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पुरुस्कृत कहानी – रहस्य

 

         नाटा कद, गोल थुलथुल भरा चेहरा जिसको सदा बढ़ी रहने वाली दाढ़ी घेरे रहती । सिर पर छोटे लेकिन सदा खड़े रहने वाले बाल, थोड़ी निकली हुई तोंद पर अटका हुआ पैंट तथा उसके ऊपर तीन चौथाई पेट और सीने को ढके हुए रोंयेदार , बांहों वाली बनियान, शरीर को किसी कदर ढंके रहती । पूरे बदन एवं कपड़ों पर कोल डस्ट की इतनी परतें चढ़ी रहती कि उनके मूल रंग रूप की खोज कर पाना दुष्कर कार्य था, अत: उन्हें कोयले के काले रंग का ही मानने के लिए विवश होना पड़ता था । पैर पर हवाई चप्पल जो कि टूटते और घिसते हुए जब बिल्कुल ही पैर पर न रुक पाती तब बदली जाती । यही हश्र कपडों का होता जब वे फटते फटते बदन को ढंक ही न पाते तब विवशत: बदले जाते । ठिगने कद और लापरवाही से शरीर का ध्यान न रखने के बावजूद  उसका अच्छा हट्टाकट्टा शरीर था जो कि शायद चार आदमियों की खुराक अकेले खा कर हजम कर लेने के फलस्वरूप था या फिर छ: आदमियों के बराबर श्रम अकेले कर लेने की क्षमता के कारण था । कालरी (कोल माइंस) की जिस ट्राली को छ: मजदूरों का ग्रुप 8 घंटे में बामुश्किल कोयलों के टुकडों से भर पाता था, उसे वह अकेले ही 8 घंटे में कोयलों के टुकडों से भर देता और वह भी चिंघाडते हुए । यह चिंघाड़ ऐसे विचित्र स्वर की थी जो कि जंगली हांथी या फिर वनमानुष की चिंघाड़ से मिलती जुलती थी । वैसे देखा जाये तो वह शख्सियत भी इंसान कम बनमानुष ही अधिक प्रतीत होती थी, और उसकी वह चिंघाड़ उसकी उपस्थिति की परिचायक थी । उसके द्वारा देखा जा रहा फुटबाल का मैच हो, सिनेमा हाल में रात्रि का सेकेंड शो हो या फिर अन्य कोई भी अवसर हो, उत्तेजना के छडों में वातावरण में गूंजती हुई उसकी चिंघाड़ उसकी उपस्थिति का बोध करा ही देती थी ।

              कोल माइंस में बतौर लोडर ( खदान में बारुदी विस्फोट के बाद कोयले के टुकड़ों को ट्राली में लोड करने वाले श्रमिक) 8 घंटे  जम कर मेहनत के साथ काम करने के बाद शराब के नशे मे धुत्त रहने एवं कच्चा-पक्का, खाद्य-अखाद्य सभी को खा कर हजम करने के बाद किसी भी सार्वजनिक उत्सव या मनोरंजन केंद्र में (जिसमें से  प्रतिदिन सेकेंड शो में सिनेमा देखना उसकी आदत में शुमार था) बिताता और फिर देर रात वह नशे में धुत्त मदहोश हो कर सोता । उसका वास्तविक नाम क्या था ? इस प्रश्न का सही उत्तर तो शायद उसके नौकरी के रिकार्ड के कागजात ही दे सकते थे लेकिन उसका प्रचलित नाम “खोका” तथा “बटाचार” था। उसे खोका, ऐई खोका, अबे खोका जैसे संबोधनो से संबोधित किया जाता था । “खोका” संबोधन बंगला भाषा में “लडका” के लिए प्रयोग किया जाता है तथा उसके दैनिक कार्यकलाप में उसके द्वारा प्रयोग की जाने वाली बंगला-हिन्दी मिश्रित भाषा से यह बात पक्की तरह से साबित हो जाती कि वह बंगाली है तथा दूसरा नाम “बटाचार” जो कि उसके कार्यक्षेत्र में प्रचलित था के उद्गम की खोज करना एक विवाद का विषय था । कुछ लोगों का मानना था यह नाम उसके जाति नाम “भट्टाचार्य” से बिगड़ता हुआ “बटाचार” बन गया है तो कुछ लोगों का यह भी मानना था कि अच्छी खासी 30-35 वर्ष की जवानी की उम्र मे भी सामान्य कद से कम ऊंचाई वाले कद की वजह  से  वह शख्स व्यंजना में “बटाचार”  (एक बटा चार) संबोधन से संबोधित किया जाने लगा था ।    

