सूखे स्तन (कहानी)
सूखे स्तन
सिग्नल लाल हो गयी। तेज़ रफ्तार में आ रही सैकड़ों गाड़ियाँ एकाएक रुक-सी गयीं। दिल्ली की दुपहरी पूरे साल शरीर को जलाती रहती है और ऐसे में ट्रैफिक सिग्नल पर इंतजार करना भी एक प्रकार की अग्नि परीक्षा ही है। ट्रैफिक के थमते ही कुछ लोग रईसों की गाड़ियों के आसपास मँडराने लगते हैं, जिनमें आमतौर पर किताब बेचता कोई बूढ़ा, फूल बेचते कुछ बच्चे, भीख माँगते कुछेक किन्नर और गजरा बेचती कुछ महिलाएँ हुआ करती हैं। राजधानी में ऐसे दृश्य आम हैं। जितने अमीर, उतने गरीब। समानता ही है एक प्रकार से।
दिमाग में अभी ये सब ख्यालात चल ही रहे थे कि कुछ गाड़ियों के हॉर्न के बढ़ते शोर और उनमें बैठे तथाकथित ‘सभ्य’ लोगों के मुँह से निकलती माँ-बहन की गालियों ने मेरा ध्यान खींच लिया। नज़र पड़ी एक सूखे ढाँचे पर जो गोद में अपने डेढ़ साल के अधमरे पोते को लिए गाड़ियों के बीच भटक रही थी। कछुए से भी धीमी उसकी चाल उसकी ढलती उम्र और भूखे पेट की गवाही दे रही थी। जहाँ-तहाँ से फटी उसकी साड़ी-ब्लाउज अगर उसने कम उम्र में पहनी होती तो अबतक सैकड़ों नज़रों की शिकार हो चुकी होती, आज तो बस नज़रअंदाज़ हो रही है। दादी-पोते दोनों का शरीर इतनी कृशकाय अवस्था में था कि दूर से ही दोनों के शरीर की एक-एक हड्डी गिन ली जाए। बुढ़िया अमीरज़ादों की गाड़ियों के शीशे को थपथपाती और जवाब में बंद होते उन शीशों के बीच नंगे पाँव तपती सड़क पर आगे बढ़ ही रही थी कि अचानक उसका पोता रोने लगा। पिद्दे-से शरीर और जानरहित कंठ से निकलती उसकी वह आवाज़ गाड़ियों के शोर और लोगों के मौन को चीरती हुई ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो समाज और शासन से अपने और अपने जैसे करोड़ों की दुरूह स्थिति पर सवाल कर रही हो।
बुढ़िया पोते को गोद में थामे धीमे पाँव सड़क किनारे आ गई और उसे प्यार से पुचकारकर, बहला-फुसलाकर शांत कराने लगी। बुढ़िया भोली थी, जानती नहीं थी कि जब कोई भूखा होता है तो उसे लाड़-प्यार, नीति-नैतिकता की बातें समझ नहीं आती, वह कुछ सोच नहीं पाता। लेकिन बच्चा भी ढीठ ही था, चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दो पल को ऐसी ही असमंजस की स्थिति रही कि अचानक बुढ़िया ने ब्लाउज से अपने सूखे स्तन निकालकर पोते के मुँह में लगा दिए। पोता भी शांत होकर उसके अंग का बचा-खुचा खून चूसने में रम गया। दस…नौ…आठ…सात…छह…पाँच… चार…तीन…दो…एक। सिग्नल हरी हो गयी। चमचमाती गाड़ियों में बैठा पूरा ‘रईस’ समाज आगे बढ़ गया, ‘गरीब’ कहीं पीछे छूट गए।
– शुभांजल
देवसंस्कृति विश्विद्यालय, हरिद्वार
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