गुमनाम नायक – महाराज मर्दन सिंह जी
भारत माता को अंग्रेजों की कैद से मुक्त कराने के लिए बहुत से सपूतों ने अपना योगदान दिया था। इसमें बुंदेलखंड का विशेष ऐतिहासिक योगदान रहा था। बुंदेलखंड की इस वीरभूमि में रानी दुर्गावती, लाल कुंवरी, महाराज छत्रसाल, रानी लक्ष्मीबाई, बखत वली जी,अमरचंदजी बांठिया, नारायण दास खरे जैसे अनमोल रत्न हुए, जिन्होंने मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों को निछावर कर दिया था। इन्हीं महान सपूतों में से एक थे महाराजा मर्दन सिंह जी।
मर्दन सिंह जी का जन्म बानपुर के महाराज मोद प्रहलाद जी के यहां हुआ था।
मर्दन सिंह बुद्धिमान, नीति कुशल एवं निर्भीक व्यक्तित्व के व्यक्ति थे। सन् १८४६ में दस्यु समस्या का अंत करने के पश्चात उन्हें मसौरा ग्राम एवं गणी की जागीर प्राप्त हुई थी। सन् १८५५ में सामर का महसूल बंद न करने पर अंग्रेजी सरकार से विद्रोह कर दिया फलस्वरूप उन्हें हार का सामना करना पड़ा। सन् १८५७ में चंदेरी दुर्ग पर आक्रमण कर पुनः विजयश्री प्राप्त की।
अपने शासनकाल में महाराजा को बागियों द्वारा जंगल में अंग्रेज नारियों को पकड़ कर घायल करने की सूचना मिली तो उन्होंने तुरंत सिपाहियों से उन नारियों को मुक्त करा कर, उनका उपचार कराया और उनके साथ मानवता का व्यवहार किया। लाहौर के असिस्टेंट कमिश्नर मिस्टर सी एच मार्शल ने आपको हाईली इंटेलीजेंट नेटिव जेंटलमैन कहा था।
बुंदेला वंश की अंतिम निशानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अति विश्वसनीय सहयोगी और उनके दाहिने हाथ थे राजा मर्दन सिंह बुंदेला।
भारतगढ़़ दुर्ग में रानी लक्ष्मीबाई के साथ उन्होंने अलग-अलग रियासतों के राजाओं के साथ बैठक कर मेरठ क्रांति की रूपरेखा बना कर अंग्रेजों से युद्ध लड़ने के अलग-अलग दल बनाएं, जिसमें चंदेरी रियासत के अंतिम राजा मर्दन सिंह दूसरे नंबर और तीसरे नंबर पर शाहगढ़ नरेश बखत वली सिंह नेतृत्व कर रहे थे।
इस प्रकार भारतगढ़ दुर्ग से बुंदेलखंड में क्रांति की ज्वाला की पहली मशाल यहीं से जलाई गई थी।
राजा मर्दन सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी नीतियों से उन्हें काफी परेशान किया था। उनकी सेना में सभी जातियों के लोग थे। उन्होंने सेनापति मन्नै मेहतर एवं प्रधान तोपची दलेल खां को बनाकर सांप्रदायिक भावना की मशाल को जलाए रखा।
सिंधिया द्वारा बुंदेला विद्रोहियों की मदद करने के कारण सन् १८४४ में लॉर्ड एलन बरो ने सिंधिया राज्य पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजी आक्रमण से बचने के लिए उन्होंने कुछ भूखंड अंग्रेजों को सौंप दिया जिसमें चंदेरी भी शामिल था। राजा ने इसका बदला १८५७ की क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर लिया। रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के बाद स्टुअर्ट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने २६ मई १८५८ को चंदेरी पर कब्जा कर लिया।
२८सितबंर १८५८ मुरार में अंग्रेजों ने मर्दन सिंह को बंदी बना कर लाहोर की जेल में भेज दिया। यहां पर अंग्रेजों ने कई बार उनसे अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने को कहा और ऐसा मानने पर राजपाठ वापस देने की पेशकश रखी लेकिन स्वाभिमानी राजा ने गुलामी स्वीकार न की।२१ वर्ष की कठोर यातनाएं सहते हुए स्वराज के इस महान योद्धा ने २२जुलाई १८७९ को अंतिम सांस ली। अंतिम समय पर राजा ने कहा कि..
हमें गर्व है क्रांतिकारी राजा मर्दन सिंह बुंदेला पर जिनके द्वारा दी गई कुर्बानी के कारण आज हम आजाद हैं। जिन शहीदों ने अपना सर्वस्व बलिदान दिया देश को स्वतंत्र कराने में, आज वो गुमनाम से हो गए। होना तो यह चाहिए था कि उनकी शौर्यगाथाओं को हम स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करते, उनकी चर्चाएं राष्ट्रीय स्तर पर होती। पर पीड़ा होती है कि ऐसा नहीं हुआ!
आज भी बहुत से नायक गुमनामी के पन्नों और अध्यायों में समाए हुए हैं।
कैफे सोशल महान वीर, अभिमानी राजा मर्दन सिंह की शौर्यगाथाओं को याद करते हुए उन्हें शत् शत् नमन करता है।
… संजीव जैन