                  उसके असली नाम, उसकी जाति, उसके परिवार, उसके मूल निवास स्थान सभी को लेकर उसके सहकर्मियों के बीच आये दिन अच्छी खासी बहस होती रहती, खोज बीन भी होती रहती, लेकिन इन बहसों, चर्चाओं से वह इस कदर उदासीन रहता मानो वे चर्चायें, वे बहसें किसी अन्य व्यक्ति के लिए हो रही हों और यदि उससे इस संबंध में कुछ पूंछा जाता, कुरेदा जाता तो वह ठठा कर हंस पडता या फिर चिंघाड़ उठता जिसे सुन कर कुछ लोगों ने उसका नाम “मिनी राक्षस” भी रख दिया था । लेकिन कालरी रिकार्ड में उसका स्थाई पता पश्चिमी बंगाल में मिदनापुर के पास के किसी ग्राम का लिखा हुआ था । पश्चिमी बंगाल से चल कर इतनी दूर मध्यप्रदेश के शहडोल जिले की कोतमा कालरी तक वह कैसे आ पंहुचा, क्यों आया ? इन प्रश्नों का स्वाभाविक उत्तर तो यही था कि वह अधिक से अधिक पैसे कमाने के लिए इतनी दूर से यहां आया है । उन दिनों कोल माइंस प्राइवेट थी अत: आसानी से नौकरी मिल जाती थी तथा खदान के अंदर जोखिम भरे कार्य की वजह से श्रमिको को पगार भी अच्छी खासी मिलती थी । लेकिन वह बतौर लोडर काम करते हुए तथा अच्छी खासी पगार उठाने के बावजूद अपनी पगार का लगभग एक चौथाई भाग ही अपने ऊपर खर्च करता बाकी पैसे वह क्या करता है सबके लिए जिज्ञासा का विषय था ।

               कोल माइंस की लेबर कालोनी “कालरी दफाई” में उसका घर  कोल माइंस का एक क्वार्टर था, जहां पर एक लोहे के पायों तथा प्लास्टिक के टूटे निवाड वाली झिलंग चारपाई जिस पर मालिक के वस्त्रों के अनुरूप ही गुठलारे गद्दे पर फटी मटमैली चादर, तेल के दाग़ से चीकट तकिया और धूल गर्द से गरमाये कंबल बिखरे रहते जो कि इस हालत में उनके मालिक की गंदगी से प्रदूषित होकर  पंहुचे हुये  प्रतीत होते थे । साढ़े तीन पांयो वाली एक कुर्सी जिसका चौथा पांया आधा ईंटों पर टिका हुआ था, एक घड़ा, कुछ बर्तन तथा एक कोने में कालरी की झिब्बी (कोयला उठाने वाली बड़ी बांस की टोकरी ),कुदाली एवं लोहे के टो वाले जूते पड़े रहते, जबकि  कमरे के शेष तीनों कोने दारू की खाली बोतलों, बीडी के अधजले टोटों, अंडों के छिलकों, मछली खाने के बाद फेंके गये उसके अवशेषों आदि से अटे रहते । कालरी से मिली लोहे की टेबल पर तमाम अगडम बगडम सामानों के साथ लोहे का हेलमेट, उस पर लगाई जाने वाली सर्च लाइट (कैप लैम्प), बैटरी आदि कालरी के काम के बाद विश्राम करते रहते । क्वार्टर मे शायद ही कभी झाडू  लगता हो तथा घड़े में भी तभी पानी भरा जाता जब वह चार पांच दिनों में बिल्कुल खाली हो जाता । जबकि शायद ही किसी ने कभी उसे स्वेक्षा से नहाते हुए देखा हो, इस बात की गवाह पूरे बदन एवं कपड़ों पर चढ़ी कोल डस्ट की परतें थी ।     

