यात्रा वृत्तांत – वसुंधरा पर स्वर्ग की सीढी: स्वर्गारोहिणी और संतोपथ
– विवेक कुमार जैन
उप सचिव उत्तराखंड, शासन देहरादून
हॉबी-ट्रेवलिंग, ट्रैकिंग एंड एक्सप्लोर न्यू डेस्टिनेशन
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत के के. भीषण युद्ध के पश्चात् युद्ध में सगे संबंधी / ब्राह्मणों की हत्या के प्रायश्चित के लिये पाण्डव स्वर्गारोहिणी से स्वर्ग की ओर जाने के लिये निकले, किन्तु अपने-अपने पाप कर्म के अनुसार वे एक-एक करके यात्रा के दौरान मृत्यु को प्राप्त होते गये। सिर्फ युधिष्ठिर ही एक कुत्ते (जो उनको रास्ते में मिला था) के रुप छुपे धर्म के साथ यहीं स्वर्ग की सीढ़ियां चढ़ते हुये पुष्पक विमान से स्वर्ग को गये। स्वर्गरोहिणी तक की यात्रा के बारे में माना जाता है कि ये साक्षात स्वर्ग के मार्ग पर चलने के बराबर है और मानवीय शरीर के साथ अगर आप पूरी धरती में कहीं से भी स्वर्ग जा सकते हैं। तो वो स्वर्गरोहिणी ग्लेशियर का मार्ग है।
इस कथानक के रोमांच के लिये बद्रीनाथ से लगभग चार किमी आगे भारत के अंतिम गांव माणा से ऊपर सतोपंथ झील एवं स्वर्गरोहिणी (17000 फीट) के यात्रा/ ट्रैकिंग की योजना तैयार कर सभी जरूरी सामान पैक करके 06 सितम्बर, 2020 को प्रातः 50:00 बजे देहरादून से दो वाहनों में 12 साथियों के साथ यात्रा प्रारंभ की और लगभग • 300 किमी का पहाड़ी सफर तय करके लगभग 80:00 बजे शाम को पहुंचे जोशीमठ पहुंचे। 07 सितम्बर को जोशीमठ से लगभग 85 किमी दूरी पर स्थित नीति गांव (यह भी भारत का अंतिम गांव) के भ्रमण पर निकले। यहां से कुछ दूरी तय करके द्रोणागिरी पहुंचे। यहाँ हनुमान जी की पूजा नहीं की जाती है, क्योंकि माना यहीं जाता है कि इसी •स्थान से हनुमान जी संजीवन बूटी सहित पर्वत उठाकर लंका ले गये थे, किन्तु वापस नहीं लाये। आज भी यहाँ इसके अवशेष दिखाई देते है।
इसके बाद मनोरम नीति घाटी से होते हुये भारत चीन सीमा से सटे देश के अंतिम गांव नीति पहुँचे। इसके नजदीक टिम्मरसैंण नामक पहाड़ी पर स्थित गुफा में भी अमरनाथ की तरह बर्फ का शिवलिंग आकार लेता है, जिसकी ऊंचाई आठ फीट तक होती है, लेकिन देश के अन्य हिस्सों के लोग इस स्थल से अनभिज्ञ ही थे। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के कारण इसे ‘इनर लाइन के दायरे में रखा गया था, दूसरे क्षेत्रों के व्यक्तियों को यहां आने की इजाजत नहीं थी। केंद्र सरकार ने पिछले वर्ष टिम्मरसैंण महादेव को इनर लाइन से बाहर कर दिया था यानी अब कोई भी व्यक्ति बाबा बर्फानी के दर्शनार्थ आ सकता है। चूंकि सतोपंथ झील एवं स्वर्गरोहिणी की हमारी यात्रा अत्यधिक कठिन होनी थी, इसलिये अपने शरीर की क्षमता परखने के लिये 700 मीटर के खड़े ट्रैक कर टिम्मरसैंण महादेव के दर्शन करके दोपहर 10:00 बजे श्री बद्रीनाथ को निकल गये, क्योंकि हमें बताया गया कि बद्रीनाथ के रास्ते में पड़ने वाले ‘लामबगढ़ क्षेत्र (अत्यधिक भूस्खलित क्षेत्र) को शाम 40:00 बजे से पहले पार करना होगा, अन्यथा आगे नहीं जाने दिया जायेगा। लगभग शाम 60:00 बजे श्री बद्रीनाथ पहुंचे। सामान्य दिनों में यहाँ पैर रखने की जगह नहीं होती है, किन्तु कोविड के कारण यात्रा बंद होने के चलते यहाँ सन्नाटा पसरा था।
