पुरस्कृत कहानी – गूँज वासंती स्वरों की
इनबुक राजभाषा हिन्दी का सम्मान प्रतियोगिता २०२३ “प्रथम पुरस्कार” विजेता कहानी
जून का आखिरी हफ्ता,भीषण गर्मी और उमस के बाद अब तीन-चार दिनों से, मानसून अपनी दस्तक दे रहा था। शाम हो चली थी, तेज आंधी के बाद हुई बारिश भी थम गई तो मैंने आँगन बुहार कर एक कोने में सूखे पत्तों का ढेर कर दिया तभी मेरी निगाहें, घर के बाहर बनी क्यारी में लगी उस बेल पर गई, जिसमें गुलाबी रंग का बड़ा सा फूल खिलता था। साल डेढ़ साल पहले, खिलती-खिलखिलाती इस बेल को एक बछड़ा चर गया था।
लगभग एक-डेढ़ फीट का लचीला तना ही बचा था जो धीरे-धीरे सूखकर काला और कठोर हो गया था लेकिन आज भी इसकी जड़ें ज़मीन से जुड़ी था। मुझे कई बार इसे उखाड़ देने की सलाह मिलती रही थी लेकिन न जाने किस मोह-वश मै इसे उखाड़ नही पाई थी। आज इसी काले तने से एक लंबा-सा हरा-कच्च तना सिर उठाए खड़ा था और दो-तीन जगहों से पत्तियाँ फूट रही थीं। इसके ऊपरी सिरे पर छोटी-छोटी, मुस्कुराती, कोमल पत्तियों के बीच एक बेहद नन्ही-सी कली इठला रही थी। तभी मेरा ध्यान सामने वाले घर से आती आवाजों पर गया।
एक लंबे अंतराल के बाद आज उस घर से फिर आवाजें आ रही हैं…। सुनाई पड़ रहे है, उत्साह, उमंग और उल्लास भरे वासंती स्वर..। ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं हैं, आवाजों में व्यर्थ का शोर भी नहीं है, बस खुशी की किलक में तनिक ऊँची हो गई हैं। माता-पिता की तयशुदा योजना के अनुसार, घर के दो बच्चों के करियर की राह तय हो गई है तो सबका खुश होना स्वाभाविक है। वैसे तो यह हर दूसरे-तीसरे घर में होने वाली सहज घटना है लेकिन इस घर से आती ये आवाजें मुझे एक सुखद अहसास से सराबोर कर रही हैं। ऐसा लग रहा है जैसे दूर तक फैले रेगिस्तान में, झंझावात से टूटा पेड़ चाँदनी में नहा उठा है और उस पेड़ से फूटे अंकुर अब घना दरख़्त बनने की तैयारी में हैं। अपने घर बैठे-बैठे ही मैं उनकी खुशी में शामिल हो गई।
कुछ रिश्ते आवाजों के सहारे भी बन जाते हैं। हमारा ऐसा ही रिश्ता घर के सामने रह रहे परिवार से बन गया था, जब लगभग तीन-चार साल पहले हम इस कॉलोनी में रहने आए थे। नया घर होने से घर में कई तरह के काम लगे रहते, दिन भर व्यस्तता बनी रहती। घर से बाहर झाँकने की फुर्सत ही नहीं मिलती और इस नई जगह पर कोई अपने घर आता भी नहीं था…।
बस, ये आवाजें थी जो अपने-आप चली आती। इस घर की बनावट कुछ ऐसी थी कि मुझे अपने घर की खिड़की या आँगन से दिखाई तो कोई नहीं देता था लेकिन आवाजें बराबर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती। ये कानों के रास्ते मेरे पास आती तो कुछ देर मन में भी ठहर जाती। ये आवाजें वहाँ होने वाले कामों का अहसास भी कराती रहती और उस घर में रहने वालों की तासीर से भी मेरी पहचान कराती। इनसे उनकी दिनचर्या का अंदाजा होने लगा था, सुबह जागने से लेकर, रात सोने तक। बच्चों के स्कूल आने-जाने से लेकर घर के पुरुषों के दुकान जाने और लौटने तक। महिलाओं की बी.सी. हो या किसी का जन्मदिन, हर आयोजन का आभास हमें आवाजें ही कराती। मेरे परिवार को भी इन आवाजों का अहसास था। कभी किसी आवाज पर हमें कोफ़्त होती तो कभी हम मुस्कुरा पड़ते। घर में दिन भर अकेले रहने के कारण, उन आवाजों से मेरा जुड़ाव कहीं अधिक था।