                     कालरी की लेबर कालोनी में बटाचार के क्वार्टर से कुछ दूरी पर स्थित स्टाफ कालोनी में डाक्टर हांलदार बी टाइप क्वार्टर में रहते थे । डांक्टर हांलदार कोलियारी के स्कूल में हेडमास्टर थे लेकिन वे अपने खाली समय में “ होम्योपैथी चिकित्सा” की प्रैक्टिस करते हुए “डांक्टर हांलदार” के नाम से जाने जाते थे । डांक्टर हांलदार का 11-12 वर्षीय एक पुत्र सुब्रतो हांलदार था लेकिन सब उसे “मिन्टू बाबा” या “खोका” के संबोधन से संबोधित करते । मिन्टू बाबा अत्यंत जिज्ञासू प्रवृत्ति का था ।  हाफ पैंट शर्ट पहने, नाक सुडकता हुआ वह हर चीज को गौर से देखता और समझने का प्रयास करता । उसको हर वह चीज अजूबा लगती जिसे वह समझ नहीं पाता । उसके लिए अपने बाबा की साबूदाना जैसी छोटी छोटी गोलिया अजूबा लगती । वह समझ नहीं पाता कि एक जैसी शक्ल की गोलियों को बाबा अलग अलग बीमारियों के लिए कैसे पहचान लेते हैं, तो उसके लिए अजूबा है उड़ती हुई रंगीन तितलियां, पानी में तैरती हुई बदखे, पानी के अंदर जिंदा रहने वाली मछलियां आदि आदि । उसकी जिज्ञासा रहती है कि तितली रंगीन क्यों होती है ?, वह उड़ती कैसे हैं ?, बदख पानी में डूबती क्यों नहीं ?,  तैरते कैसे रहती है ?, मछली पानी के अंदर जिंदा कैसे रह पाती है ?, आदमी हवा में उड़ क्यों नहीं पाता ? पानी के अंदर सांस क्यों नहीं ले पाता ? आदि आदि । इतना ही नहीं उसके लिए व्यक्ति की मानसिकता को भी लेकर प्रश्न उठते रहते हैं । मसलन आखिर उप्पल मैडम को खुशबू क्यों नहीं पसंद है ? शर्मा सर हरदम झल्लाते क्यो रहते है और वर्मा मैडम के आने पर एकाएक खुशमिजाज क्यों हो उठते है ? आदि । ऐसे जिज्ञासू “ मिंटू बाबा” ने जबसे “बटाचार” या “खोका” को देखा है तब से उसकी जिज्ञासा पूरी तरह बटाचार पर केन्द्रित हो गई है जो कि उनके घर (कोलियारी क्वार्टर) के पास ही रहता है। उसके मन में बटा चार को लेकर जिज्ञासा भी है तथा उसके वीभत्स  रूप को देखकर भय भी हैं । जबकि मिन्टू बाबा की मां अक्सर बटाचार की देखभाल करती, उसे साफ सुथरा रहने की नसीहतें देती, डांट फटकार भी करती तथा अक्सर उसके लिए खाने-पीने का सामान भी भेजती रहती है । बटाचार भी जब भी मिंटू बाबा की मां को देखता, लगभग साष्टांग दंडवत कर के प्रणाम करता,  “ओई अमार देवी मां” के चिंघाड़ के साथ । प्रतिउत्तर में मिंटू बाबा की मां नाक भौं सिकोड कर कहती “ ओई बाबा ! निशाचर ! दूरे थाक !  दूरे थाक  ! ओई मां ! कतो भीषण दुर्गंधों !” फिर उसे साफ सुथरा रहने, नहाने धोने की नसीहतें देती । ज़बाब में वह मध्दम स्वर की चिंघाड़ भरी हंसी के साथ मुंडी हिलाता रहता । 