सुबह श्री बद्रीनाथ जी के दर्शन करने के बाद अपनी गाड़ियों से माणा गांव के लिये निकले। माणा गांव के सामने आईटीबीपी के कैंप के पास अपने वाहनों को छोड़ दिया। हमारा कुल 24 सदस्यों का दल था, जिसमें 12 पोर्टर और गाईड थें। हमने अपना भारी सामान पोर्टर्स को दिया और कुछ जरूरी सामान (पानी, छाता, बरसाती, टॉर्च, जरूरी दवाईयां, मेवा आदि) का बैग अपने साथ ले लिया। यहां पर हमें ट्रैक के बारे में कुछ जरूरी जानकारियां दी गयी। ट्रैक में लगातार ऊंचाई में वृद्धि होगी। पहले दिन लगभग 08 किमी का ट्रेक ‘लक्ष्मीवन’ (जहां प्रथम रात्रि प्रवास निर्धारित था) के बाद ग्लेशियरों के ऊपर चलना था। अगला पड़ाव लगभग 09 किमी आगे चक्रतीर्थ था और आगे की यात्रा के लिये यही बेस कैम्प था अर्थात इससे आगे लगभग 05 किमी सतोपंथ झील तथा उससे आगे लगभग 04 किमी स्वर्गरोहणी की यात्रा कर वापस यही चक्रतीर्थ लोटना था।
पहले दिन हम माणा गांव से लक्ष्मीवन के लिये निकले। रास्ते के लिये लंच के टिफिन (जिसमें खाने के नाम पर थोड़ा सा पुलाव था) हमें दे दिये गये। सामान्यतः हाई एल्टीट्यूड पर भूख भी नही लगती है। पहले दिन ज्यादा कठिन ट्रेक नहीं था और लगभग 11800 फीट ऊंचाई तक जाना था। धीरे-धीरे हमने पहाड़ के कगार से चढ़ना शुरू किया। प्रारम्भ में माणा गांव के समीप द्रोपदी का मंदिर दिखता है, कहा जाता है कि यही पर द्रोपदी’ की मृत्यु हुयी थी। सामने भयानक गरजती अलकनंदा नदी के दूसरी तरफ वसुंधरा जल प्रपात दिखता है, जिसके बारे में एक दिलचस्प कथा है कि किसी भी दोषी या पापी के सिर पर वसुंधरा का पानी नहीं गिरता है। ऐसे ही धीरे-धीरे चलते हुये लगभग दोपहर 30:00 बजे हम लक्ष्मीवन पहुंचे। यहां पर भोजपत्रों का छोटा सा वन है। प्राचीन काल में इन भोज पत्र पर ही कई ग्रन्थ लिखे गए थे। माना जाता है कि पांडवों की यात्रा के दौरान नकुल’ की मृत्यु लक्ष्मी वन में ही हुई थी। यही पर चमत्कारी ढ़ग से एक कुत्ते का साथ मिला, जो पूरी यात्रा के दौरान हमारे साथ रहा। आज हमारा प्रथम रात्रि प्रवास यही था। पोर्टरों ने हमारे टेंट लगा दिये थे और खाना बनाने की तैयारियां चल रही थी। चार बजे जैसे ही धूप पहाड़ों के पीछे छुपी सर्द ठंडी हवाओं के असहनीय थपेड़े से लगने लगे। रात के समय अक्सर इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की ज्यादा कमी होती है, जिससे उस दिन कई साथियों के सिर में दर्द रहा एवं सोने में दिक्कत हुयी, स्लीपिंग बैग में सोना भी एक कारण रहा होगा, क्योकि स्लीपिंग बैग में सोने की आदत भी नहीं थी ।
सुबह तड़के हम सभी उठ गये। यहां पर हमारे शरीर के ऑक्सीजन लेवल चैक करने पर अधिकांश लोगो का चव् का स्तर 75 से 85 के मध्य पाया गया, फलस्वरुप कुछ लोगो द्वारा ऑक्सीजन लेवल मैन्टेन करने वाली टेबलेट भी ली। 07 बजे तक हम आगे के कठिन सफर के लिये तैयार हो गये थे। यहां से अगला पड़ाव 09 किमी आगे चक्रतीर्थ था। यहां हमें लगभग 13000 फीट की ऊंचाई पर पहुंचना था। सफर के शुरुआती चरण में ही हमें खड़े पत्थरों पर बहुत कठिन चढ़ाई चढ़नी पड़ी। ऑक्सीजन का स्तर कम था, लिहाजा बेहद छोटे छोट कदम-लंबी लंबी सांस के साथ आगे बढ़ रहे थे। अब हमें ग्लेशियरों के ऊपर कठिन सफर कर पत्थरों का एक व्यवस्थित ढेर आपके रास्ते का मार्गदशन करता है।
अगर पहले कोई दल आगे गया होता, तो वो पीछे आने वाले दल के लिये पत्थरों का एक ढेर चिन्ह के रूप में रख देता है, जिससे पीछे वाला रास्ता न भटकें, लेकिन इस बार हमारा दल ही इस ट्रैक पर पहले रवाना हुआ था, इसलिये पिछले साल जो पत्थर ग्लेशियरों पर रखे गये थे, वे अधिकांश जगहों से गायब हो गये थे, जिससे एक बार हम रास्ता भी भटक गये थे।