मैं उस परिवार के खिलंदड़पन और जिंदादिली से परिचित भी होने लगी, कभी- कभार बातें हो भी हो जाती लेकिन हमारे बीच परिचय का बड़ा माध्यम वहाँ से आने वाली आवाजें ही थीं, मैं कुछ ही दिनों में जान गई थी कि, यह परिवार आपस में गहरे तक जुड़ा है, यहाँ माता-पिता समेत दो भाइयों का परिवार साथ रहता है और चार बच्चों समेत दस लोग रहते हैं। बच्चों के दादाजी इस परिवार के आधार स्तंभ हैं, पूरे परिवार और चारों बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर सजग और सतर्क भी हैं। बाहर से दो तरफ़, दो हिस्सों में बना दिखाई पड़ता है यह घर। घर के अंदर बीच की दीवार में एक बड़ा दरवाजा है जो इसे अंदर से एक बनाए हुए है, इस दरवाजे से पूरे दिन, इधर से उधर, उधर से इधर, आवा-जाही चलती रहती है।
इस घर के बाहरी हिस्से पर पुट्टी और व्हाइट सीमेंट का काम लगभग पूरा हो चला था और पूरा घर सफेदी से जगमगा रहा था। अंदर के कमरों में रंग-रोगन कराने को लेकर जब-तब सलाह, मशविरा चल पड़ता, बच्चे भी अपनी पसंद का रंग कराने पर अड़ जाते और खूब बवाल मचने पर भी कोई नतीजा नहीं निकलता तो उस घर को मनचाहा रंगने की हर सदस्य की आतुरता पर मैं मुस्कुरा पड़ती।
यही बवाल बच्चों के करियर को लेकर भी मचता। वहाँ से आती आवाजों से ही मैंने जाना था कि बड़े भाई के छोटे बेटे के लिए, इंदौर के नामी टेक्निकल कोचिंग इंस्टीट्यूट की और छोटे भाई की बड़ी बेटी के लिए, एक कॉमर्स इंस्टीट्यूट की फी़स भरी जा चुकी है, ताकि ये दोनों बच्चे टेंथ की परीक्षा के बाद से ही अपने करियर की डगर पर चल पड़ें लेकिन बच्चे इससे असहमत नज़र आते…। बीच-बीच में छोटे भाई के बेटे की आवाज उछलती कि मैं तो बड़ा होकर यह बनूँगा ..वह बनूँगा..। सब उसकी बात पर हँस पड़ते क्योंकि वह तो अभी सिक्स्थ क्लास में ही था।
कभी बड़ी बहू ऊँचे कंठ स्वर में महाराजिन से कहती सुनाई पड़ती- “सुनो, आज पिताजी की पसंद का खाना बनाना या आज कढ़ी में शक्कर मत डालना, देवरानी को पसंद नहीं है, कभी ससुर से मनुहार करती सुनाई पड़ती- “पिताजी एक आलूबड़ा और लो।” तो कभी सासू माँ को डोसा खिलाती सुनाई पड़ती। जब आवाजें मध्दम हो जाती तो हम समझ जाते कि आज पूरा परिवार उधर वाले हिस्से में जमा है।