             मिंटू बाबा रोज स्कूल जाते वक्त बटाचार के क्वार्टर के सामने से हो कर निकलते तो उन्हें बटाचार तुरन्त नींद से जाग कर मुंह फाड कर जमुंहाई लेते या कीचड़ भरी आंखों को हांथ से रगड़ते हुए नजर आता ( क्या पता ब्रस, दातून भी करता था या नहीं) तथा मिंटू बाबा को देखते ही हांथ हिला कर जोर से चिल्ला कर अभिवादन करता –“ओय ! ओय ! राजा बाबू !” ( मिंटू बाबा का नया नामांकरण “राजा बाबू” बटाचार द्वारा ही किया गया था जो कि बाद में घर की नौकरानी रानी, धोबी मिठुआ आदि ने भी अपना लिया था ।) । पहले तो इस संबोधन को सुन कर मिंटू बाबा डर जाता था तथा तेजी से स्कूल की ओर कदम बढ़ाने लगता, लेकिन फिर धीरे धीरे ( शायद अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति से बटाचार से दोस्ती करने की पहल करते हुए) प्रतिउत्तर में वह भी हांथ हिलाकर मुस्कुरा कर बटाचार का अभिवादन स्वीकार करने लग गया । धीरे-धीरे यह अभिवादन का दौर मिंटू बाबा एवं बटाचार के बीच दोस्ती की शुरूआत के द्वार खोलता चला गया ।

               अब कभी कभी मिंटू बाबा बटाचार के घर के सामने रुक कर उससे बात कर लेता । बटाचार भी मिंटू बाबा से बात करते वक्त बड़ी गंभीरता एवं समझदारी से उसके प्रश्नों का भरसक कोमल स्वर में उत्तर देता । उसने ही मिंटू बाबा की शंकाओं का समाधान करते हुए बताया कि तितलियां रंग-बिरंगे फूलों का रस पीती है, इसलिए इतनी खूबसूरत और रंगीन होती है । उसके पंख होते हैं इसलिए वे उड़ती है । आदमी के भी पंख होते तो वह भी उडता । उसने ही यह रहस्य खोला कि मछली पहले जमीन पर रहती थी तथा पेड़ पर चढ़ जाती थी, लेकिन उसका मांस इतना स्वादिष्ट था कि जमीन में रहने वाले आदमी, पशु, पक्षी सब उसको चट करने के लिए उसके पीछे ही पड़ गये तो वह फरियाद लेकर भगवान के पास गई । भगवान को भी लगा कि इस तरह लोग यदि इसे खाते रहे तो पृथ्वी पर से तो मछली की नस्ल ही खत्म हो जायेगी । अतः उसे वरदान दिया कि तुम पानी में जा कर रहो । तुम वहीं जिन्दा रहोगी, लेकिन जैसे ही पानी से निकल कर बाहर आओगी मर जाओगी । इसीलिए “मछली जल की रानी है जीवन उसका पानी है ।“

            दोस्ती की प्रगाढ़ता में विश्वास की जड़ें अधिक मजबूत होने पर एक दिन बटाचार ने  भरसक कोमल स्वर में मिंटू बाबा से पूंछा –“ राजा बाबू ! अमार एकटा काज करिबे ?”  अपने आश्चर्य एवं खुशी को दबाते हुए मिंटू बाबा के हां कहने पर पहली बार वह उसे अपने क्वार्टर के अंदर ले गया तथा एक गन्दी पड़ी कुर्सी को भरसक साफ कर, उसे बैठने लायक बनाकर  उससे बैठने का आग्रह किया । उसके बैढने के बाद एक मनीआर्डर फार्म निकाल कर बोला  -“राजा बाबू ! एटा के भरे दाव ।“  फिर उस फार्म पर किसी “ श्रीमती मधुमालिनी भट्टाचार्य, मिदनापुर (वेस्ट बंगाल)” का पूरा पता लिखवाया । लेकिन न जाने क्यों पता लिखवाने के बाद वह कुछ गुस्से से बोला –“ ना ! ना ! “ श्रीमती” काटि दाव !” । फिर उसके निर्देशानुसार पता लिखने के बाद जब मिंटू बाबा ने जानना चाहा कि मनीआर्डर फार्म में रकम कितनी भरी जाये तो वह उठ कर कमरे के फर्श के एक कोने को कालरी की गैंती से खोदने लगा तथा कुछ देर में ही खुदाई से हुये गड्ढे से एक मटकी निकाल कर बिस्तर पर पलट दी । बिस्तर पर ढेर सारे नोट बिखर गये, जिन्हे गिनने का आग्रह उसने मिंटू बाबा से किया ।   

