“वर्तमान में वर्धमान के सिद्धांतों की प्रासंगिकता”
आज के भौतिकवादी युग में अनेक संसाधनों के बावजूद विश्व (मनुष्य)अशांत है जिसका मूल कारण हिंसक कार्यों में प्रवृत्ति व प्रकृति के विरुद्ध जीवन शैली है।
तमाम वैज्ञानिक प्रगति, संसाधनों की भरमार, आवागमन के साधनों के विकास के बाद भी मानव प्राचीन काल या लगभग 35-40 साल पूर्व की ही तुलना में अधिक सुखी ,प्रसन्न ,रोग मुक्त है?निश्चित ही नहीं।कारण हिंसक प्रवृति और परिग्रह ! जिस तेजी से मनुष्य के मन और बुद्धि के साथ ज्ञान का विकास हुआ है उसी तेजी से उसका हृदय ,संवेदनाएं संकुचित और अहम् व दिखाबे में वृद्धि। इस बात को महाकवि रामधारी सिंह दिनकर जी के शब्दों में कहें तो ,
*बुद्धि तृष्णा की दासी हुई,मृत्यु का सेवक है विज्ञान।*
*चेतता अब भी नहीं मनुष्य,विश्व का क्या होगा भगवान।*
*वर्धमान के सिद्धांत* :–मानवीय विकास के क्रम में महावीर ने आज से लगभग 2600वर्ष पूर्व सिद्धांत प्रतिपादित किया कि मानवीय मूल प्रकृति के चार तत्व हैं –(1)–काम (2)अर्थ लोलुपता
(3)धर्म,श्रद्धा (4)मुक्ति का चिंतन
चारों तत्वों का गहन अध्ययन,परिणामों के परीक्षण के पश्चात् *काम* की आवश्यकता समझते हुये उसे *ब्रह्मचर्य* से नियंत्रित किया।अर्थ लोलुपता पर नियंत्रण हेतु *अपरिग्रह* के भावों से बाँधने का दर्शन दिया तो धर्म -श्रद्धा के साथ *सम्यक* शब्द को वैयक्तिक व्यावहारिक जीवन की प्रवृति से जोड़ा तत्पश्चात मुक्ति चिंतन हेतु संपूर्ण काम निषेध व संपदा का पूर्णतया अपरिग्रह निश्चित किया।
ऐसा नहीं कि महावीर ने इन तत्वों-तथ्यों को जनमानस पर थोपा ,अपितु आजीवन इसका स्वयं पालन कर विश्व के समक्ष अनुकरणीय उदाहरण रखा। राजपुत्र होते हुये समस्त वैभव त्याग आसान नहीं था। युवा होते भी ब्रह्चर्य पालन और आवश्यकता पूर्ति निमित्त पीच्छी, कमंडलु भर का परिग्रह रखते हुये भीषण ग्रीष्म,शीत, ताप सब सहा।
वर्धमान के चारों सिद्धांत त्याग ,आत्मनियंत्रण,कर्म पर आधारित हैं। त्याग का अर्थ विकास का अवरोध नहीं अपितु संयम,नियंत्रण व विसर्जन के भावों को विकसित करने का साध्य है। उनका विश्वास था कि धर्म द्वारा व्यक्ति की मूल प्रकृति एक शुद्ध सात्विक रुप में क्रियाशील हो सम्यक विचारों द्वारा व्यक्ति श्रेष्ठ वैश्विक व्यवस्था का अंग बन सकता है।
वर्धमान के पंचशील व्रतों में अहिंसा सर्वप्रथम है। अहिंसा मनुष्य के अंतस में संवेदना,सात्विक भावों और परस्परग्रहो जीवानाम् की भावना को सुदृढ़ करती है।
अहिंसा,अपरिग्रह ,अचौर्य,सत्यऔर ब्रह्मचर्य यह एक आदर्शजीवन शैली के अंग हैं जो मनुष्य के अंदर विश्वशांति ,विश्वमैत्री और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना जगाते हैं।पर सर्वोपरि अहिंसा है।