मार्च का महीना शुरु हो गया था और उमंगों वाले फा़गुन की महक चारों ओर फैली हुई थी। उस दिन होली की पूर्णिमा थी। उस घर से देर रात तक आती आवाजों से मैंने जान लिया था कि,बड़े बच्चे का जन्मदिन मनाया जा रहा है। बीच-बीच में आती छोटे बच्चे की उल्लसित आवाज यह बता रही थी कि अगले महीने की इसी तारीख को उसका जन्मदिन भी आने वाला है। बीच-बीच में दोनों बहिनें भी हँसी-ठिठोली करती सुनाई दे रही थीं- “तेरा तो सबसे आखिर में है, बीच में हम दोनों का जन्मदिन भी तो है।” उस शाम मेरा परिचय उस पूरे परिवार से हुआ जब मैंने देखा कि, दोनों बेटे अपनी स्थूलकाय माँ को बच्चे की तरह कुर्सी पर बैठाकर, कुर्सी उठाकर, पास ही के मंदिर के सामने बनी होली तक ले गए, जबकि घर और दूकान के नौकर-चाकर आसपास खड़े थे।
पूजन के बाद पूरे परिवार ने वहाँ उपस्थित सभी कॉलोनी वालों को गुलाल लगाया और रंग-पंचमी पर सभी को भरपूर रंगने और मंदिर में मौज मस्ती से सराबोर होली मनाने का वादा भी लिया, परिवार का आपसी प्रेम और पड़ोसियों से अपनेपन और गर्मजोशी का व्यवहार मुझमें भी उत्साह से भर गया।
रंगों की बौछार से होली की लपटें शांत भी नहीं हुई थी कि खबरों का मौसम गरमाने लगा। पिछले एक बरस से, एक तीव्र संक्रमण वाले वाइरस ने सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। इस कोरोना महामारी की दूसरी लहर की गरम हवा अचानक ही मौत की लपटों में बदलने लगी। देश-विदेश से लेकर दूर के महानगरों से चली लपटों ने अब विकराल रूप ले लिया था और अब वे दबे पाँव आसपास के शहरो, गाँवों, मुहल्लों तक फैलने लगी थी और आहत कर देने वाली थी। हर दिन ढेरों लोग मर रहे थे।
सामने वाले घर से अब शोक-गीत सुनाई दे रहा था। अपने छोटे भाई को खो कर लौटी बड़ी बहू जब-तब शोक में डूब जाती, अपना मोबाइल लेकर पोर्च में आ बैठती और अपने बूढ़े पिता को दुख के आवेग से बाहर निकलने की कोशिश करती और खुद ही रो पड़ती।
कोरोना महामारी के कारण पास बैठकर सांत्वना व्यक्त नहीं की जा सकती थी, लिहाजा अपने घर के आँगन से बात करते हुए मैंने उसका फोन नंबर ले लिया। जब भी उसकी आवाज दुख के सागर में डूबने लगती, मैं उसे फोन पर ही सांत्वना दे देती।
अभी एक हफ्ता ही बीता था। चैत्रीय नवरात्रि शुरू होने वाली थी तथा गणगौर पर्व भी। हालाँकि उस घर से आती आवाजे अधिक उत्साही नहीं थी, लेकिन परिवार की मंगल कामना को लेकर श्रध्दा-भाव से भरी थी। कोरोना के चलते कन्या-पूजन के बदले ब्लाइंड स्कूल में डोनेट कर देने का मन बन रहा था। बड़े बेटे-बहू के ब्याह की वर्षगांठ मनाने का बड़ा कार्यक्रम अब स्थगित करके एक गौशाला में पैसा जमा करने का निर्णय भी ले लिया गया था। बीच-बीच में बेटियों की आवाजें सुनाई पड़ती, कुछ भी करो पर हमारा जन्मदिन तो जरूर मनाना, घर पर ही सही । छोटे बच्चे की आवाज इन सब पर भारी रहती और अपने बर्थडे के लिये कोई न कोई इवेंट प्लान करता सुनाई पड़ता।
मैं जब भी अपने घर के अगले कमरे में बैठती आवाजों के पुल से उस घर की हँसी-खुशी, सुख-दुख, नोंक- झोंक, मुझ तक पहुँचते रहते। मैं मुस्करा पड़ती और उस परिवार से जुड़ाव सा महसूस करती।
