व्यंग्य – जाति ना पूछो साधु की
जात ना पूछो साधो कि पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।
बहुत ही गजब की बात कही है इसमें सदगुरु ने। उनके अनुसार जब ज्ञानी का मोल करना है तो उसके ज्ञान से करो ना कि उसके पहनावे और दिखावे से ।
लेकिन अगर ज्ञानी ही भेदभाव करने लगे? अगर उसकी नजर ( ज्ञान चक्षु) ही भेदभाव की रतौंधी से ग्रस्त हो जाए तो क्या ?
तो फिर उसको अंधा ही कहा जायेगा, लेकिन क्या अंधा होने पर भी वो अपनी भेदभाव की प्रवृति छोड़ पाएगा ?
अंधा बांटे रेवड़ी चीन चीन कर दे
क्योंकि समस्या उसकी आंखो में नही अपितु ज्ञान में है, मन में है, उसकी आत्मा में है।
ऐसे ही नजारें आजकल हमारे न्यायालय (कोर्ट) परिसर में दिखाई पड़ रहे है जहां आजकल न्यामूर्ति साहेब खुले आम चीन चीन कर रेवड़ी बांट रहे है। उनके कार्यप्रणाली देख कर गंगाजल फिल्म का एक संवाद (डायलॉग) याद आ गया जहाँ पर एसपी अमित कुमार, इंस्पेक्टर बच्चा यादव को फाइलों दो ढेर दिखा कर कहते है, “जब में इन फाइलों को देखता हूं तो लगता है तुमसे बेहतर और काबिल अफसर कोई नही हो सकता है, लेकिन में जब दूसरे ढेर को देखता हूं तो लगता है तुमसे निकम्मा कोई नही हो सकता है, कहां चली जाती है तुम्हारी बहादुरी इत्यादि“
यहां पर उद्देश्य आपको फिल्म के संवाद याद करवाना नहीं है बल्कि न्यायालय कि कार्यप्रणाली पर —–? आगे आप समझदार है और ये बात भारत के आम नागरिक ही नही बल्कि वकालत से जुड़े लोग महसूस भी कर रहे हैं।
न्यायालय का झुकाव तो कोई भी महसूस कर सकता है लेकिन “मणिपुर महिला अत्याचार” केस में तो उच्चतम न्यायालय ने गजब ही कर दिया, उसने हमारी महिलाओं में भी भेद करना सीख लिया। सनद रहे, मणिपुर महिला अत्याचार केस में कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाही की जो कि प्रशंसनीय है लेकिन उसी कोर्ट में जब एक महिला वकील ने कोर्ट से अन्य राज्यो (जैसे राजस्थान, बंगाल) में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर भी संज्ञान लेने को कहा तो उसने जैसे सोए शेर को उंगली कर दी हो? न्यायाधीश महोदय बिफर गए और उन्होंने बोला ” आपका कहना है कि देश में महिलाओं पर अत्याचार हो रहे है तो हम मणिपुर की महिलाओं को भी न्याय ना दे”.
वकील साहिबा ने कहा ” नही मेलोर्ड, मेरा कहना है कि आप सब राज्यो की महिलाओं को भी इसमें शामिल कर ले “
लेकिन शायद न्यायाधीश महोदय की सूची में और राज्य की महिला नही आती हो और खासकर बंगाल की तो उन्होंने तुरंत मना कर दिया कि उन महिलाओं की बात हम बाद में करेंगे।
अब मेरे बैरागी मन को ये समझ नही आ रहा है कि अगर लगे हाथ न्यायाधीश महोदय इन महिलाओं के अधिकार पर भी दो टिप्पणी कर देते तो क्या जाता? उल्टा इनका सम्मान ओर बढ़ ही जाता? तो क्या न्यायमूर्ति साहब किसी विशेष वर्ग के व्यक्तियों का इंतजार कर रहे है? या फिर देश की अन्य महिलाओं के बारे में ना बोलकर वो किसी विशेष वर्ग को कोई संदेश देना चाह रहे है?
मणिपुर के मुद्दे पर उनकी टिप्पणी जायज है लेकिन इस टिप्पणी को करते समय उनके मन में निम्नलिखित घटनाओं का भी संज्ञान लेना चाहिए था;
१. मणिपुर में कुछ महिलाओं ने पुलिस को दूर भगाने के लिए खुद को निर्वस्त्र कर दिया था।
२. जब भारतीय सुरक्षा बल ने १२ वांटेड आतंकवादियों को पकड़ा (जिसमे से एक के ऊपर २५ सुरक्षा बल के जवानों की हत्या का आरोप था) तो १०० से अधिक महिलाओं ने जवानों का घेराव कर लिया और उन आतंकवादियों को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। सोचिए उस समय अगर सुरक्षाबलों ने बल का प्रयोग किया होता तो क्या होता? यही न्यायमूर्ति महोदय उन जवानों को फांसी पर टांगने की बात कर रहे होते। क्यों? क्योंकि आतंकवादियों के मानवाधिकार होते है हमारे वीर जवानों के नही।
अब जबकि अतंकवादी लोग खुल कर महिलाओं और बच्चों का प्रयोग ढाल समझकर करते है तब हमारे तथाकथित न्याय के मंदिरों का रवैया समझ के परे है। इन न्यायालय में कुछ समय एक विचारधारा के वकीलों के लिए एक्सक्लूसिवली रिजर्व होता है जो चाहे तो बिना आदेश की प्रति भी आरोपी को छुड़वा सकते है, सिर्फ एक फोन कॉल पर।
आपको सत्ताधारी महिला प्रवक्ता का केस तो ध्यान होगा जो आजकल अज्ञातवास काट रही है और जिसकी एक प्रतिक्रिया को एक न्यायधीश महोदय ने देश में होने वाली हत्याओं का जिम्मेदार ठहरा दिया था।
या फिर वो केस जिसमे ३ घंटे के भीतर सबसे ऊंचे कोर्ट की दो बेंच ने फैसला सुना दिया? अचंभित? होते रहिए
कुछ मामलों की कार्यवाही देख कर अब तो यही कहा जा सकता है
जात चले यहां साधो की, घंटा करेगा ज्ञान
नही औकात तलवार की, काम आयेगी म्यान।
बिलकुल सही कहा, अगर म्यान की पहिचान । ऊपर तक है या फिर विशेष विचारधार की है तो यहां के दरवाजे हमेशा खुले है।
जय हिंद उनके लिए जो उम्मीद से है।