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क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कहोगे?

जुम्मन शेख और अलगू चौधरी बहुत अच्छे दोस्त थे और उनकी दोस्ती जग प्रसिद्ध थी।

जुम्मन शेख ने अपनी बूढ़ी खाला (मौसी) को बहला फुसला कर उनकी जमीन जायदाद अपने नाम लिखवा ली। जब तक दान पत्र की लिखा पढ़ी (registry) नही हुई तब तक बूढ़ी खाला का काफी सम्मान होता था लेकिन जैसे ही जायदाद जुम्मन शेख के नाम हो गई उन्होंने बूढ़ी खालाजान से नजरे फेर ली और उनकी बीबी उनको रोज जली कटी सुनाने लगी। रोज रोज की जली कटी से तंग आकर जब खाला ने जुम्मन से कहा कि मुझे थोड़े पैसे दे दिया करो में खुद अलग पका कर खा लूंगी! इस पर जब जुम्मन ने साफ मना कर दिया तो खालाजन ने पंचायत करने के धमकी दे डाली! इस पर जुम्मन ने हंस कर कहा जो करना है कर लो क्योंकि उनको भरोसा था की लोग उसके विरोध में नही बोलेंगे! खालाजान ने गांव में काफी लोगो का दरवाजा खटखटाया पर कही से उनको संतोषजनक उत्तर नही मिला। थकहार कर बेचारी बूढ़ी खाला अलगू चौधरी के घर गई और उसको पंचायत में आने को कहा। अलगू चौधरी ने जवाब दिया ” में पंचायत में आ तो जाऊंगा लेकिन मुंह नही खोलूंगा क्योंकि जुम्मन से मेरी पुरानी दोस्ती है और में उससे बिगाड़ नहीं कर सकता हूं” इस पर बूढ़ी खालाजान बोली ” बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कहोगे”

खालाजान तो चली गई लेकिन अलगू चौधरी काफी देर तक उनकी बात सोचता रहा।
उपरोक्त शब्द महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की कलजयी रचना ” पंच परमेश्वर” से लिए गए है। कहानी का अंत जानने के लिएं कृपया कर कहानी “पंच परमेश्वर” पढ़े जो शायद आपने बचपन में पढ़ी भी हो।
तो इस लेख का शीर्षक मेने बूढ़ी खालाजान के द्वारा बोले गए शब्द ” क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कहोगे” से लिया है और मुझे लगता है कि आज के वातावरण में ये कहानी और और खालाजान के शब्द दोनो ही अत्यंत प्रासंगिक हो गए है। क्योंकि आज के समाज को शायद खालाजान और अलगू चौधरी दोनो की ही काफी जरूरत है।
हमारा आज का समाज जिसमें शिक्षा का स्तर तथाकथित रूप से पहले से ज्यादा है और धन और संपदा के तो क्या कहने, वो तो कंचन (सोना) के रूप में बरस ही रही है लेकिन फिर भी क्या हमारे इस संपन्न समाज में खालाजान और अलगू चौधरी बचे है?

क्या आज के नेता, धनवान, बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रबुद्ध नागरिक, पद्मश्री से सम्मानित नागरिक, पूर्व नौकरशाह, वकील और अन्य प्रोफेशनल ईमान की बात कह रहे है? या उनको भी बिगाड़ का डर है?
एक ही घटना पर दो तरह की प्रतिक्रिया देने वाले लेखक, पत्रकार, पूर्व नौकरशाह और प्रबुद्ध नागरिकों के ईमान का क्या कहे। क्या वो बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कह रहे या फिर उन्होंने ईमान को गिरवी रख दिया है?
कुछ समय हमने सम्मान/ पुरस्कार वापसी प्रतिरोध (समारोह) देखा जो की कुछ घटनाओं के विरोध में था। इन विरोधो से मुझे कुछ आशा जागी लेकिन कुछ दिनों बाद मुझे निराशा हाथ लगी क्योंकि वैसी ही कुछ अन्य घटनाओं पर उन बुद्धिजीवी प्रबुद्ध नागरिकों ने अपना मुंह बंद रखा जैसे उन्हें किसी बिगाड़ का डर हो।
पत्रकारिता जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था उसके तो कहने क्या? पहले लगता था कि संपन्न पत्रकार निष्पक्ष होते होंगे फिर एक महान व्यक्ति का कथन याद आया जिसने कहा था ” निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकार की किस्मत में या तो फटे कपड़े और झोला लिखा होगा या फिर मौत”
क्या आपको बाबा राम रहीम का नाम पता है? पता ही होगा और क्यों ना हो, हमारे तथाकथित समाचार चैनल ( न्यूज चैनल) और आंग्ल और हिंदी भाषा के बड़े बड़े समाचार पत्रों ने बाबा राम रहीम के सम्मान में कितनी बड़ी बड़ी स्टोरी और विशेष अंक निकाले थे और उनकी सहयोगी मोहतरमा हनिप्रीत के तो क्या कहने जिनके रूप रंग में क्या क्या कसीदे नही पड़े गए इन न्यूज चैनल और समाचार पत्रों ने। पर क्या आपको स्वर्गीय श्री राम चंदेर छत्रपति जी का नाम याद है जिन्होंने बाबा रामरहीम के कारनामों को उजागर करने के लिए अपनी जान गंवा दी? मुझे पूरी आशा है कि आपको इनके बारे में पता नही होगा और इसमें गलती आपकी नही है क्योंकि तथाकथित निष्पक्ष समाचार पत्र और न्यूज चैनल बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कह सके। क्योंकि कह देते तो समाचार पत्रों का रंग और न्यूज चैनल के फिल्मी सेट से बड़े स्टूडियो कहां से बनते?