गुड़ी-पड़वाँ के दो दिन पहले की दोपहर को उस घर से आती आवाजों में भारी तब्दीली सुनाई पड़ी। हार,फूल, मिठाई, पूजन सामग्री को बजाय, मास्क, थर्मामीटर,आक्सीमीटर, डाक्टर, अस्पताल जैसे स्वर सुनाई पड़ रहे थे। फिर वही दृश्य था कुर्सी पर बैठाकर माँ को गाड़ी तक पहुँचाते दोनों बेटे, आसपास खड़े परिवारजन और घर और दूकान के नौकर चाकर…लेकिन इस बार दादी पूजा-स्थल तक नहीं बल्कि अस्पताल जा रही थी। दादी माँ को स्वस्थ होकर घर जल्दी लौट आने और नए वर्ष का पहला दिन साथ मनाने के लिए शुभकामनाएँ देती आवाजें सुनाई पड़ रही थी…।
वातावरण में तैरती ये आवाजें अभी थमी ही नहीं थी कि अगले दिन फिर अस्पताल जाने की अफ़रा-तफ़री भरी आवाजें सूनाई पड़ने लगी..। लगातार तीन दिनों तक परिवार के तीन सदस्य (दादी माँ और उनके दोनों बेटे) अस्पताल पहुँच चुके थे। गुड़ी पड़वाँ के दिन सुबह-सुबह देवी माँ की आराधना करती, घर के द्वार पर गुड़ी टाँगकर परिवार के स्वास्थ्य, सुख एवं समृद्धि के लिए असीस माँगती दोनों देवरानी-जेठानी के, अपेक्षाकृत धीमे और भीगे हुए स्वर मेरे मन को भी भिगो गए। दोनों एक ही दुख से दुखी थी, उन दोनों के पति और सासू माँ संक्रमित हो कर अस्पताल में थे।
पिछले एक हफ्ते में तेजी से हालात बदले थे। पिछले वर्ष की तरह लॉक डाउन की घोषणा तो नहीं हुई थी लेकिन तेजी से बढ़ते संक्रमण के कारण हुई मौतों के आंकड़ों ने बदहवासी फैला रखी थी। मास्क और सेनेटाइजर तो पिछले एक बरस से जीवन में जगह बना ही चुके थे, सोशल डिस्टेंस, होम आइसोलेशन जैसे शब्द कानों में रच-बस गए थे,खून में वैक्सीन दौड़ रही थी। अब ऑक्सीमीटर, रैमिडी सीवर, प्लाज्मा, पी.पी.ई.किट, कंटोनमेंट झोन, इम्यूनिटी, प्रिवेंशन जैसे शब्दों की गूंज थी। एम्बुलेंस और सरकारी गाड़ी के सायरनों की दहशत भरी आवाजें जब-तब गूँजने लगती और मन को भय से भर देती। और तो और फोन की घंटी भी मन में दहशत पैदा करती.. कहीं कोई अपना रोग-ग्रस्त तो नहीं हो गया.. कहीं किसी बीमार अपने की मौत की ख़बर तो नहीं… बीमारों के हालचाल पूछते दिल की धड़कनें बढ़ जाती। अस्पताल में भर्ती मरीज, घर के सदस्यों के अपनेपन को तरसते और घर बैठे सदस्य, मरीज की सेवा को तरसते। घर बैठे ही किसी अपने की मौत पर चुपके से आँसू बहा लिए जाते, अर्थी को कांधा मिलना भी संभव नहीं था। अस्पताल के कर्मचारी के साथ पी.पी.ई. किट पहने घर का कोई सदस्य अंतिम संस्कार कर आता। जहाँ अस्पताल खचाखच भरे थे वहीं श्मशान घाटों पर भी जगह नहीं बची थी …।
जीवन रक्षक ऑक्सीजन सिलेंडर की भारी कमी की निराशाजनक खबरें थीं तो कहीं नकल दवाओं के व्यापार के फलने-फूलने की दुष्ट खबरें भी सिर उठा रही थीं।