*वर्धमान के सिद्धांतों की प्रासंगिकता*–
आज पूरा विश्व अशांत है।आतंकों के साये में जकड़ा हुआ तृतीय विश्वयुद्ध की विनाशकारी आहट से सहमा हुआ है। सभी शांति चाहते हैं। और सर्वकालिक सत्य कहता है कि शांति के मूल में *अहिंसा का उद्घोष* है ।और यह तभी सँभव है जब परिग्रह या संग्रह वृति पर अंकुश किया जाए।अनुत्पादन और अति संग्रह से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है।
*अति सर्वत्र वर्जयते* इसी लिए वर्धमान का अपरिग्रह सिद्धांत वर्तमान की आवश्यकता है। अपरिग्रह.का अर्थ आवश्यकता से अधिक या बिना जरूरत की सामग्री का संग्रह करना।
दूसरा सिद्धांत है *अहिंसा* । अहिंसा का साधारण अर्थ है हिंसा न करना ,किसी को मारना नहीं ,कष्ट नहीं पहुँचाना। अहिंसा इतनी भर नहीं है ।बहुत व्यापक अर्थ हैं इसके।
यद्यपि महात्मा गाँधी अहिंसा समर्थक थे। पर मेरा विचार कहता है कि उन्होंने अहिंसा का पालन किया पर पूर्ण रूप से नहीं। भारत आजाद चरखा कातने मात्र से नहीं हुआ था और न बिना तलवार ,ढाल के।अहिंसा जितनीस्थूल है उतनी व्यापक भी है। किसी के मन को चोट पहुँचाना,कटु वाणी से आहत करना भी हिंसा है ।पर इसका अर्थ यह नहीं कि सामने वाला आपके घर को जला दे आप दूसरा घर भी दिखा दे जलाने हेतु। यहाँ अहिंसा का स्वरक्षा रुप सामने आता है। आत्मरक्षा का हक सभी को है।
आज जबकि विश्व महावीर का 2620वाँ जन्मकल्याणक मना रहा है तब बहुत प्रासंगिक हो जाता है महावीर के सिद्धांतों का पुनःचिंतन कर यथार्थरुप से प्रचार करना। हवाओं में महावीर के उपदेश,आदर्शों की महक अभी तक बाकी है।
*आदर्श युगदृष्टा*–महावीर का अवतरण जिस समय धरा पर हुआ उस समय समाज में संत्रास,कुंठा,घुटन,वैमनस्य,हिंसा,अशांति ,नारी क्रय जैसी दुष्प्रवृतियाँ चरम पर थी।तब सतत् चिंतन से निकला नवनीत *अहिंसा* के रूप में एक मात्र उपाय ही महावीर के मन-मस्तिष्क में था । तब अहिंसा परमोधर्मः के उद्घोष ने दिग् दिगांतों में विभिन्न अर्थों में स्थापित हुआ।वर्धमान ने माना कि अहिंसा आत्मा का हित करती है और *विश्वशांति* का आधार है।जगत कल्याण की कसौटी है तो *विश्वधर्म भी*।
*महावीर युगांतरकारी महापुरुष,महान क्रांतिकारी युगपुरुष थे। उनके विचारों में.अनेकांत ,वाणी म़े स्यात् वाद,आचरण में अहिंसा और जीवन अपरिग्रही था।* महावीर के विचार -सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक और व्यावहारिक थे। उनके लिए अहिंसा विश्वबंधुत्व की भावना से जुड़ी थी। वह युगदृष्टा थे इसी कारण जितना प्रचार आत्मपरीक्षण द्वारा उदाहरण रुप में अहिंसा और अपरिग्रह का किया उतना ही जनमानस को प्रकृति के अनुकूल रहने की कला सिखाई।