             “ बाबा रे बाबा”, मिंटू बाबा ने इतने सारे रुपये एक साथ  अपनी जिंदगी में कभी भी नहीं देखे थे । उन रुपयों को गिनने में मिंटू बाबा को पूरा एक घंटा लगा । रकम हजारों में थी, जो उस मनीआर्डर फार्म में लिख दी गई । मनीआर्डर भेजने वाले का नाम पता मनीआर्डर फार्म में लिखते वक्त पहली बार  मिंटू बाबा को बटाचार के असली नाम “ देवाशीष भट्टाचार्य” का पता चला और फिर फार्म में संदेश के स्थान पर आकर मिंटू बाबा ने जब उत्सुकता से पूंछा कि यहां क्या लिखूं तो बटाचार विचित्र करुणा मिश्रित क्रोध के आवेग ( मिंटू बाबा को ऐसा लगा) से बोला लिक्खो –“ टकार मीत ! ले खाबार टका ! सोवार टका ! पारो टका ! तोमार सब, सब किच्छु टका “ ( पैसों की दोस्त ! लो  खाओ पैसा ! सोओं पैसा ! पहनों पैसा ! तुम्हारा तो सब सब कुछ पैसा  है) और फिर एक भयंकर चिंघाड़ के साथ ठहाका मार कर हंस पड़ा । लेकिन न जाने क्यों मिंटू बाबा को उसकी इस भयंकर हंसी में रुदन का स्वर गूंजता हुआ सुनाई पड़ा । फिर उसने बहुत पूंछा कि –“ ये मधुमालिनी कौन है ? इससे आपका क्या रिश्ता है ? आखिर इतना अधिक पैसा उसे क्यों भेज रहे हैं ?” लेकिन हर प्रश्न के उत्तर में बस वही विचित्र, विक्षिप्त भीषण हंसी का स्वर जो कि अब डराता न था बल्कि अंदर तक अंतर मन को प्रकंपित कर देता था । बहुत कुरेदने पर विचलित रुष्ट पर करुणापूरित स्वर में प्रतिउत्तर मिलता –“ अमार किच्छू नई ! अमार केयो नई ! सबाई टकार बंधु !” और फिर चित्कार मार कर वह उठ खड़ा हुआ तथा मिंटू बाबा की तरफ पीढ फेर कर मनीआर्डर फार्म एवं रुपए उठा कर बाहर निकल पड़ा । इस दौरान न जाने क्यों मिंटू बाबा को ऐसा लगा कि वह विभत्स मिनी राक्षस  उससे अपने आंसुओं को छिपाने का प्रयास कर रहा है ।

             फिर हर दो तीन माह में अच्छी खासी रकम का मनीआर्डर भेजने का सिलसिला चल पड़ा और हर बार बटाचार संदेश के स्थान पर  बस वहीं संदेश लिखाता –“ टकार मीत ! ले खाबार टका ! सोबार टका ! पारो टका ! तोमार सब, सब किच्छु टका “ । और फिर भीषण चित्कार के साथ हंस पड़ता जिसे सुन कर न जाने क्यों मिंटू बाबा को लगता कि वह हंस नहीं रहा बल्कि फूट फूट कर रो रहा है । या फिर हंस रहा है  तो न जाने किस पर हंस रहा है ? उस मधुमालिनी पर ? पैसों को ही सब कुछ मानने वालों पर ? या खुद अपने आप पर, अपनी बदसूरती पर, अपने ठिगने कद पर ? सब कुछ अबूझ पहेली ही रहा ।

          यह मनीआर्डर भेजने का क्रम जब तक मिंटू बाबा अपने परिवार के साथ कोलियारी में बटाचार के क्वार्टर के पास रहे लगातार जारी रहा । इस बीच मिंटू बाबा स्कूल से कांलेज तक का सफर पूरा कर अच्छे खासे जवान बन चुके थे और वह मिनी राक्षस बटाचार लगातार टूटता बिखरता जा रहा था । मिंटू बाबा अब “सुव्रत” के नाम से संबोधित किये जाने लगे थे पर जवान से अधेड़ हो चुके बटाचार के लिए वे अभी भी “राजा बाबू” ही थे और अभी भी वे बटाचार के अनुरोध पर मनीआर्डर फार्म भरते रहते और वहीं संदेश लिखते –“ टकार मीत !  ले खाबा टका ! सोवा टका ! पारो टका ! तोमार सब, सब किच्छु टका !” लेकिन मनीआर्डर से पैसा पाने वाली ने हरदम मनीआर्डर की रकम तो स्वीकार ली लेकिन प्रतिउत्तर में कभी दो शब्द भी न लिख कर मानो बटाचार के संदेश को भी पूरी तरह से स्वीकार लिया था ।    

