शूरवीरो की गाथा

भारत के गुमनाम नायक – ढाकुर स्व. श्री रामदेनी सिंह

अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए
देशवासियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होकर अपने अपने स्तर पर योगदान दिया था। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक अनेक जगहों पर आंदोलन किए गए थे और उसमें सभी ने बढ़चढ़ कर भाग लिया था। कुछ को छोड़कर ज्यादातर सपूतों को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जिसके वो हकदार थे।

कैफे सोशल अपने हर संस्करण में इन्हीं गुमनाम हुए वीर सपूतों को याद कर उनके द्वारा भारत माता को स्वतंत्र कराने में उनके योगदान को याद करते आ रहा है। इसी श्रंखला में इस बार हम विहार राज्य के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी “ढाकुर रामदेनी सिंह” को याद कर रहे हैं।

विहार राज्य के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी ढाकुर रामदेनी सिंह जी का जन्म सन् १९०४ में सारण के मलघाचक गांव में हुआ था।
मलघाचक गांव उस समय नरम दल और गरम दल के नेताओं की शरण स्थली था। इस गांव में महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार भगत सिंह जी जैसे नायक कई बार आए थे।

सन् १९२३ में सरदार भगत सिंह अपने साथियों सहित “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” की विचारधारा का प्रसार करने मलघाचक गांव में आए थे। यहां पर भगत सिंह के विचारों से ढाकुर रामदेनी सिंह अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके साथ मिलकर काम करने की ठान ली। कहा जाता है कि यहां पर भगत सिंह जी और रामदेनी सिंह जी की आपस में कुश्ती भी हुई थी।तब भगत सिंह जी ने ढाकुर रामदेनी सिंह जी की वहादुरी की सराहना करते हुए उन्हें सारण का एरिया कमांडर मनोनीत कर दिया।

लाहौर षडयंत्र, चौराचोरी कांड और काकोरी षडयंत्र के चलते उनमें आक्रोश पैदा हुआ और महज १७ वर्ष की आयु में अंग्रेजों के खिलाफ काम करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आपने वैशाली एरिया कमांडर श्री योगेन्द्र शुक्ल के साथ मिलकर अंग्रेजों को लूटकर धन एकत्रित करने की योजना बनाई।एक दिन हाजीपुर रेलवे स्टेशन पर आ रही ट्रेन में डाका डाल कर वहां तैनात स्टेशन मास्टर और गार्ड को मारकर अंग्रेजों का खजाना लूट लिया और सारण की और निकल पड़े। जैसे ही अंग्रेजी को सूचना मिली तो उन्होंने हाजीपुर पुल पार करने से पहले ही सारण व वैशाली पुलिस ने पुल को दोनों तरफ से घेर लिया।रामदेनी सिंह और योगेन्द्र शुक्ल दोनों साइकिल पर थे,जब उन्होंने देखा कि पुलिस ने पुल घेर लिया है तो दोनों साइकिल सहित गंडक नदी में कूद गए और साइकिल सहित तैरते हुए पटना साहिब घाट पर सुरक्षित पहुंच गए।

अंग्रेजी हुकूमत ने इन दोनों को पकड़ने का बहुत प्रयास किया, नाकाम होने पर इन पर नगद इनाम घोषित कर दिया।
एक दिन जब रामदेनी सिंह गंगा जी में स्नान कर सूर्य भगवान को अर्घ्य दें रहे थे, तभी एक ग्रामीण ने इनाम के लालच में आकर पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस ने यहां आकर नदी में जाल फैंक कर उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। मुजफ्फरपुर जेल में एक विशेष अदालत गठित कर उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।

४ मई १९३२ को उन्हें फांसी दे दी गई। जब उन्हें फांसी दी जा रही थी, उससे पहले उन्होंने फांसी के फंदे को चूमकर इंकलाब जिंदाबाद! वंदे मातरम्, भारत माता की जय का जय घोष कर फांसी पर झूल गए। बाद में उनके शव का अखाड़ा घाट मुज्जफरपुर में दाह संस्कार कर दिया।

इस प्रकार खुदीराम बोस के बाद फांसी की सजा पाने वाले ढाकुर रामदेनी सिंह दूसरे वलिदानी थे।
आज कितने अफसोस की बात है कि विहार प्रांत के पहले अमर वीर सपूत की कोई भी तस्वीर हमारे पास नहीं है और शायद समाधि।

सरकारी स्तर पर इस अमर वलिदानी की शौर्य गाथा को बनाए रखने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए।
वहां न कोई तुरबत है और न इंकलाबे-मशाल
उनके मजारों पर दिलकश नजारा है।।


कैफे सोशल ढाकुर रामदेनी सिंह जी को शत् शत् नमन करता है।

संजीव जैन
संपादक – मंडल
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