पुरुस्कृत कहानी – इलज़ाम
वासुदेव जबलपुर के एक होटल में राजकमल चौधरी का उपन्यास मरी हुई मछली पढ़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन वह उपन्यास के कथानक पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मन बहुत खुश था। दूसरी बेटी मार्च महीने में पैदा हुई थी। यह बैंकर था, इसलिए, मार्च महीने की मशरूफियत की वजह वह बेटी के जन्म के समय पटना नहीं जा सका था।
मन मसोसकर रह गया था वह, नौकरी में इंसान नौकर बनकर रह जाता है। मन की कुछ भी नहीं कर पाता है। बड़ी बेटी के जन्म के समय में भी वह पत्नी के साथ नहीं था। इसी वजह से जब भी मौका मिलता है, पत्नी उलाहना देने से नहीं चुकती है। हालाँकि, उसे भी इसका बहुत ज्यादा अफसोस था. लेकिन उसकी भावनाओं व मजबूरियों को समझने के लिए पत्नी कभी भी तैयार नहीं होती थी।
भोपाल से पटना के लिए हर दिन ट्रेन नहीं थी। पटना-इंदौर एक्स्प्रेस सप्ताह में सिर्फ दो दिन चलती थी। इटारसी से किसी भी ट्रेन में आरक्षण नहीं मिल पा रहा था और वासुदेव को जनरल बोगी में सफर करने की हिम्मत नहीं थी। हालाँकि, बेरोजगारी के दिनों में वह जनरल बोगी में बड़े आराम से सफर किया करता था। एक बार तो वह डावडा से चेन्नई जनरल बोगीके दरवाजे पर बैठकर चला गया था और एक बार भीड़ की वजह से ट्रेन के बाथरूम को बंद कर कमोड में बैठकर बोकारो से गया तक का सफर तय किया था।
लोकमान्य तिलक टर्मिनल से पटना जाने वाली ट्रेन संख्या 13202 में जबलपुर से आरक्षित सीटें उपलब्ध थीं। इसलिए, उसने जबलपुर से टिकट काट लिया और भोपाल से जबलपुर बस से आ गया। ट्रेन शाम को थी, इसलिए, लंच करने के बाद वह उपन्यास पढ़ने के लिए कमरे की बालकनी में बैठ गया।
राजकमल चौधरी वासुदेव के पसंदीदा लेखकों में से एक थे. उसकी आँखें उपन्यास के पन्नों पर जरुर गडी थीं, लेकिन मन बेटी के चेहरे की कल्पना करने में लीन था, क्या मेरी जैसी होगी वड या फिर वाइफ जैसी, मेरे जैसा चेहरा न हो तो ठीक ही होगा, क्योंकि वासुदेव का चेहरा बहुत बड़ा था. इस वजह से बहुत लोग उसका मजाक उड़ाते थे, बदसूरत कहते थे लोग, ससुर जी ने भी एक बार उसे बेटी के सामने ही बदसूरत कह दिया था, लेकिन उसे लोगों की बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि उसकी नजरों में इंसान अपनी सीरत से पहचाना जाता है, न कि सूरत से, वह बमुश्किल उपन्यास के दो-तीन पन्ने पढ़ पाया था, जल्दी से ट्रेन आए और वह उड़कर पटना पहुँच जाये, उसके मन में बेटी के अलावा बस यही विचार उमड-घुमड़ रहे थे।
मोबाइल की घंटी बजने से उसकी तंद्रा भंग हो गई, उसे लगा है कि पत्नी का फोन है, जबलपुर पहुँचने के बाद से 5 बार उसका फोन आ चुका था, लेकिन मोबाइल देखा तो अकाउंटेंट का फोन था। वह चौंक गया, क्योंकि अवकाश स्वीकृत होने के बाद ही उसने हेडक्वार्टर छोड़ा था।
अकाउंटेंट ने घबराए स्वर में बोला, ‘सर शाखा में लालवानी सर आए हैं। मैंने कहा, ‘फिर इसमें घबराने की क्या बात है, सीनियर हैं, लेकिन हमारे पुराने मित्र हैं. चाय-नाश्ता करवाइए उन्हें। अकाउंटेंट ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, लालवानी साहब आपके द्वारा स्वीकृत किए गए लोन खातों व उनके दस्तावेजों की जाँच करने के लिए आए हैं।
