परमवीर कैप्टन गुरुबचन सिंह सालारिया!!
जब आप पंख खोलेंगे तभी तो आपको पता चलेगा कि आप कितनी ऊँचाई तक उड़ सकते हैं।
– नेपोलियन बोनापार्ट
ये शब्द भले ही नोपोलियन बोनापार्ट के हों परन्तु एक शेरदिल शांतिदूत शायद इन्हीं शब्दों को साकार करने के लिए माँ धन देवी की कोख से जन्म लेकर देश और माता-पिता का मान-सम्मान बढ़ाता है, शांति का प्रतीक बनता है। जिसका नाम था
–परमवीर कैप्टन गुरुबचन सिंह सालारिया।
माँ धनदेवी के पाँच सितारों में से दूसरा ध्रुव तारा, वीर पिता मुंशी राम सैनी की शान, वो 29 नवंबर 1935 को खुशी की किलकारियों से गूँजता आँगन, वो अल्हड़ सा बचपन, वो शरारतें, नादानियाँ, अटखेलियों का समावेश, नन्हें फरिश्ते की मुस्कान पिता को भी अपनी ओर आकर्षित करने से नहीं चूकती थी।
वातावरण ऐसा मानो गाँव जनवल के घर आँगन में खुशियों की लड़ियों से सजी दीवाली मन गई हो। हर तरफ जगमग चेहरे और किलकारियों की आतिशी गूँज।
कहते जिसको आँचल वीरता का मिला हो, जो वीरता के आँचल तले पला-बढ़ा हो, जिसने खुद एक वीर की उँगलियाँ थामकर चलना सीखा हो, उसमें उस वीर के संयम, वीरता और चरित्र का प्रभाव आना स्वाभाविक है।
समय बीतता गया घुटनों से चलकर छोटी-सी जिंदगी पैरों पे खड़ी होने लगी, चलने की कोशिश करती, कभी घुटनों में छाले पड़ते, कभी ठोकर खाकर गिरती, कभी सँभलती। धीरे-धीरे जिंदगी शिक्षा के मुकाम पर आ ही गई और तरह-तरह के शरारती छात्रों के बीच एक संयमी बालक की स्कूली शिक्षा प्रारंभ हो गई । चूँकि संयम और धैर्य विरासत में गुरुवचन सिंह को पिता द्वारा मिले थे इसलिए जब स्कूली जीवन में एक भारी भरकम छात्र ने श्री गुरुवचन सिंह को तंग करने की कोशिश की, तब उन्होंने झगड़ा करने के बजाय उसे बॉक्सिंग की चुनौती दे डाली।
मुकाबला का समय पर तय हो गया। मुकाबले के दिन श्री सिंह के मित्रों को आभास हो रहा था कि श्री गुरबचन सिंह की हार, उस भारी भरकम पहलवान के समक्ष निश्चित है। लेकिन रिंग के अंदर जैसे ही श्री गुरबचन सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वी पर मुक्कों की झड़ी लगाई, वह तो रिंग में टिक ही नहीं सका और जीत गुरबचन सिंह की हुई।
जिस जनवल गाँव में इस होनहार वीर का जन्म हुआ था, वह स्थान वर्तमान में पाकिस्तान में है। विभाजन के दौरान श्री सिंह सालारिया का परिवार भारतीय पंजाब के गुरदासपुर जिले के जंगल गांव में बस गया। श्री सिंह सालरिया का दाखिला गाँव के ही स्कूल में कराया गया।
जीवन यौवन की ओर अग्रसर होता गया, सोच और मानसिक स्तर भी परिपक्व होता गया । चूँकि सिंह जी के पिता भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी के डोगरा स्क्वेड्रन, हडसन हाउस में सैनिक थे। श्री गुरबचन सिंह सालारिया पर अपने पिता के चरित्र व वीरता का काफी प्रभाव था। अतः उन्होंने भी सैनिक बनने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। इसी लगन के चलते श्री गुरबचन ने 1946 में बैंगलोर के किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज में प्रवेश लिया। किन्हीं कारणों से अगस्त 1947 में उनका स्थानांतरण उसी स्कूल की जालंधर शाखा में हो गया।
सेना में नियुक्ति
जब व्यक्ति एक बार अनुशासन करना सीख ले तो वह उस अनुशासन को जीवनभर निभाने की प्रयास करता है। इसी मेहनत और अनुशासन के दम पर वे सन 1953 में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में पहुँच गये और वहाँ से परीक्षा पास कर 9 जून 1957 को कारपोरल रैंक पर सेना में भर्ती हो गये।
यहाँ उन्होंने अपने स्कूली अनुशासन का क्रम जारी रखा जिससे उन्हें आत्मसम्मान के प्रति बेहद सचेत सैनिक समझा जाने लगा।
संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में
बात सन् 1960 की है जब कांगो गणराज्य बेल्जियम से स्वतंत्र हुआ था, उसी समय वहाँ की सेना में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई, इससे श्याम और श्वेत नागरिकों के मध्य हिंसा भड़क उठी। अधिक हिंसा को देखते हुए कांगो सरकार ने संयुक्त राष्ट्र (संरा) से संभव मदद की गुहार लगाई। शांति स्थापना के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 24 नवम्बर 1961 को एक प्रस्ताव पारित कर कांगो को पूर्ण सहायता उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। संरा ने भारत को भी अपनी शांति-सेना में शामिल किया। 1961 में ब्रिगेडियर के. ए. एस. राजा के नेतृत्व में भारत से लगभग 3,000 सैनिकों की (99वीं इन्फैन्ट्री ब्रिगेड) टुकड़ी को अफ्रीका भेजा गया। इस टुकड़ी में भारत के शूरवीर गुरुबचन सिंह सालारिया भी शामिल थे।
