नीव के पत्थर

गहरे रिश्तों की कहानीः घर का सहायक

आज की व्यस्ततम जिंदगी में घर में काम करने वाले विश्वसनीय लोगों की बहुत कमी है। आमतौर पर जो नौकरी या व्यापार करते हैं, उन्हें घर संभालने वाला कोई व्यक्ति मिल जाए तो यह सौभाग्य की बात होती है। नींव के पत्थर में इस बार मैं ओमप्रकाश महतो नामक एक शख्स की जिंदगी में हुए संघर्षो की दास्तान प्रस्तुत कर रहा हूं सभी जानते हैं कि जो घर में रहकर सहयोग करते हैं उनसे घर के स्वामी की जिंदगी कितनी आसान हो जाती है। बाहर के काम को करने के बाद व्यक्ति एकदम थक जाता है और उसे सुकून की रोटी चाहिए तथा सोने के पहले जो भी सुविधा उसके लिए अनुकूल है। उसका इंतजाम तो होना चाहिए साथ ही साथ संकट की घड़ी में साथ देने वाले व्यक्ति की भी भूमिका यह अदा करते हैं।

इस तरह से देखा जाए तो ऐसे व्यक्ति की भूमिका जीवन में बहुत बड़ी होती है। अपने निजी जीवन में भी मैंने देखा है कि ऐसे व्यक्ति संतान की भूमिका तक अदा कर देते हैं। बहुत घरों का अनुभव है मुझे। जब घर की संताने अति व्यस्त हो जाती हैं तो बुढ़ापे में देखने वाला कोई नहीं होता है। ऐसी स्थिति में यही सहारा बनते हैं। समाज के लोगों को यह सोचना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों की कद्र वह अवश्य करें और समान व्यवहार करें।

हमारे आज की कहानी का नायक है ओमप्रकाश महतो, जो बहुत ही निर्धन परिवार से आता है। पांच भाई और एक बहन तथा एक माता-पिता से परिपूर्ण इस परिवार के मुखिया का नाम है लूखो महतो। यह एक घर में दरबानी का काम किया करते थे। परिवार में निर्धनता थी। कम आमदनी थी। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में उनके बच्चों ने दूसरों के घरों में काम कर अपना गुजारा किया। ओमप्रकाश महतो अपने घर में सबसे छोटा है और यह बहुत बचपन से ही अपने घर में नहीं बल्कि दूसरों के घर में रहकर अपना समय गुजरता रहा है। बहुत ही सीधा और सरल व्यक्ति है यह। सांसारिक ज्ञान इसके पास उतना नहीं है।

उसने पढ़ाई लिखाई में मन लगाने की कोशिश की किंतु कामयाब नहीं हो सका क्योंकि घर की जिम्मेदारियां थीं। अपनी छोटी सी आमदनी में माता-पिता के लिए भी इसकी अपनी जिम्मेदारियां थी। एक बहन भी थी जिसकी शादी करनी थी। बड़ा परिवार होने के नाते थोड़ा बहुत घर भी बनाना था तो अपने आमदनी का थोड़ा हिस्सा अपने पास रखकर अधिक हिस्सा अपने माता-पिता को भेज दिया करता था।

मैंने पूछा उससे कि खाली समय तुम कैसे बिताते हो तो उसने बताया कि जब से मोबाइल आया है तब से उसका समय मोबाइल देखने से कट जाता है। मैंने उसकी पसंद के बारे में पूछा तो उसने बताया कि भोजपुरी गाने उसे बेहद पसंद है। दो वर्ष पहले उसकी शादी हो गई। एक पुत्र भी पिछले वर्ष हुआ है। मैंने एक बात महसूस की कि है कि जितने छली कपटी लोग होते हैं और धनलोलुपता जिनके पास जितनी ज्यादा होती है वह उतने ही अशांत रहते हैं। जबकि छोटी आमदनी वाले लोग अपेक्षाकृत शांत रहते हैं। ओम प्रकाश महतो के पास न घर है न जमीन जायदाद और न कोई आगे उनकी कोई ऐसी इच्छा है।

एक सरल जिंदगी बिताने की कामना जरूर है। उसके पास एक गहरी नींद है, जो बड़े-बड़े लोगों को नसीब ही नहीं होती है। नींद लाने में उसे एक मिनट से अधिक का वक्त नहीं लगता है। जबकि बड़े-बड़े लोग बिस्तरों पर करवट बदलते बदलते थक जाते हैं। नींद की गोलियां भी खाते हैं, तब भी मन लायक नींद नहीं आती है। सुकून भरी जिंदगी का सबसे बड़ा फायदा यही है। यहां पर बस दीवार फिल्म का एक संवाद याद आ जाता है जब अमिताभ बच्चन अपने भाई शशि कपूर से कहते हैं कि मेरे पास बंगला है, गाड़ी है और तुम्हारे पास क्या है? तो उसका जवाब शशि कपूर देते हैं कि मेरे पास मां है। सही मायने में देखा जाए तो यही असल जिंदगी है।

भटकाव भरी जिंदगी में तरक्की चाहे जितनी हो व्यर्थ है क्योंकि आदमी धरती पर तो पाप कमाता ही है ऊपर वाले की दृष्टि में भी बहुत गिर जाता है। अतः ओम प्रकाश महतो की जिंदगी से यह सबक संसार के सारे लोगों को लेना चाहिए कि जिंदगी जितनी सरल होती है उतनी ही सुखद होती है।

मैंने ओमप्रकाश महतो से पूछा कि जिंदगी में किसे अपना आदर्श मानते हो तो उसने बताया कि उसके पिता उसके आदर्श हैं। क्योंकि बड़े ही संघर्षों से उन्होंने अपने सभी बच्चों को पाला है। शिक्षा भले ही नादी हो पर संस्कार अवश्य दिया है। बड़ों का सम्मान करना, आदेश का त्वरित पालन करना वह अपना कर्तव्य समझता है।

उसकी दुनिया इसकी पत्नी रूपा कुमारी तथा इसका छोटा सा बच्चा है। पिता इसके बीमार रहते हैं। यथा संभव यह उनकी सहायता भी करता है। बीच-बीच में घर की जिम्मेदारियों को भी संभालता है तथा अपने बड़े भाइयों के ऊपर कोई आर्थिक संकट आता है तो वह उनकी सहायता भी करता है। परिवार में धन भले ही न हो, आपस में प्रेम है। सभी एक दूसरे के साथ खड़े रहते हैं और शहरों की तुलना में गांव में पास पड़ोसियों का भी साथ मिलता जुलता रहता है। शहरों में आज अजनबियत के लिबास पहने लोग एक दूसरे को पहचान भी नहीं पाते हैं और यही कारण है कि शहर में रहने वाले लोगों के पास भौतिक सुविधाएं अवश्य होती है मगर आत्मिक शांति शून्य होती है।

नींव का पत्थर स्तंभ में जब इसके साक्षात्कार के संबंध में मैंने इससे बातें की तो पहले यह शरमाया, किंतु जब इसने खुलकर के मुझसे बातें करनी शुरू की तो मुझे आश्चर्य हुआ कि इसके भीतर की जो ईमानदारी और सच्चाई है, काश सभी लोगों में होती तो दुनिया कितनी अच्छी होती?

डॉ विनय भारद्वाज
आध्यात्मिक कथावाचक, ज्योतिषी, मनोवैज्ञानिक विश्लेषक

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