यह सुनकर वासुदेव को झटका लगा, क्योंकि परसों की लालवानी सर परिहार सर के घर में हो रही पार्टी में मिले थे, लेकिन उन्होंने जांच के बारे में कुछ नहीं बताया था। डॉ. वासुदेव से यह जरूर पूछा था, सुना है. तुम छुट्टी पर पटना जा रहे हो। जबाव में वासुदेव ने कहा था, डॉ. छोटी बेटी का जन्म मार्च महीने में हुआ था, लेकिन क्लोजिंग के कारण उस समय घर नहीं जा सका था वह, इसलिए, 10 दिनों की छुट्टी में घर जा रहा हूँ, कुछ वक्त परिवार के साथ गुजारूंगा”।
वासुदेव अकेले ही रहता था। इसके पष्ठले उसकी पद-स्थापना भोपाल के बैरागढ़ में थी। जब उसकी बड़ी बेटी का जन्म हुआ था, तभी उसकी पोस्टिंग विदिशा जिले के सिरोंज तहसील में हुई थी।
उसने प्रबंधन और यूनियन दोनों से आग्रह किया था. उसकी पोस्टिंग या तो भोपाल से दिल्ली मुख्य रेल खंड के आस-पास कर दें या फिर भोपाल से इटारसीमुख्य रेल खंड के आस-पास, ताकि वह भोपाल से रोज अप-डाउन कर ले या फिर ऐसी जगह पोस्टिंगकरें, जहाँ अच्छी मेडिकल सुविधा उपलब्ध हो, ताकि जरुरत पड़ने पर वह बेटी का ईलाज करा सके, क्योंकि हाल ही में गुना से भोपाल ईलाज के लिए लाते हुए रास्ते में ही एक मुख्य प्रबंधक की मौत हो गई थी। हालाँकि, प्रबंधन और यूनियन वालों ने उसकी एक नहीं सुनी और कहा, “बैंक की सर्विस आल इंडिया होती है और देश के किसी भी कोने में तुम्हारी पोस्टिंग की जा सकती है, हम तुम्हारे हिसाब से तुम्हारी पद स्थापना नहीं कर सकते हैं”।
वासुदेव भावुक और संवेदनशील इंसान था। उसे इस बात का दुःख नहीं था कि उसके खिलाफ जाँच शुरू हुई है, दुःख इस बात का था कि लालवानी सर ने उसे जाँच के विषय में कुछ नहीं बताया, जबकि लालवानीसर से उसके मधुर संबंध थे, इसलिए, उसे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
वैसे, वासुदेव, जाँच की बात सुनकर जरा सा भी नहीं डरा था, क्योंकि उसने सारे लोन बैंक के दिशा-निर्देशों के अनुरूप स्वीकृत की थी। हाँ, पाइप लाइन के लिए दिये गए लोन में उसे इस बात की आशंका थी कि जाँच के समय किसान के पास पाइपमिलेगी या नहीं, क्योंकि गरीबी की वजह से छोटे किसान पाइप उधार लेकर सिंचाई करते थे। सिरोंज और लटेरी तहसील में पानी की कमी होने और सिंचाई की समुचित सुविधा नहीं होने की वजह से नदी या नहर या तालाब से पानी पाइप की मदद से खेतों तक लाना पड़ता था। चूँकि, वहां के अधिकांश इलाकों में भूजल नहीं था या बहुत ही नीचे था। इसलिए, इलाके में गिने-चुने कुएं थे। अधिकांश गाँवों में पीने का पानी टैंकर से जाता था।
वासुदेव की शाखा में सिरोंज और लटेरीदोनों तहसीलों के ग्राहक थे। कई बैंक वहां थे। इसलिए, प्रतिस्पर्धा भी बहुत ज्यादा थी। बिजनेस बढ़ाना आसान नहीं था। उसकी शाखा सिरोंज से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर सिरोंज और लटेरी तहसील के बीच थी। वह बस या बाइक से शाखा जाता था। शाखा में भी बैंक की एक बाइक थी। इसलिए, जिस दिन वह बस से शाखा जाता था, उस दिन बैंक की बाइक का इस्तेमाल वह गैर निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) वसूली के लिए करता था।