प्रारम्भ के 05 किमी के अत्यधिक कठिन सफर के बाद हम ‘सहस्त्रधारा’ पहुंचे, जहाँ एक बिशालकाय एवं लंबी चट्टान से गिरती हुयी सैकड़ों धारायें और आसपास के नजारे सचमुच मन को छू लेता है। पांडवों के एक और भाई सहदेव’ की मृत्यु यहाँ हुई थी। अगर मैप में देखें तो इस वक्त केदारनाथ के पीछे वाली पहाड़ी पर होंगे। यहाँ कुछ देर आराम किया और फिर आगे बढ़ते गये। मंजिल दूर दूर तक नजर नहीं आ रही थी और थकान के कारण शरीर ने भी लगभग चलने से मना कर दिया था, फिर भी अनमने मन से जैसे तैसे धीरे-धीरे चलते हुये तकरीबन 04 बजे हम चक्रतीर्थ’ पहुंचे। माना जाता है कि पांडू पुत्र अर्जुन’ की मृत्यु यही हुई थी मैदानों में 09 किमी का पैदल सफर इतना कठिन नहीं होता, किन्तु हाई एल्टीट्यूड में कठिन चढ़ाई और कम ऑक्सीजन के साथ जब पीठ पर वजन भी लदा हो तो हालात कुछ अलग हो जाते हैं। चक्रतीर्थ की वह रात बहुत सर्द थी एवं बर्फीली हवायें चल रही थी। आज थकान भी बहुत थी, इसलिये शायं 06:00 बजे के करीब हम लोग खाना खाकर अपने टंटो के अंदर सोने के लिये घुस गये थे। रात्रि दस बजे के करीब बाथरूम के लिये टेंट से बाहर आया ही था कि एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला। बेहद चमकदार, बड़े-बड़े टिमटिमाते तारों से लकदक भरा आसमान और घनघोर रोशनी फेकता हुआ चाँद इतने करीब लग रहे थे, जैसे इनको उछलकर पकड़ा जा सकता हों। इनकी रोशनी में चारों तरफ स्थित चट्टानों के शीर्ष भाग की आकृति जानवरों के मुख जैसी प्रतीत हो रही थी। असहनीय ठंड होने के बावजूद यह दृश्य देखने के लिये मैं थोड़ी देर के लिये बाहर ही खड़ा रहा।
चक्रतीर्थ से सतोपंथ पांच किमी का अति दुर्गम टेक है, जिसमें पहले दो किमी बिल्कुल खड़ी चढ़ाई है और उसके बाद सीधे नीचे ग्लेशियर के ऊपर नुकीले पत्थरें पर चलना था। सुबह नाश्ता करने के बाद एक-दूसरे को सहारा देते हुये हम धीरे-धीरे पहले ऊपर चढ़े और फिर नीचे उतरे फिर आगे बढ़ते गये। दोपहर एक बजे हम सतोपंथ झील पहुंच गये। बर्फ से निकले पानी से बनी लगभग तिकोनी झील का पानी बेहद ठंडा था। माना जाता है कि एकादशी के दिन इस झील में ब्रहमा-विष्णु-महेश स्नान करने के लिये आते है। यह भीम’ ने अपनी अंतिम सासें ली थी। ना-नुकुर करते हुये हम लोगों ने झील में डुबकी लगा ली। तरोताजा होकर बाहर निकले तो अगले पड़ाव अर्थात स्वर्गरोहणी ग्लेशियर की और बढ़ गये, इसके लिये चार किलोमीटर पहाड़ के कगार से होते हुये कठिन चढ़ाई तय करनी थी। स्वर्गरोहणी हमारे सामने ही दिख रहा था। इस ग्लेशियर के सीढ़ीनुमा आकार को ही स्वर्ग की सात सीढ़िया माना जाता है। हालांकि किसी भी समय यहाँ कोहरे और बर्फ के कारण तीन से ज्यादा सीढ़िया नहीं दिखती हैं। माना जाता है कि यही से युधिष्ठिर एक कुत्ते के साथ सीढ़ियाँ चढ़ते हुये पुष्पक विमान से स्वर्ग को गये। दो बजे के बाद इन इलाकों में अक्सर मौसम खराब होता है और 09 किमी चलकर वापस चक्रतीर्थ लौटना था, इसलिये हम तुरंत वापस हो लिये आक्र शाम तक चक्रतीर्थ लौट आये।
ट्रैक के चौथे दिन सुबह सात बजे हम चक्रतीर्थ से 18 किमी चलकर वापस माणा गांव की ओर चल दिये। लक्ष्मीवन के आसपास उसी कुत्ते ने हमारा साथ छोड़ दिया। दोपहर दो बजे तक माणा भी पहुंच गये, लेकिन इस दौरान हमारे पांव सूज गये और शरीर पर थकान पर दिखने लगी। सनबर्न के कारण हम लोगों की त्वचा भी झुलस गयी थी। अगले दिन प्रातः 8:00 बजे जोशीमठ से एक लंबा सफर तय कर हम लोग रात्रि 11:00 बजे के करीब देहरादून पहुंचे। इस प्रकार हमारे लिये यह यात्रा अत्यंत रोमांचकारी एवं अविस्मरणीय रही।