इक्कीसवीं सदी में पर्यावरण की समस्या
डॉ अम्बे कुमारी
सहायक प्राचार्या
हिन्दी विभाग
मगध विश्वविद्यालय, बोधगया, बिहार
इक्कीसवीं सदी विज्ञान की सदी है।विज्ञान के नवीन आविष्कारों ने मानव को अधिकाधिक सुख — सुविधा युक्त जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया, परंतु विकास के इस अंधी दौड़ में मनुष्य ने इस सृष्टि के साथ बेहद खिलवाड़ किया। मानवजाति ने उपभोक्तावाद के अंधी दौड़ में प्रकृति को बुरी तरह प्रभावित किया, उसका क्षय किया, जिसका दुखद परिणाम अब मानवजाति के सामने आ रहा है।
मानव इस सृष्टि में एक छोटा– सा प्राणी है, जिसने अपने बुद्धि के बल पर इस सृष्टि में बहुत उपयोगी और अनुपयोगी कार्यों का भी संपादन किया है।इसी परिप्रेक्ष्य में मानव ने प्रकृति को बुरी तरह प्रभावित किया है।
हमारे वेदों में प्राचीन भारतीय ऋषि पृथ्वी को माता की तरह आदर देते थे और स्वयं को उसका पुत्र मानते थे — ‘ माता भूमि पुत्रोअ्हम पृथिव्यां ‘ जिसके चलते उस समय का वातावरण सुरम्य और पवित्रता लिए हुए था।परंतु विकास के इस अंधी दौड़ में मानव ने प्रकृति से माता और पुत्र का वह भावमय रिश्ता समाप्त कर लिया और स्वयं को प्रकृति का स्वामी मान उसका अधिकाधिक दोहन करने लगा,जिसका दुष्परिणाम प्रकृति के सभी अंग — अवयवों पर दृष्टिगोचर होने लगा है।
जल का अधिकाधिक दोहन होने से पानी के स्तर में भारी गिरावट आई है, जिसके चलते पानी पृथ्वी तल के काफी नीचे चला गया है, परिणामतः भारत हीं नहीं विश्व के कई देश पानी की गहन समस्या से जूझ रहे हैं।पानी की एक — एक बूंद के लिए लोगों को घंटों लाईन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा है।भारत में 1947 से 2002 के बीच पानी की औसत वार्षिक उपलब्धता प्रति ब्यक्ति 70% से कम होकर 1822 घन मीटर रह गई है।भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन हरियाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में एक समस्या का रुप ले चुका है।
वनों की अंधाधुंध कटाई ने मानवजाति के लिए बड़ी विषम परिस्थिति पैदा कर दी है।बार–बार अमेजन जैसे जंगलों में आग लग जाने के कारण पृथ्वी का आक्सीजन का स्तर प्रभावित हो रहा है।वस्तुतः अधिकाधिक पेड़ लगाकर मानवजाति को इस विषम समस्या का समाधान समय रहते अवश्य ढूंढना होगा,तभी मानवजाति का जीवन धरती पर सुरक्षित रह सकता है।
वायु प्रदूषण भी खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है।वाहनों और उद्योगों के धुएँ के उत्सर्जन से इसका प्रदूषण का स्तर बहुत ऊँचे स्तर पर चला गया है।बड़े शहरों में वायु प्रदूषण इस कदर बढ़ रहा है कि अब यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दिए गए मानक से लगभग 2.3 गुना तक हो चुका है।
भारत में भूमि प्रदूषण भी ब्यापक पैमाने पर कीटनाशकों और उर्वरकों के साथ–साथ क्षरण की वजह से हो रहा है।
तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण भी पर्यावरण पर बोझ आने के कारण पर्यावरण प्रभावित हो रहा है।
भारत हीं नहीं पूरे विश्व में पर्यावरण और उसके गंभीर खतरों को लेकर विश्व मनीषा चिंतित है, और इसके प्रदूषण स्तर को कम करने के लिए प्रयासरत है, इसके लिए कई प्रकार के कानून बनाए गए हैं।पर्यावरण के मुद्दों पर जनहित याचिका और न्यायिक सक्रियता भारत के सुप्रीम कोर्ट से परे फैली हुई है।यह अलग — अलग राज्यों के उच्च न्यायालयों में शामिल है।सुंदरलाल बहुगुणा जैसे बड़े — बड़े पर्यावरणविद भी इसको सुधारने की दिशा में प्राणपण से प्रयत्नशील थे और आज भी अनेक पर्यावरणविद कार्यरत हैं।
पृथ्वी का निवासी होने के कारण हम सभी मनुष्य को पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गंभीरता से कार्य करने की आवश्यकता है, तभी हमारी यह धरती हरी — भरी और जीवन प्रदायक बनी रह सकती है।मानव जीवन योग्य इस पृथ्वी नामक ग्रह को अपने कार्यों से जीवन योग्य बनाए रखे इसी में उसकी बुद्धि की सार्थकता है।अन्य ग्रहों पर जीवन हो या न हो परन्तु पृथ्वी नामक इस ग्रह पर जीवन है और हमें बड़ी मेहनत और संवेदनशीलता के साथ उसे बचाए रखना है।