सुबह 6 बजे ही वासुदेव वसूली हेतु घर से निकल जाता था। गाँव जाकर वह सीधे मुखिया और सरपंच को चूककर्ता की सूची देकर कहता था, “पंचायत भवन में उन्हें बुलाकर पैसे जमा करने के लिए वे दबाव बनायें, अगर वे मदद करेंगे तो बैंक गाँव के जरूरतमंदों को कर्ज देने से कभी पीछे नहीं हटेगा, गाँव के विकास हेतु भी वह जरुरी कर्ज मुहैया करायेगा”। वासुदेव, कहे अनुसार काम भी करता था, वह कई गावों में युवकों को स्वरोजगार शुरू करने और डॉक्टरों को क्लीनिक शुरू करने के लिए लोन पास कर चुका था. इसके कारण, सरकारी योजनाओं वाले लोन के बजटीय लक्ष्य को भी वासुदेव हर साल आसानी से हासिल कर लेता था। जिला कलेक्टर के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री भी उसे इसके लिए सम्मानित कर चुके थे।
वासुदेव की यह रणनीति बहुत ही कारगर थी। इससे एनपीए की वसूली तो होती ही थी साथ ही साथ उसे डिपोजिट भी गाँव में मिल जाती थी और ऋण के अच्छे प्रपोजल भी। वह बीमा के प्रोडक्ट भी सुबह-सुबह गाँव में बेच देता था. गाँव वालों को घर में ही सारी बैंकिंग सुविधाएँ दे देता था। इसलिए, उसकी शाखा का बिजनेस बहुत तेजी से बढ़ रहा था।
वासुदेव ने दिसंबर महीने में ही डिपोजिट, एडवांस, बीमा और म्यूचुअल फंडका बजटीय लक्ष्य हासिल कर लिया और एनपीए को भी 55 लाख रुपए से कम करके 65 हजार रूपये के स्तर पर लाने में कामयाब रहा। एनपीए की शानदार वसूली के लिए बैंक की तरफ से उसे 1 लाख रुपए का पुरस्कार भी दिया गया और शाखा के हर स्टाफ सदस्य को 20-20 हजार रुपए की प्रोत्साहन राशि दी गई, ताकि सभी स्टाफ सदस्यों का मनोबल ऊँचा रहे और वे प्रोत्साहित होकर भविष्य में भी इसी तरह से शानदार प्रदर्शन करते रहें।
वासुदेव के प्रदर्शन से बैंक प्रबंधन बहुत खुश था और उन्हें उम्मीद थी कि वासुदेव शाखा के बिजनेस को और भी बढ़ा सकता है। इसलिए, उसे जमा और एडवांस में अतिरिक्त बजट दिये गए, लेकिन उसे भी वासुदेव ने मार्च से पहले ही पूरा कर लिया। हालाँकि, वासुदेव के प्रदर्शन से बैंक की अन्य शाखाओं के शाखा प्रबंधकों में खलबली मची हुई थी।
हर पी-रिव्यू मीटिंग में रीजनल मैनेजर (आरएम) वासुदेव की खुलकर तारीफ करते थे, जिससे अन्य शाखा प्रबंधकों के सीने पर साँप लोट जाते थे। वे वासुदेव की सफलता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। अपनी कमियों को छुपाने के लिए वे वासुदेव को रिश्वत-खोर साबित करने में लगे रहते थे। मुख्य शाखा के शाखा प्रबंधक अजित परिहार सर भी वासुदेव से बहुत चिढ़ते थे, जबकि वासुदेव उनसे पहले कभी नहीं मिला था। बिना मिले ही वे उसके दुश्मन बन गए थे।
परिहार सर, शाखा की ऊपर वाली मंजिल पर अकेले रहते थे और रोज बिल्डिंग की छत पर पार्टी करते थे। वह चाहते थे कि वासुदेव भी रोज उनकी पार्टियों में शिरकत करे और पार्टी को स्पॉन्सर भी करे। उनकी पार्टी में शराब और कबाब के साथ-साथ शिकवा शिकायत व गली-गलौज का दौर चलता था। जो उनकी पार्टियों में शिरकत नहीं करता था परिहार सर उसे किसी न किसी तरह से नुकसान पहुँचाने की कोशिश करते थे।