             अब कभी कभी सुव्रत (बटाचार के राजा बाबू) बटचार को इस तरह से अपनी मेहनत की कमाई को लुटाते जाने से मना भी करते तो बस वही चित्कार भरी विचित्र हंसी प्रतिउत्तर में सुनाई पड़ती । फिर बाबा (पिता जी) के कोलियारी की उस नौकरी से रिटायर्ड होने के बाद मिंटू बाबा (बटाचार के राजा बाबू एवं वर्तमान के सुब्रतो दा) अपने परिवार के साथ बटाचार से दूर अपने पैतृक निवास के कस्बे में आ गये, पढ़ लिख कर अच्छी खासी  नौकरी में भी लग गये पर अभी भी बटाचार उनके लिए रहस्य बना हुआ है । उसकी अपने आप को बर्बाद कर देने वाली दिनचर्या ! मेहनत से कमाये पैसों का मधुमालिनी को मनीआर्डर करना और संदेश में हरदम लिखना “ टकार मीत ! ले खावा टका ! सोवो टका ! पारो टका ! तोमार सब, सब किच्छु टका” कभी कभी लगता कि शायद यह सब कुछ एक विचित्र प्रतिशोध था , लेकिन यह कैसा पागलपन भरा प्रतिशोध था ? उस विचित्र प्रतिशोध के पीछे अतीत की कौन सी उसके जीवन की कहानी छुपी हुई थी ? इस अबूझ रहस्य की गुत्थी को जब भी वे सुलझाने का प्रयास करते वह और भी उलझती जाती । इस गुत्थी को सुलझाने के प्रयास में जब उनने अपने बाबा को अपने मार्फत  बटाचार के मनीआर्डर फार्म भरवा कर रुपये  भेजने की बचपन की घटना का जिक्र किया तो बाबा ने ज़बाब में जब यह बताया कि बटाचार तो अच्छा खासा पढा लिखा था, पे आफिस से वेतन उठाते वक्त अच्छी खासी साफ सुथरी अंग्रेजी में दस्तखत करते तो उनने स्वयं उसे देखा था । पढ़े लिखे होने के बावजूद फिर वह उनसे मनीआर्डर फार्म क्यों भरवाता था ? गुत्थी और भी अधिक उलझ गई , रहस्य और भी अधिक गहरा गया ।

          लेकिन फिर सुब्रत के बाबा ने बटाचार के जीवन की रहस्य की परतों को खोलते हुये यह बताया कि देवाशीष भट्टाचार्य (बटाचार) को पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर के पास के ग्राम से उसका एक दोस्त अपने साथ लेकर आया था जो कि कोलियारी में पहले से काम करता था तथा उसी ने बटाचार की नौकरी कालरी मे लगवाई थी । बटाचार के उसी दोस्त ने एक दिन बाबा को बटाचार के जीवन की करुण कहानी बतलाई थी ।    

