कैप्टन विजयंत थापर – वीरता और बलिदान की विरासत

एक नन्हा – सा बच्चा रास्ते से गुजर रहा था । रास्ते में उस बच्चे को एक ऐसी दीवार नजर आई जो सबसे अलग और ओजस्वी थी। वह उसे बड़े चाव से देखने लगा। उस बच्चे को उस घर की दीवार ने कहा – ‘‘तुम मुझे इतना गौर से क्यों देख रहे हो? बच्चे ने दीवार से कहा- ‘‘मैं यह देख रहा हूँ कि आखिर तुझमें ऐसा क्या है, जो तुम इतनी खास लग रही हो और गर्वीली भी।‘‘ दीवार मुस्कुराई और बोली – ‘‘दीवार तो हर घर की होती हैं परंतु उस घर की दीवार पर चार चाँद लग जाते हैं जब वह किसी सैनिक की हो। उसमें पलने वाले देशभक्ति की साँसे लेते हो। तो गिर – फिर बताओ मुझे गर्व क्यों नहीं होगा, आखिर मैं परमवीर चक्र विजेता श्री अरुण खेत्रपाल के घर की दीवार हूँ।‘‘ बच्चा क्या समझता था कि परमवीर चक्र क्या होता है पर उसे तो वह दीवारें खास लगीं, जो सबसे अलग थीं। तब बच्चे ने कहा -‘‘बस इतनी – सी बात, देख लेना एक दिन मेरे घर को भी सभी देखने आएंगे, और उस घर की दीवारों को भी उतना ही गर्व होगा जितना तुम्हें हैं।‘‘ यह कह कर वह बच्चा वहाँ से चला गया। वह बच्चा कोई और नहीं बल्कि कैप्टन विजयंत थापर ही थे, जो अपने परिवार के तीसरे सैनिक थे।
कहते हैं दीवारें कुछ बोलती नहीं पर जो बोल जाती हैं वो छाप बन जाती है। ऐसी ही छाप बनीं वो दीवार जो हमारे कारगिल महावीर चक्र विजेता कैप्टन विजयंत थापर ने अपने बचपन में देखी। देखने तो वो परमवीर चक्र विजेता श्री अरुण खेत्रपाल जी का घर गए परंतु बाहर से ही पुनःआ गए।
29 दिसंबर, 1976 को नांगल, पंजाब में जन्में विजयंत थापर बचपन से ही मेधावी और देशभक्ति की भावना से लबरेज थे। सैन्य परिवेश में पले बढ़े होने के कारण यह गुण तो उनमें लाजमी था। इनका घर का नाम रॉबिन था। सुंदर कद काठी, जोश जुनून और मन में हौसलों की उड़ान। कैप्टन विजयंत थापर सेवानिवृत्त कर्नल वी.एन. थापर और माता श्रीमती तृप्ता थापर के बेटे थे। माता – पिता की देश भक्ति भी इसी बात से स्पष्ट हो जाती हैं कि उन्होंने विजयंत का नाम, सेना के एक टैंक के नाम पर रखा गया था जिस टैंक का नाम विजयंत था। पिता सेना में थे इसलिए देश के लिए मर मिटने की भावना उनके मन में बचपन से ही थी। प्राणों की कभी परवाह न करने वाले कैप्टन विजयंत थापर ने अपने पत्र में कहा भी था कि – ‘‘यदि मुझे दूसरा जन्म मिलेगा तब भी मैं सैनिक ही बनाना चाहूंगा।‘‘|
कैप्टन विजयंत थापर ने अपनी आरंभिक शिक्षा के पश्चात् सेना में भरती होने के लिए रात – दिन पढ़ाई और अभ्यास किया। दिसंबर 1998 में भारतीय सैन्य अकादमी से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की और 12 राजपूताना राइफल्स में शामिल हुए। 25 मई, 1999 को उनकी यूनिट को द्रास में जाने और तोलोलिंग, टाइगर हिल और आसपास के इलाकों से पाकिस्तानी सेना के सैनिकों का मुकाबला करने का आदेश मिला।
कुपवाड़ा में एक जगह है काँडी, जहाँ एक स्कूल में भारतीय सैनिकों को रखा गया था। उसके सामने एक झोपड़ी में तीन साल की एक मुस्लिम लड़की खड़ी रहती थी, जिसका नाम रुखसाना था। विजयंत थापर ने उसके बारे में पूछताछ की तो पता चला कि चरमपंथियों ने मुख़बरी के शक में उसके सामने ही उसके पिता की हत्या कर दी गई थी। तब से दहशत में उस लड़की ने बोलना बंद कर दिया था।