सिरोंज में भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की ब्रॉडबैंड की सेवा उपलब्ध थी और उसकी स्पीडभी बहुत अच्छी थी। इसलिए, वासुदेव ने तुरंत इसकी सेवा ले ली थी, क्योंकि वह रोज रात को पत्नी और बच्चों से वीडियो काल पर ढेर सारी बातें करता था। उसे दिनभर की दिनचर्या में से नई-नई और अनोखी सूचनायें निकालकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने का चस्का भी लग गया था, क्योंकि उसके पोस्ट पर हजारों लाईक और कमेट्स आते थे, जिसे देख व पढ़कर वह दिनभर खुश होता रहता था। गाँव, जंगल और पहाड़ से जुडी अनोखी जानकारियों व कहानियों को शहर वाले बहुत पसंद करते थे, गाँव से शहर पलायन करने वालों को यह सब कुछ ज्यादा ही पसंद था, क्योंकि वे इन सब को बहुत ही ज्यादा मिस करते थे।
जिंदगी में खालीपन न लगे, इसलिए, वासुदेव खुद को हमेशा व्यस्त रखने की कोशिश करता था। उसने इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) में व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर (एमबीए) में दाखिला ले लिया था। वासुदेव पहले 5 सालों तक मीडिया में काम कर चुका था और पढ़ने-लिखने का शौक उसे बचपन से था। बैंक में आने के बाद उसका पढ़ना-लिखना छूट गया था। चूँकि, वह अकेले रह रहा था, इसलिए मौके का फायदा उठाते हुए नियंत्रण अधिकारी से अखबारों में लिखने की अनुमति लेकर फिर से लिखना शुरू कर दिया.
भोपाल से प्रकाशित होने वाली पायनियर और हिंदुस्तान टाइम्स के एडिटर को वह यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहा कि वह अखबार के रिपोर्टरों से बेहतर रिपोर्टिंग कर सकता है, क्योंकि एनपीए की वसूली करने के क्रम में जंगल व पहाड़ के अलावा सिरोंज और लटेरी तहसील के गाँव-गाँव में घूमता है, इसलिए, वह ग्रामीणों और वंचित तबके व आदिवासियों की समस्याओं, पेड़ों की अवैध कटाई, जंगली जानवरों के शिकार आदि मामलों की अच्छी समझ रखता है।
शुरू में दोनों अखबारों के संपादकों ने ना-नुकूर किया, लेकिन वासुदेव की रिपोर्ट पढ़ने के बाद दोनों को समझ आ गया कि वासुदेव के अखबार से जुड़ने से अखबार की विविधिता और विश्वसनीयता में इजाफा होगा और उसका फायदा अंततः उन्हें ही मिलेगा। अतः दोनों संपादकों ने वासुदेव को साप्ताहिक स्तंभ लिखने की अनुमति दे दी।
एमबीए का असाइनमेंट और अखबार के लिए कॉलम लिखने की वजह से वासुदेव बहुत बिजी हो गया। फिर भी, वह परिहार सर की एक-दो पार्टी में शामिल हुआ और पार्टी को स्पॉन्सर भी किया, लेकिन मामले में परिहार सर की अपेक्षा बढ़ती गइ। इसलिए, एक दिन उसने परिहार सर को साफ-साफ कह दिया कि न तो वह उनकी पार्टी में आयेगा और न ही पार्टी के लिए पैसे देगा।
वासुदेव के बागी तेवर को देखकर परिहार सर उसके पीछे पड़ गए। वह हर जगह वासुदेव की शिकायत करने लगे। क्षेत्रीय कार्यालय में भी उन्होंने आरएम सहित सभी डेस्क अधिकारियों के कान भरना शुरू कर दिया। आरएम कान के कच्चे थे, इसलिए, परिहार सर उन्हें भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि वासुदेव लोन के एवज में रिश्वत लेता है, जिससे बैंक की साख खराब हो रही है। वह बढ़-चढ़ करके लोन इसलिये बॉट रहा है, ताकि उसे अधिक से अधिक रिश्वत मिले।
