मेहनत की कमाई को कमेटी के समोसों के ऊपर खर्च क्यों किया (और भी कुछ हो सकता है, मध्यमवर्ग वाले तो समोसे के ऊपर सोच ही नहीं सकते ) ।
मेरी आत्मा इन सब उदाहरणों को सुनकर सकते में आ गई और उसकी आँखें अश्रुओं से तुरंत ऐसे भर आईं, जैसे 120 रुपोंट का पेट्रोल स्कूटर में भर जाता है। वो भावुक होकर बोली ” हे मेरे प्राणनाथ, मुझे क्षमा कर दो और मैं आपको तो समझ ही नहीं पाई, आप तो शक्तिशाली सरकार और महान न्यायालय की श्रेणी वाले प्राणी हो। आप आराम से अपना आसन लगाएँ, मैं आपके लिए समोसे और पकोड़े लेकर आती हूँ।
आत्मा समोसे और पकोड़े कैसे लाएगी? अरे भाई, मेरी धर्मपत्नी ही मेरी आत्मा है। आपको क्या लगा सचमुच की आत्मा ?
हाहाहा ।
और हाँ, अब कभी भी किसी मुद्दे पर बैठने में शर्माना नहीं। इस देश में हमसे बड़े बड़े बैठकजीवी बैठे हैं।