कुछ पत्रकारों के व्यवहार को देख कर तो ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने अगले सात जन्मों के ईमान को भी एडवांस में ही बेच दिया है वो अलग बात है कि यही पत्रकार जनता के सामने पुनर्जन्म की धारणा को झुठलाते है। क्यों? हा हा हा वही कमबख्त ईमान….? पता है ना आपको विदेशी समाचार पत्रों की चहेती पत्रकार जिन्होंने तथाकथित रूप से सिर्फ और सिर्फ १०-१२ करोड़ का गबन किया और उनके हिसाब से भारत अल्पसंख्यकों के लिए नर्क है और यहां उनको कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं है? या फिर वो पत्रकार जिनका काम प्राइम टाइम पर आ कर सिर्फ खून में उबाला लाना होता है। क्या इन पत्रकारों को नही पता कि सच क्या है और उनको सच ही लिखना और दिखाना चाहिए लेकिन अगर उन्होंने ऐसा करना शुरू कर दिया तो वह लाखों करोड़ों के विज्ञापन कहां से मिलेंगे, फिर उसके लिए भले हीं उनके ऊपर बिकाऊ पत्रकार का बिल्ला लग जाए परंतु वो सब बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कहते है।
एक और श्रेणी आती है वह है नेताओ की। जिस लोकतंत्र ने इन नेताओ को आम से खास बना दिया उनका चरित्र तो और भी महान है, ये लोग भारत के १३५ करोड़ लोगो की इतनी चिंता करते हैं कि पतलू से मोटू हो जाते है और अपने इसी फूली हुई नश्वर काया को दिखाने के लिए गाहे बजाए टीवी और समाचार पत्र के मुख्य पृष्ठ पर आ जाते है। ये इतनी चिंता करते है अपने नागरिकों की , थोड़ी सी निंदा होने पर उन नागरिकों को जेल में ठूंस देते हैं और इनके विरोधी नेता भी अपने मुंह में दही जमा कर बैठ जाते हैं क्योंकि इनको भी किसी से बिगाड़ नहीं करना है और ईमान की बात कहने में इनको हृदयघात (heart attack) होने की संभावना होती है। वैसे तो इस श्रेणी के प्राणी को बोलने में महारथ हासिल होती है लेकिन कुछ घटनाओं पर जन्मजात गूंगे व्यक्ति की तरह मौन साध लेते है फिर चाहे इनकी हल्की सी निंदा की वजह से भारत के जवान और बूढ़े नागरिक जेलों में पिसते रहे क्योंकि ये तो ईमान की बात कह ही नहीं सकते। क्यों? अरे ईमान होना भी तो चाहिए।

सोशल मीडिया का जमाना है तो छपने की चाहत तो सबको होती है तो फिर हमारे धर्माधिकारी पीछे क्यों रहे उनको भी तो लोकतंत्र के सेफ्टी वाल्व की चिंता करनी है और नागरिकों को बताना है कि जिस प्रकार कुकर में सेफ्टी वाल्व के होने से ज्यादा दबाव होने के बाद भी कुकर नही फटता है उसी प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी होने से लोकतंत्र का कुकर नही फटता है। और अभिव्यक्ति की आजादी को लेके इतने सतर्क है कि 10-12 करोड़ वाले घोटालेवाज इनको मासूम लगते है और कभी कभी तो अखबारों की खबर को जनहित याचिका समझकर सुनवाई करना शुरू कर देते हैं। इनकी ये पहल सराहनीय है लेकिन हाय रे भारत के लोकतंत्र की किस्मत, इनका ईमान भी कुछ खास कुकर के लिए ही जागता है नही तो ये भी बिगाड़ के डर से ईमान की बात को अपने न्याय की कुर्सी के नीचे दबा कर चेन से उस पर बैठ नही जाते है। क्योंकि हमारे महान धर्माधिकारियों को भी पता है अगर उन्होंने हर कुकर के सेफ्टी वाल्व की चिंता कर ली तो फिर उनकी महान छवि को अभिव्यक्ति-की-स्वतंत्रता वाले झंडावरदार ऐसी काली करेंगे कि कोई भी सर्फ एक्सेल उनके दागो को हटा नही पाएगा और इसलिए ये जमात बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कहते फिर चाहे भले ही भारत की जनता का इनके ऊपर से विश्वास उठ ही क्यों ना जाए।

ऐसा नहीं है कि उपरोक्त श्रेणी के लोग ही बिगाड़ से डर ईमान की बात नही कहते है। हम आम जनता भी इस मामले में इनसे पीछे नहीं है। इनका जिक्र तो मैंने इसलिए किया क्योंकि ये लोग खुश खास है।

क्या कहां में (चित्रगुप्त) भी ऐसा हूं क्या। हा हा हा, अरे भाई में भी तो इसी कड़ाही का दूध हूं अलग केसे हो सकता हूं।

इसलिए बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं

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