क्षेत्रीय कार्यालय में उसके कुछ मित्रों ने उसे परिहार सर की कारस्तानी के बारे में बताया, लेकिन वासुदेव यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं हुआ कि परिहार सर इस हद तक नीचे गिर सकते हैं। उसे इस बात का भी विश्वास नहीं था कि परिहार सर की शिकायत पर आरएम सर कोई कार्रवाई करेंगे, क्योंकि आरएम सर, उसके काम से बहुत खुश थे, उसके उम्दा प्रदर्शन के लिए वे कई बार उसे पुरस्कृत भी कर चुके थे और मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उसने कभी भी कोई गलत काम नहीं किया था।
जाँच की कार्रवाई शुरू होने पर वासुदेव को अपनी गलती का अहसास हुआ, लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था। परिहार सर, जरुर एक नाकारा और नाकाबिल अधिकारी थे, लेकिन साथ मेंयभोपाल मंडल के अधिकारी यूनियन के जेनरल सेक्रटरीभी थे। इसलिए, उनकी भोपाल मंडल में खूब चलती थी। नए अधिकारी भले ही उन्हें नहीं जानते थे, लेकिन पुराने लोग उन्हें जानते भी थे और उनसे खौफ भी खाते थे।
खबर सुनने के बाद वासुदेव का मन कसैला हो गया और उसके मन में व्यवस्था को लेकर कई तरह के सवाल घूमने लगे, जैसे, आरएम सर ने बिना सोचे-समझे जाँच का आदेश क्यों दिया, क्या सच से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है, क्या बैंक किसी के हनक और स्वार्थ से ऐसे ही चलता रहेगा आदि।
वासुदेव खुद को भी कोस रहा था, मसलन, क्यों बैंक की बेहतरी के बारे में उसने सोचा, वह भी अन्य सहकर्मियों की तरह नौकरी करने का कोरम पूरा करता तो अच्छा रहता, वह क्यों उत्साहीलाल बना, वह परिहार सर के रास्ते पर क्यों नहीं चला, कामचोर लोग जी-हजूरी करके यहाँ प्रोन्नतितो ले ही रहे हैं। हालाँकि, यह सब सोचकर वासुदेव को ही मानसिक रूप से तकलीफ हो रही थी।
छुट्टी से लौटने के बाद जब वह लालवानी सर से मिलने की कोशिश की तो वे भी मिलने से कन्नी काटने लगे, बहुत पीछे पड़ने पर मिले तो जरुर, लेकिन होठों को सीले रह। दो महीने हो गए, लेकिन जाँच रिपोर्ट नहीं आई। वासुदेव बाहर से खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन अन्दर से वह बहुत ही ज्यादा कमजोर हो गया था।
मीडिया में अच्छी साख होने की वजह से जाँच की खबर अखबारों की सुर्खियाँ नहीं बन सकीं, लेकिन यह खबर आग की तरह क्षेत्रीय कार्यालय और उसके कार्यक्षेत्र में आने वाली सभी शाखाओं के साथ-साथ सिरोंज और लटेरी तहसील में फैल गई। थाना प्रभारी से वासुदेव की अच्छी-जान-पहचान थी। बावजूद इसके, एक दिन चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा, मैनेजर साहब, आप तो छुपे रुस्तम निकले, सुना है, बहुत माल कमाया है आपने, हमलोगों को एकाध बार पार्टी ही दे देते, बहुत दिनों से ब्लैक डॉग का स्वाद नहीं चखा है मैंने। नहीं, आपको गलत जानकारी मिली है, कह कर वासुदेव दांत निपोरने लगा, लेकिन अन्दर से उसे ऐसा लग रहा था कि जमीन फट जाये और वह उसमें समा जाये।