सहृदय विजयंत जब भी वहां जाते उस बच्ची से जरूर मिलते। विजयंत थापर के अपने माता – पिता से भी पत्र में रुखसाना ने विषय में कहा कि- ‘‘यदि मैं रहूं या न रहूं आप उसे 50 रुपए महीना उसकी स्कूली शिक्षा हेतु भेजते रहिएगा।‘‘ उनके माता – पिता ने सदैव उनके कहे हुए शब्दों का सम्मान किया है।
जिस लड़ाई में कैप्टन विजयंत थापर ने भाग लिया, उसे ‘बैटल ऑफ नौल‘ कहा जाता है. उसे ‘थ्री पिंपल्स‘ की लड़ाई भी बोलते हैं। इस लड़ाई में कैप्टन विजयंत को पहला हमला करने की जिम्मेदारी दी गई। रात 8 बजे उन्हें हमला करना था. चाँदनी रात थी।सभी सैनिक हमला करने के लिए जमा हो रहे थे कि पाकिस्तानियों ने इन्हें देख लिया। भारतीय सैनिकों ने हमला करने के लिए करीब 100 तोपों का सहारा लिया। पाकिस्तानियों ने उसका उतना ही कड़ा जवाब दिया। पाकिस्तानियों का एक गोला विजयंत के सहायक या ‘बडी‘ जगवंत सिंह को लगा और वो वहीं शहीद हो गए। श्री जगवंत सिंह कैप्टन विजयंत थापर के बहुत करीबी थे। कैप्टन विजयंत पर उसका इतना बुरा असर पड़ा कि कुछ देर तक वो यूँ ही बैठे रहे और बड़ी मुश्किल से हिम्मत जुटाकर आगे की लड़ाई के लिए तैयार हुए।
फिर उन्होंने अपनी टुकड़ी के तितर-बितर हो चुके सैनिकों को इकट्ठा किया और उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गए। कर्नल रवींद्रनाथ ने तो ये समझा कि उनकी पूरी पलटन मारी गई है। उन्होंने उनकी जगह मेजर आचार्य और सुनायक को आगे बढ़ने का आदेश दिया।
कैप्टन विजयंत थापर और उनके बचे हुए साथी इस अफरातफरी में अपना रास्ता भूल बैठे। अगले चार घंटों तक कड़ाके की सर्दी में वो नौल की चोटी को ढ़ूंढने की कोशिश करते रहे। अपनी पीठ पर 20 किलो का वजन लादे विजयंत थापर और उनके साथी आखिरकार मेजर आचार्य की टुकड़ी से मिलने में सफल रहे।
वे तेजी से आगे बढ़े। जैसे ही ये सब ऊपर पहुंचे, इन्होंने अपने आपको एक बड़ी लड़ाई के बीचोबीच पाया। सूबेदार भूपेंदर सिंह लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे। कैप्टन विजयंत थापर ने उन्हें देखते ही पूछा, ‘आचार्य साहब कहाँ हैं?‘ श्री भूपेंदर सिंह ने तुरंत उसका जवाब नहीं दिया। वो युवा विजयंत को लड़ाई के बीच ऐसी ख़बर नहीं सुनाना चाहता था, जिससे उनको धक्का लगे. दस मिनट के बाद विजयंत के सब्र का बाँध टूट गया।‘
इस बार उन्होंने थोड़ी सख्ती से कहा ‘आचार्य साहब कहाँ हैं?‘ श्री भूपेंदर सिंह ने जवाब दिया, ‘साहब शहीद हो गए।‘‘ ये सुनते ही कैप्टन विजयंत थापर की आँखों में आँसू आ गए। तभी उनके एक और साथी नायक आनंद को भी गोली लग गई।
कैप्टन विजयंत थापर का गुस्सा अब तक सातवें आसमान पर था। हाथों में अपनी एके-47 लिए विजयंत थापर ने चलती गोलियों के बीच लाँस हवलदार तिलक सिंह की बगल में ‘पोजीशन‘ ली। थोड़ी ही देर में उन्होंने उस पाकिस्तानी चौकी पर कब्जा कर लिया।अब उनका ध्यान तीसरी चौकी पर था। वहाँ से उनके सैनिकों के ऊपर मशीन गन का जबरदस्त फायर आ रहा था।‘‘
वो उन्हें अपने ठिकानों से बाहर नहीं आने दे रहे थे।
अचानक कैप्टन विजयंत थापर चट्टान की ओट से बाहर निकले और एल.एम.जी. चला रहे पाकिस्तानी सैनिक को धराशाई कर दिया। लेकिन तभी एक दूसरे पाकिस्तानी सैनिक ने उन्हें अपना निशाना बनाया। तब तक उन्होंने नोल पर कब्जा कर लिया था। गोली लगने के बाद अपने प्राणों की आहुति देते हुए कैप्टन विजयंत थापर भारत भू पर यूँ गिरे जैसे कोई बच्चा माँ की गोद में सुकून की नींद सोता है।
28 जून, 1999 को अपनी टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए विजयंत थापर गोलीबारी में शहीद हो गए।
कैप्टन विजयंत थापर को इस वीरता के लिए मरणोपराँत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। ये पुरस्कार उनकी तरफ से उनकी दादी जी ने राष्ट्रपति श्री के.आर नारायणन से ग्रहण किया। उनके कहे शब्द सच हो गए कि – ‘‘एक दिन मेरे घर को दीवारों को भी इतना गर्व होगा कि लोग उन्हें देखकर सैल्यूट करेंगे।‘‘
किसे पता था कि मात्र 22 वर्ष की आयु में यह नौजवान शहीद हो जाएगा। जो उम्र अपने शौक, मौज मस्ती करने की होती हैं, उस उम्र में कैसे कैप्टन विजयंत थापर जैसे लोग सैनिक बनकर तिरंगे को अपना पिता और भारत को ही अपनी माता मान लेते हैं।
कैफे सोशल मैगजीन ऐसे शूरवीरों से प्रेरणा लेती हैं और उनको नमन करती है।
जय हिन्द, जय भारत

भीलवाड़ा, राजस्थान