वर्धमान की आवश्यकता क्यों–आज दुनियाँ के विकसित कहे जाने वाले राष्ट्र भीषण शक्तिशाली आयुधों,परमाणु बमों ,घातक अस्त्र-शस्त्रों के निरंतर उत्पादन के साथ पड़ौसी देशों के साथ बजाय मैत्रीपूर्ण संबंध रखने के,उनका समूल विनाश करने में लगे हैं। इसके दूरगामी परिणामों का चिंतन किये बिना!ताजा उदाहरण युक्रेन जैसा खूबसूरत शहर जो वास्तु कला ,शिक्षा ,कला की बेमिसाल धरोहर है /था ?!,और दूसरी और रूस । पिछला युद्ध जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में अति महत्वाकांक्षी देश द्वारा परमाणु बमों का उपयोग कर समस्त मानव जाति ,वनस्पति ,पशु पक्षियो़ ,सभ्यता ,कला को पल भर में नष्ट कर दिया गया। लाखों हताहत हुये यहाँ तक कि प्रकृति के दो महत्वपूर्ण जीवनदायी घटक जल और वायु भी विषाक्त हो गये। आज रूस -युक्रेन के अपने अपने दंभ ,आपसी कड़वाहट ने एख विकसित देश की विरासत ,कला ,संस्कृति,आध्यात्मिक, शैक्षिक सभ्यता ही नष्ट नहीं की अपितु जीवन शैली और सभ्यता और प्राचीन विरासत भी निष्ट होने के मुहाने पर है।
आर्थिक प्रतियोगिता की अंधी दौड़ ,अनियंत्रित स्वतंत्रता से जहाँ एक और मानव जीवन गतिशील हुआ वहीं दूसरी ओर अशांति ,मानसिक बीमार भी बना दिया है।
*इन परिस्थितियों में जहाँ विश्वचिंतक समाधान खोजने को बाध्य हैं वहीं वर्धमान की अहिंसा और अपरिग्रहसारे समीकरणों को सुलझा देने में सक्षम है।*
उपसंहार –अपरिग्रह और अहिंसा न केवल जीव हिंसा रोकने तक सीमित है अपितु विश्व के समस्त प्राणियों के प्रतिप्रेम बंधुत्व एवं आत्मीयता की भावना के विकास को भी अपने में संजोती है।
महावीर ने कहा -,
*सव्वे पाणा पियाउणा,सुहसाया,दुक्खपड़िकूला।*
*अप्पियवहा पियजीविणों,जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं।।
*चत्तारि परमंगाणि,दुल्लहाणीए जंतुणों*
*माणुसत्तं,सुईसद्धा,संजमम्मि व वीरियं।*
वर्धमान ने सदैव कर्म को प्रतिष्ठा दी भक्ति के स्थान पर सत्कर्म और सदाचार का सूक्त दिया।
वर्तमान के कष्टतर समय में वर्धमान के सिद्धांत मन की शांति ,विशुद्धि के साथ नैतिक,मैत्रीपूर्ण एवं प्रामाणिक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।अहिंसा,समता,सरलता,अपरिग्रह के सिद्धांत मावन के व्यक्तिगत, पारावारिक,सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को शांतिपूर्ण ढंग से विकास करने की प्रेरणा देते हैं।तभी विश्व में शांति व्याप्त हो सकती है। वर्धमान का पूरा जीवन ही एक प्रयोगशाला था। वहाँ के परीक्षण से जो अमृत निकला उसे आज हमने विस्मृत कर दिया । आवश्यकता है पुनः चिंतन मनन के साथ उन सिद्धांतों को पुनः जीवन में स्थान देने की।मानवीय मूल्यों पर आधारित वर्धमान सिद्धांतों के अनुशरण की।अहिंसा से ही हिंसा का तांडव समाप्त होगा।सम्राट अशोक ने भी युद्ध की निर्थकता को स्वीकार किया है। हिंसा भावनात्मक बीमारी है