           शिष्ट शालीन, मृदुभाषी लेकिन साधारण शक्ल सूरत का देवाशीष भट्टाचार्य मिदनापुर के पास के ग्राम के प्राइवेट स्कूल मे शिक्षक की नौकरी करता था । उसके माता पिता उसके बचपन में ही स्वर्गवासी हो गये थे लेकिन उसके मिलनसार स्वभाव की वजह से पूरा ग्राम ही उसका हितैषी था । ग्रामवासियों एवं मित्रों के प्रयास से पास के ग्राम की एक सुंदर लड़की से उसका विवाह हो गया । उसे लगा अब जिंदगी में बस खुशियां ही खुशियां है । वह अपनी सुंदर पत्नी से बेहद प्यार करता था । लेकिन उसकी सुन्दर पत्नी उसकी साधारण शक्ल सूरत से जहां असंतुष्ट थी वहीं उसके कम वेतन की धनराशि से उसके कोई भी अरमान उसे पूरे होते न दिखाई पड़ते । वह अक्सर उसके कम वेतन की तुलना ग्राम के अन्य पैसो वालों से कर के उसे अपमानित करती रहती । जबकि देवाशीष पत्नी को खुश रखने का हर संभव प्रयास करता  । वेतन की कम धनराशि में जब पत्नी की फरमाइश पूरी न हो पाती तो जहां से भी पाता वह उधार पैसे ला कर पत्नी  की हर फरमाइश को पूरा करता । धीरे धीरे वह पूरे ग्राम का कर्जदार हो गया । विद्यालय के भी हर फंड से उसने एडवांस ले रखा था । लेकिन इन सब के बावजूद भी उसकी पत्नी न उससे खुश रह पाती और न संतुष्ट । इस बीच उसकी पत्नी के, ग्राम के मनचले धनपति ठेकेदार से प्रेम-प्रसंग की चर्चाये गर्म होने लगी । ठेकेदार उसे मंहगे मंहगे उपहार दे कर अपने वश में किये हुये था । देवाशीष उसे लाख समझाता लेकिन वह मानती ही नहीं । आखिर एक दिन वह देवाशीष को छोड़ कर उस धनपति ठेकेदार के ही एक मकान में उसकी उप पत्नी बन कर रहने लग गई । देवाशीष ने अपनी पत्नी की  काफी आरजू मिन्नत की लेकिन उसकी पत्नी ने उपेक्षा से ज़बाब दिया “ न शक्ल न सूरत और न जेब में पैसा तुम्हारे साथ भला कौन औरत रहना चाहेगी ।“

                  अपनी सुंदर पत्नी का उपेक्षा भरा ज़बाब सुन कर देवाशीष की हालत विक्षिप्तों जैसी हो गई । उसके सर पर पूरे ग्राम का कर्जा था जिसे चुकाने में उसका एक मात्र मकान बिक गया । पत्नी की बेवफ़ाई से पीड़ित हो कर वह दिन रात शराब पी कर मदहोश रहने लगा । कुछ भी मिलता खा लेता और ग्राम में कही भी पड़ा रहता । इन सब हालात में उसकी नौकरी भी न बची । इन सब के बावजूद उसकी जिद थी कि कहीं से भी अधिक से अधिक पैसे कमा कर वह अपनी पत्नी को दिखा देगा । ऐसी हालत में उस के उस दोस्त ने उसको सम्हाला जो मध्यप्रदेश की इस कोलियारी में काम करता था और उसे यहां ले आया जहां आकर वह शिष्ट शालीन देवाशीष  अधिक से अधिक पैसों को कमाने की धुन वाला मिनी राक्षस “बटाचार” बन गया ।

              बटाचार के जीवन के रहस्यों की परतें खुलने के बाद कल के मिंटू बाबा, बटाचार के राजा बाबू और आज के प्रतिष्ठित प्रशासकीय अधिकारी “ सुब्रत दादा” और भी अधिक दुखी हो गये तथा बटाचार की चित्कार भरी उस भीषण हंसी को याद कर उनकी आंखें नम हो गई। एकाएक उन्हें लगा शायद अब बटाचार इस दुनिया मे न होगा और उसका अंतिम संस्कार उसके कालरी के सहकर्मियों ने कर दिया होगा लेकिन सूचना भेजने के बाद भी इस मौके पर उसकी “टकार मीत पत्नी मधुमालिनी” न आई होगी । पर कुछ दिनों बाद अपने प्रेमी ठेकेदार के साथ  कालरी के आफिस में जरुर पहुंची होगी जहां वह बटाचार के जी पी एफ की अच्छी खासी रकम को वसूल रही होगी । जिसे इस दुनिया से बहुत दूर परलोक में विचरते बटाचार ने देख कर भीषण चित्कार भरी हंसी के साथ जरुर कहा होगा –“टकार मीत !  ले खावा टका ! सोवा टका ! पारो टका !  तोमार तो सब सब किच्छु टका ।“

-राजेन्द्र सिंह गहलौत
जिला शहडोल (म.प्र.)

                                       

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