रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक भाव-बोध
22 जनवरी का दिन हम सभी के लिए बेहद ऐतिहासिक है । रामलला अपनी जन्मभूमि में पुनः स्थायी रूप से भव्य मंदिर में विराजमान हुए । यह कोई साधारण घटना नहीं है । इस परिघटना की भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक पुनरुत्थान में अभूतपूर्व भूमिका होगी । श्रीराम भारतवासियों के लिए आराध्य मात्र नहीं वरन् हमारी जीवन शैली के प्रतीक हैं । श्रीराम जैसे नायक जिस समाज के समक्ष उपस्थित हो उसे दूसरों के समक्ष देखने की क्या आवश्यकता ? श्रीराम भारतीय संस्कृति के प्रणेता हैं । चाहे सुख हो या दुःख श्रीराम सभी में प्रेरणा देते हैं । प्रभु श्रीराम स्वयं इन परिस्थितियों का सामना करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम बने । उनके लिए मर्यादा ही सबसे बड़ा पाथेय रहा। पितृ, मातृ, पति, मित्र, शासक, प्रशासक, नीतिज्ञ इत्यादि के प्रत्येक धर्मपालन में राम हमारे समक्ष सबसे बड़े आदर्श के रूप में उपस्थित हैं ।
राम हमारी विरासत हैं, उमंग हैं, संस्कृति एवं संस्कार हैं । उनसे भारतीय सभ्यता-संस्कृति पुष्पपित-पल्लवित हुई। राम को जानने-समझने के लिए यह जरूरी है कि हम मर्यादा पुरुषोत्तम के जीवन मूल्यों को रामायण एवं रामचरितमानस जैसे ग्रंथों के माध्यम से समझें । समाज जिन आदर्शों, मूल्यों से ऊर्जस्वित होता है वे सभी इन ग्रंथों में हैं । श्रीराम लला की प्राण-प्रतिष्ठा हमें हीनता-बोध से उबरने का भी बोध कराती हैं । एक विदेशी आक्रांता द्वारा देश के ऐतिहासिक नायक की जन्मभूमि को पददलित करना भला कौन-सी मर्यादा थी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय एवं सम्पूर्ण व्यवस्था का अभिनन्दन ! जिसने इस ऐतिहासिक घाव को भरने का सुअवसर दिया। साथ ही, इतिहास की भूलों को सुधारने का भी । देश के विरुपित इतिहास के माध्यम से आम जनमानस को कुंठित एवं हीनता-बोध से ग्रसित करने का जो कुमार्ग अपनाया गया था, हमें विश्वास है कि आज की यह प्राण-प्रतिष्ठा उसे धर्म-संस्कार-परंपरा की मर्यादित स्वर देगी। इस स्थापना से बहुस्तरीय रुप में सामाजिक एकता का मार्ग प्रशस्त होगा। श्रीराम मंदिर की स्थापना से समाज में, व्यवस्था के, एकता के स्वर मर्यादित होंगे ।
राम हमारे देश में कथा भी हैं, व्यथा भी हैं, बुढ़ापा हैं, बचपन हैं, जवानी हैं । राम-राम, सियाराम के अभिवादन से लेकर राम-नाम सत्य तक सबमें राम शामिल हैं । भारतीय मन हर स्थिति में राम को साक्षी बनाने का अभ्यस्त है । दुःख में, “हे राम”, पीड़ा में, “ओह राम”, लज्जा में, “हाय राम”, अशुभ में, ‘अरे राम राम”, अभिवादन में, “राम राम”, शपथ में, “राम दुहाई”, अज्ञानता में, “राम जाने”, अनिश्चितता में, “राम भरोसे”, अचूकता के लिए, “रामबाण”, सुशासन के लिए, “रामराज्य”, मृत्यु के लिए, “राम नाम सत्य” । इस प्रकार की अभिव्यक्तियां पग-पग पर “राम” को हम सभी के साथ खड़ा करतीं हैं और राम भी इतने सरल हैं कि हर जगह वे अपने भक्तों के लिए खड़े हो जाते हैं। कहा भी गया है ‘जिसका कोई नहीं…उसके “राम”हैं-“निर्बल” के बल “राम” और अंत में ‘हम तो जाते अपने गांव… सबको राम राम राम !
