नीरज चोपड़ा का “हिंदी में पूछ लो, जी”
ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर भारत को एथलिटिक खेलों में पहला पदक दिलाकर 100 वर्षों में इतिहास रचने वाले नीरज चोपड़ा का एक पुराना साक्षात्कार वाइरल हो रहा है जिसमें एक एंकर जब उनसे अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछते हैं तो वे कहते हैं, “हिंदी में पूछ लो, जी।”
यह एक बहुत बड़ी बात है क्योंकि यह देश के निवासियों के भाषाई आत्म-बल को जगाती है, उनके भाषाई प्रेम को दर्शाती है। आज नीरज चोपड़ा को कौन नहीं जानता है? वे खेल क्षेत्र के लिए आशा की नई किरण हैं। उनकी यह पहल बहुत बड़ा संदेश है।
हालाँकि, आप सभी को यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगेगी, पर मुझ जैसे हिंदी प्रेमी को इस घटना ने जाने-अनजाने महात्मा गांधी की याद दिला दी। जब स्वतंत्रता के बाद बीबीसी पत्रकार उनसे अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछते हैं तो वे कहते हैं, “जाओ जाकर दुनिया को कह दो गांधी को अंग्रेज़ी नहीं आती।”
गांधी जैसा जिगरा सबका नहीं होता। फिर भी नीरज चोपड़ा ने दुनिया को बहुत बड़ा संदेश दिया है। उन्होंने कहा कि हिंदी बोलने वालों को किसी भी प्रकार की हीन भावना से ग्रसित होने की आवश्यकता नहीं है। “यदि हम हिंदुस्तान से हैं तो गर्व से हिंदी बोलो।”, हाल के एक साक्षात्कार में उन्होंने पिछली घटना को समझाते हुए कहा।
कुछ लोगों के लिए पूर्वोत्तर जैसे मिज़ोरम की मुख्य भाषा अंग्रेज़ी लगती है पर अब जब भारतीय महिला खिलाड़ियों का उनके गौरवमयी प्रदर्शन के लिए साक्षात्कार लिया जा रहा है तो उसमें मिज़ोरम की महिला खिलाड़ियों की शानदार हिंदी को देखकर लगा कि वास्तव में हिंदी सबकी भाषा है। सबको जोड़ने की भाषा है।
भाषा केवल संवाद या रोजगार का माध्यम नहीं बल्कि देश के आत्म-बल का प्रतीक भी होता है। आज यदि देखें तो हर स्तर पर अंग्रेज़ी या हर बात में हिंदी के विकृत रूप ‘हिंग्लिश’ का प्रयोग या चलन है जो ज्यादातर मामलों में हीनता बोध या अज्ञानता की उपज के कारण ही है।
ऐसे लोगों के लिए हिंदी केवल ‘यूज़ एंड थ्रो’ की भाषा बन गई है। गुलाम मानसिकता के कारण अंग्रेज़ी उन्हें श्रेष्ठतर लगती है। अंग्रेज़ी शासन की मानसिकता रही कि प्रत्येक देशी चीज़ को निकृष्ट मानो, हाँ यह अलग बात है कि साथ में चोरी से देशी चीजों का दोहन भी करो।
स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारी सोच लगभग वही रही। इसी सोच की उपज है अंग्रेज़ीवादी मानसिकता। यह सोच विष के रूप में हमारी परंपरा, भाषा, विचारों, व्यवस्था सभी को बैसाखी आधारित बना रही है। यह समस्या अब अधिक विकराल हो रही है क्योंकि जिस पीढ़ी ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी, देखी, महसूस की, वह अब दिवंगत हो रही है।
बाकियों के लिए हिंदी या अन्य पक्ष बेकार की बातें हैं। ऐसे में हमारी भाषा, परंपरा, विरासत के क्षय होने का डर है। इसे पूरे भारतीय समाज के लिए समझना आवश्यक है कि हम सब अपनी भाषा, व्याकरण, शब्द, प्रयोग आदि के महत्व को समझें।
इस हेतु अंग्रेज़ी वर्गवाद का विरोध आवश्यक है और सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हिंदी हमारे समाज में सम्मान से रहे। उसे मूल अधिकार मिले, उसे इंवेट मैनेजमेंट का हिस्सा न बनाया जाए। जो बनाए उसका प्रतिकार हो।
बाकी तो जो हो रहा है उसे सब देख ही रहे हैं। सब कुछ सरकारें नहीं करतीं, कुछ जन दबाव भी आवश्यक है। इस प्रकार हम स्वतः समझ सकते हैं कि नीरज चोपड़ा ने कितना बड़ा कार्य किया है। आइए हम सब भी प्रत्येक स्तर पर अपनी भाषा को सम्मान दें।
अंग्रेज़ी तो गुलामी के व्यामोह से उपजी भाषा है। यह आपको अपनी संस्कृति से दूर करती है और भारत में तो यह सांस्कृतिक आक्रमण का हथियार बनती जा रही है। अंग्रेज़ीवाद की मानसिकता करोड़ों भाषाई विकलांगों को जन्म दे रही है लेकिन भारत और भाषा को बचाना हमारे हाथ में है।
डॉ साकेत सहाय भाषा-संचार-संस्कृति विशेषज्ञ एवं संप्रति पंजाब नैशनल बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक-राजभाषा के रूप में कार्यरत हैं ।