1857 की क्रांति- बाल शहीद मैना कुमारी
3 सितम्बर 1857 बिठूर में एक पेड़ से बाँधकर 13 वर्ष की लड़की को अंग्रेजों ने जिंदा ही आग के हवाले कर दिया, धूं धूं कर जलती वो लड़की, उफ तक न बोली।
ये लड़की थी नाना साहब पेशवा की दत्तक पुत्री मैना कुमारी। जिसे 164 वर्ष पूर्व 3 सितंबर के दिन आउटरम नामक ब्रिटिश अधिकारी ने जीवित जला दिया था।
1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा। भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया। उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।
मैना नानासाहब की दत्तक पुत्री थी। वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें ? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगे और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयाँ आयें अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था। ऐसे में मैना ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।
नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत क्रूरता का व्यवहार करते हैं। फिर मैना तो एक कन्या थी। अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी। उसने अस्त्र शस्त्र चलाना भी सीखा था। उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूँ मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है। अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।
पर कुछ दिन बाद ही अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा। इस पर मैना बाहर आ गयी। सेनापति हे नाना साहब के दरबार में प्राय आता था। अतः उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता हो गयी थी। मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका, पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति है विवश था। अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।
पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी। जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े वह वहाँ से गायब हो गयी। सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगी और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया। सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी। अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।
पर मैना जीवित थी रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ? उसे ज्ञात नहीं दा कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहीं तैनात हैं। ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।
अंग्रेजों ने नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित किया था। जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था। उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है। अत पहले उसे प्यार से समझाया गया, पर मैना चुप रही यह देखकर उस कर जनरल ने बालिका को जीवित जला देने की धमकी दी पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई और मौन रही।
अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बाँधकर जलाने का आदेश दे दिया। निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तीन सितम्बर, 1857 की रात में तेरह वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी। इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।