सिक्खों के दसवें गुरु, ख़ालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोविंद सिंह जी प्रभु श्रीराम की स्तुति करते हुए लिखते हैं –
श्री रघुनन्दन को भुज तें जब छोर मरागन बान उड़ाने,
भूमि मकाम पतार पर रहे नहि जान पछाने |
तोर साह सुवाहन के तन माह करी नहि पार पराने,
देव फरोटन घोटन कोट भटान में जानको जान पछाने |
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं–
‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है
कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है ।’
रामजी हमारे समाज में धर्म, आचरण, शील और मर्यादा के प्रतीक पुरुष के रूप में स्थापित है। रामजी भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों के प्रतीक पुरूष इसलिए माने जाते है क्योंकि वे हमारे सनातन मूल्यों को सहज भाव से अपनाते नजर आते हैं। इन्हीं आदर्शों के फलस्वरूप भारतीय जनमानस ने श्रीराम को एक प्रतीक पुरूष के रूप में अपनाया है । हमारे शास्त्र पिता, भाई के रूप में श्रीराम के आदर्शों को अपनाने की सलाह देते है। प्रभु श्रीराम कहते हैं- मुझे पूजकर न अपनाओं, बल्कि मुझे अपने आचरण-व्यवहार में शामिल करो ।‘ राम हमारे लिए केवल ईश्वर मात्र नहीं वरन् इस व्यवस्था के उन्नायक है, नियंता है।
भारतीय संस्कृति की चारित्रिक आधारशिला ही राम पर आधारित है। भारतीय संस्कृति राम को एक व्यक्ति नहीं वरन् एक संस्कृति के रूप में देखती है और जीती है। यही कारण है कि भारत या भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाला प्रत्येक समुदाय धर्म से ऊपर राम को प्रतीक पुरुष मानता है। भारतीय संस्कृति के वे संस्कार पुरुष माने गए हैं । सूफी कवियों ने भी राम को उसी रूप में अपनाया। दक्षिण-पूर्व एशिया के देश आज भी राम को अपनी राष्ट्रीय आस्था एवं परंपरा का प्रतीक मानते है। राम सदाचार के प्रतीक हैं, और इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है।
आज भी ‘रामराज्य’ शांति एवं समृद्धि काल के पर्यायवाची के रूप में उपस्थित है। यह कहने का अर्थ कि हम सभी राममय है अर्थात हम राम को ईश्वर से ज्यादा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्वीकार करते हैं । हम सब उनके गुणों को सामाजिक मूल्यों की नींव मानते हैं। यही कारण है कि जन-जन में राम लोकप्रिय है। राम का नायकत्व समृद्ध भारतीय परंपराओं के साथ ही भारतीय साहित्य की समृद्धि का भी उदाहरण हैं। राम भारतीय साहित्य के साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया के लोकनायक के रूप में भी उभरते हैं। रामायण का व्याख्यायित एवं विश्लेषित रूप ‘राम का अयन’है, जिसका अर्थ है ‘राम का यात्रा पथ’। राम की सम्पूर्ण जीवन यात्रा मूलत: उनकी दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग, हास-परिहास तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से भरी हुई। भारतीय लोक श्रीराम के प्रत्येक स्वरूप से प्रभावित होता है। इसीलिए कहा जाता है भारतीय संस्कृति का हर रूप राममय है।
श्रीराम भारतीय संस्कृति की उदात्त अभिव्यक्ति हैं । प्रभु ने पृथ्वी पर श्रेष्ठता की, त्याग की भाव-भूमि रची। श्रीराम के चरित्र ने यह सिद्ध किया है कि सबसे ऊपर मर्यादा है । राम लोभ, स्वार्थ, काम, क्रोध, सांसारिक मोह से परे कर्तव्य एवं मर्यादा से बंधे पुरुषोत्तम है। उनकी संपूर्ण गाथा मानव के ‘मानव’ बनने का इतिहास है। संसार को सदैव आवश्यकता है मर्यादा की, आचरण की, त्याग की । श्री राम लला के प्राण –प्रतिष्ठा के पावन अवसर पर प्रस्तुत हैं मेरी कविता ‘राम’ ।
राम जी का जीवनादर्श आज भी करोड़ों भारतीयों के मानस के मूल में है । आशा है, इन आदर्शों के योग से सारे विभेद भी समाप्त होंगे । रामायण के आदर्श, मर्यादा, त्याग, समर्पण व संस्कार भारतीय मानस की अभिव्यक्ति के स्वर बनेंगे । भारतीय संस्कृति अपने लोकनायकों, लोककथाओं तथा लोकसाहित्य से सदैव समृद्ध है । भारतीय राष्ट्र राज्य की संकल्पना में अपनी चारित्रिक श्रेष्ठता एवं मूल्य बोध के कारण श्रीराम की महत्ता अत्युत्तम हैं ।
राममय होने के लिए केवल बाहरी नहीं वरन आंतरिक अनुशासन की आवश्यकता है । मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्म भूमि पर भव्य मंदिर की स्थापना मर्यादा की मांग करती है, माता-पिता के प्रति सम्मान मांगती है, देश के प्रति प्रतिष्ठा और प्रेम मांगती है । भातृ प्रेम, स्नेह और मर्यादा मांगती है । राजा, केवट और गिलहरी तक के मध्य भेदभाव नहीं मांगती है। यदि शासन, समाज ऐसा करने हेतु प्रतिबद्ध हो तो राम सदा के लिए आयेंगे। अन्यथा, श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा अयोध्या व सम्पूर्ण देशवासी उनके भव्य मंदिर स्थापना के बाद भी करेगी। अंत में अपने कुछ भाव आप सभी से साझा कर रहा हूँ।
रामलला पधारें अपने घर-आँगन
कितनी आँखें बाट जोहती,
कितने कान सुनने को तड़पें,
कितने मन आस लगाए थे,
कितने मन रहे उदास !
अब जा के भक्तों के मन की पूरी हुई मुराद
जब विराजे दशरथ पुत्र राम
इसी के संग गूंज रही
कौशल्यापुत्र सियावर राम नाम की धुन
गूंज रहा है अखिल विश्व में मर्यादा पुरुषोत्तम का का नाम।
रामलला जो पांच सदी से वंचित थे अपने घर-आँगन से।
आज अधिष्ठित हुए हैं भक्ति-भाव, आदर से।
आइए प्रार्थना करें, संकल्प करें
सब पढ़े, सब आगे बढ़े,
और मिलकर समृद्ध भारत गढ़े।
©डॉ. साकेत सहाय
साहित्यकार
(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी सेवी एवं पंजाब नैशनल बैंक में मुख्य प्रबन्धक (राजभाषा) हैं। )