शांति दूत के अमरत्व का सफर
3/1 गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया को संयुक्त राष्ट्र के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विला में दायित्व सौंपा गया था। 24 नवम्बर 1961 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने यह प्रस्ताव पास किया था कि संयुक्त राष्ट्र की सेना कांगो के पक्ष में हस्तक्षेप करे और आवश्यकता पड़ने पर बल प्रयोग करके भी विदेशी व्यवसायियों पर अंकुश लगाए। संयुक्त राष्ट्र के इस निर्णय से शोम्बे के व्यापारी आदि भड़क उठे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का उपक्रम शुरु कर दिया। संयुक्त राष्ट्र के दो वरिष्ठ अधिकारी उनके केंद्र में आ गये। उन्हें पीटा गया। 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को भी उन्होंने पकड़ लिया था और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी थी।
इन विदेशी व्यापारियों का मंसूबा यह था कि वह एलिजाबेथ विला के मोड़ से आगे का सारा संवाद तंत्र तथा रास्ता काट देंगे और फिर संयुक्त राष्ट्र की सैन्य टुकड़ियों से निपटेंगे। 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के रास्ते इस तरह बाधित कर दिये गए थे कि संयुक्त राष्ट्र के सैन्य दलों का आगे जाना एकदम असम्भव हो गया था। क़रीब 9 बजे 3/1 गोरखा राइफल्स को यह आदेश दिये गए कि वह विमानतल के पास के एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर का रास्ता साफ करे। इस रास्ते पर विरोधियों के क़रीब डेढ़ सौ सशस्त्र पुलिस वाले रास्ते को रोकते हुए तैनात थे। योजना यह बनी कि 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कम्पनी आयरिश टैंक के दस्ते के साथ अवरोधकों पर हमला करेगी। इस कम्पनी की अगुवाई मेजर गोविन्द शर्मा कर रहे थे तथा कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया विमानतल की दिशा से धावा बोलेंगे ताकि विरोधियों को पीछे हटकर हमला करने का मौका न मिले। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की कम्पनी के कुछ जवान रिजर्व में तैयार रखे गये थे। गुरबचन सिंह सालारिया न इस कार्यवाही के लिए दोपहर का समय तय किया ताकि उन सशस्त्र विद्रोहियों को हमले की भनक भी न लगे। गोविन्द शर्मा तथा गुरबचन सिंह की उक्त योजना पर पूर्ण सहमति बन चुकी थी। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया एलिजाबेथ विला, गोल चक्कर पर निश्चित समय की प्रतीक्षा में मुस्तैदी से तैनात थे, जिनका एक मात्र लक्ष्य सशस्त्र विद्रोहियों की व्यूह रचना को तोड़ना था ताकि संयुक्त राष्ट्र संघ के सैनिक अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर कूच कर सकें। श्री सिंह ने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए निर्धारित समय पर दुश्मन की दो सशस्त्र कारों पर रॉकेट दाग कर उन्हें नष्ट कर दिया।
उसके बाद उन्होंने गंभीरता से विचार किया, शायद यही समय ठीक है जब वह सशस्त्र विद्रोहियों के सिपाहियों को तितर-बितर करने में कामयाब हो सकते हैं, यदि उन्होंने सटीक निर्णय लेने में अधिक विलम्ब किया तो विद्रोहियों को संगठित होने का अवसर मिल जाएगा। जो कि समस्त शांति सैनिकों के लिए घातक सिद्ध होगा। इसी सोच के चलते उन्होंने हमले का सटीक निर्णय लिया, तब उनके साथ मात्र सोलह सैनिक थे, जबकि सामने दुश्मन की तादाद सौ से अधिक। फिर भी उन्होंने अपने धैर्य, कुशल नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए किसी भी कीमत पर अपने वीरों का हौसला कम नहीं होने दिया। अचानक ही उनका गोरखा दल दुश्मन पर टूट पड़ा। आमने-सामने मुठभेड़ होने लगी और गोरखा पलटन की खुखरी ने अपना युद्ध पराक्रम दिखाना आरंभ कर दिया। जिसमें दुश्मन के चालीस जवान वहीं ढेर हो गए और उनके खेमे में खलबली मच गई। पर इस बीच श्री गुरबचन सिंह सालारिया को भी दो गोलियाँ लग गईं और वे वीरगति को प्राप्त होकर अमर हो गये ।
सम्मान परमवीर का जो चला था लेकर शांति मन में।
होकर गोली का शिकार, मानवता पर न्योछावर हो गया।’
वास्तव में हमने उस दिन उस एक शांति दूत को खो दिया जो कि शांति स्थापना मिशन में स्वयं ही हिंसा का शिकार हो गया था। सन् 1962 में श्री गुरबचन सिंह सालारिया को उनके अदम्य साहस और कुशल नेतृत्व के लिए मरणोपरांत परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। वह परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले एकमात्र संयुक्त राष्ट्र शांतिरक्षक हैं।
जय हिंद, जय भारत