वासुदेव की सरल व सहज व्यवहार की वजह से इलाके में लगभग लोग उसे जानते थे। आज यही जान-पहचान वासुदेव पर भारी पड़ रहा थी। किसी से भी मिलने पर उसकी आँखों में मौजूद सवालों का जबाव देने में वासुदेव असमर्थ था। उसे हमेशा यही लगता था कि सबकी आँखे उसे घृणा और हिकारत भरी नजरों से देख रही हैं. शाखा के सामने वाली चाय की दुकान पर वह लोगों को उसके रिश्वत लेने के बारे में खुसर-फुसरकरते हुए अक्सर देखता था, लेकिन वह सबकुछ देखकर भी अनदेखी कर देता था।
परिवार के साथ में नहीं रहने की वजह से वह पूरी तरह से टूट चुका था। हालाँकि, पत्नी उसके मनोबल को ऊँचा रखने के लिए लगातार प्रयास कर रही थी। फिर भी, कमजोर पलों में एकाध बार उसने आत्महत्त्या करने की भी सोची, लेकिन बेटियों का चेहरा सामने आने पर उसने अपने मन को नियंत्रित कर लिया।
एक दिन वासुदेव जाँच के बारे में पता करने के लिए क्षेत्रीय कार्यालय गया। आरएम के एक खास बंदे से मिला, जिसके साथ उसके भी अच्छे संबंध थे। पहले तो वह भी कुछ भी बताने से बचने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वासुदेव ने बहुत आग्रह किया तो उसने कहा, चिंता नहीं करो, तुमने 85 किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी), 8 ट्रेक्टर लोन और 7 पाइप लाइन के लोन किये थे, जिनमें से सिर्फ 2 पाइप लाइन लोन में करीब 85 फीट पाइप किसानों के घर पर नहीं मिले, बाकी सभी लोन खाते एवं दस्तावेज सही हैं, जिस 2 ऋणी किसानों के पास पाईप नहीं मिले हैं, उन्होंने लिखित में बयान दिया है कि मिसिंग पाइप उनके रिश्तेदार के पास दूसरे गाँव में है, इस तरह, तुम्हारे खिलाफ लगाये गए सारे आरोप बेबुनियाद साबित हुए हैं, तुम्हें कोई सजा नहीं होगी और तुम्हारे निर्दोष होने की चिट्टी इस सप्ताह तुम्हें मिल जायेगी।
यह सुनकर वासुदेव राहत की एक लंबी साँस ली और तुरंत फोन करके पत्नी को यह खुश खबरी साझा करते हुए कहा कि वह आज ही मंदिर जाकर ईश्वर का शुक्रिया अदा करे. शनिवार की शाम को वासुदेव को क्लीन चिट वाला पत्र मिल गया, पत्र का मजमून पढ़ते-पढ़ते वह सोचने लगा कि जिस तरह से विगत 2 महीनों से वह तनाव में जी रहा था, उसमें कमजोर दिल वाले इंसान की मौत भी हो सकती थी, भले ही, मामले में उसे क्लीन चिट दे दिया गया, लेकिन उसकी ईमानदारी का कत्ल तो कर ही दिया गया, दामन पर लगे दाग को धोने के लिए कितनों को वह यह चिट्टी दिखायेगा या सफाई देगा?
इस वाकये से वासुदेव को यह भी समझ में आ गया कि किसी को दुश्मन बनाने के लिए उसे नुकसान पहुंचाना जरूरी नहीं है, अनजान व्यक्ति भी बिना किसी कारण का किसी का भी दुश्मन बन सकता है। आरोप लगाने वाले को इस बात की कतई परवाह नहीं होती है कि उसके झूठे इल्जाम से किसी की मौत भी हो सकती है, परिवार तबाह हो सकता है आदि ।
न्यायधीश भी आरोपी का बिना पक्ष सुनेयसजा दे रहा है, वह यह नहीं सोच रहा है कि आरोप गलत साबित हुआ तो आरोपी का क्या होगा, उसके द्वारा भोगे गए सजा की कौन भरपाई करेगा, क्या उसकी ईमानदारी पर कोई दोबारा विश्वास कर पायेगा आदि.
मौजूदा समय में देश और दुनिया में रोज हजारों लोग झूठे आरोप लगने की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन उनकी हत्या करने वालों को कभी भी किसी भी कठघरे में खड़ा नहीं किया जा रहा है?