बच्चे, बूढ़े, जवान कोई भी इस संक्रमण से अछूता नहीं थे। परिवार के परिवार बीमार पड़ रहे थे, ऐसे में कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा दवाएँ, भोजन और रोजमर्रा की वस्तुएँ पहुँचाने की जिम्मेदारी भरी खबरें भी थी। बच्चे घरों में कैद होकर रह गए थे और साल भर से पढ़ाई भी ऑनलाइन ही हो रही थी।
कोरोना की पहली लहर में, लॉक-डाउन के चलते परिवार के साथ घर में मौज-मस्ती करते, तरह-तरह के खाना पकाते हुए, इंडोर गेम्स खेलते हुए, कुछ नये क्रिएशन के फोटोज़ ने सोशल मीडिया पर धूम मचा रखी थी, वहीं साल भर के अंदर ही दूसरी लहर के चलते सोशल मीडिया पर आसपास के शहरों से, समाज के परिजनों से, नाते-रिश्तेदारों से आती मौत एवं श्रद्धांजलि की खबरें दिल दहला रही थी।
इन खबरों में सामने वाली दादी माँ की मौत की खबर भी चुपके से शामिल हो गई तो मुझे किसी अपने को खोने का अहसास हुआ। दादी माँ का अंतिम संस्कार करके लौटे किशोरवय पोते की रुलाई की आवाज पर होम आइसोलेशन में उपचार करवा रहे दादाजी की जिम्मेदारी भरी आवाज सुनाई दे रही थी। अपनी पत्नी की मौत के दुख को पीकर वे पोते को समझा रहे थे और अस्पताल मे संघर्ष रत अपने बेटों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर और प्लाज्मा की व्यवस्था करने की बात कह रहे थे। इस आवाज का एक सिरा पत्नी को खोने के दुख में भीगा हुआ भी था।
एक दिन मौत, अगले दिन अस्थि विसर्जन, फिर मौत फिर अस्थि विसर्जन का सिलसिला इतना त्रासद रहा कि घर की दादी के बाद दोनों बेटों और बहुओं को भी समेट कर ले गया।
एक-डेढ़ हफ्ते में ही दस लोगों के इस परिवार में अब रह गए थे, बूढ़े दादाजी और चार बच्चे…। बीच की पीढ़ी का मजबूत स्तंभ अचानक ही एक हफ्ते के भीतर ढह गया था। बच्चों के जीवन से दादी के बाद अब मम्मी-पापा,काका-काकी, ताऊजी-ताईजी के रिश्ते भी छिन गए थे। हर एक सदस्य किसी न किसी स्तर पर संक्रमण की चपेट में था और होम आइसोलेशन में जीवन-संघर्ष से जूझ रहा था। घटते ऑक्सीजन लेवल के बावजूद दादाजी बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर सजग थे।
हर छोटी-बड़ी बात पर जिस घर में हल्ला मचता रहता था वहाँ कोई सिसकी नहीं फूटी थी, न रुलाई..न सांत्वना..न हमदर्दी..न शोक निवारण..न ही नाते-रिश्तेदार..न ही अड़ोसी-पड़ोसी…।
सफेदी की चादर में लिपटा वह घर आँसुओं के खारेपन में डूबा हुआ ऐसे गहरे सन्नाटे में था जो चीख एवं चीत्कार से भरा था, जिसमें विलाप और सांत्वना के स्वर भी समाहित थे और यह चुप्पी चारों ओर फैली थी। गहन निस्तब्धता ने मुझे भी घेर रखा था। कई बार हाथ का कौर हाथ में ही रह गया था जिसे मैंने थाली में रखकर थाली सरका दी थी।
अपनी खिड़की के पास बैठी, बेसब्री से झाँकती मैं सुनना चाहती थी उस बछड़े की आहट जो घर के बाहर बनी क्यारी में लगे पौधे चर जाता था और मैं जिसे भगाने की कोशिश में जी-जान से जुट जाती थी। मैं उस मारकुंडी (मारखनी) गाय की आवाज सुनना चाहती थी जो एक बड़ी हुंकार के साथ बाउंड्री वॉल पर रखी रोटी खाने के चक्कर में गमले गिरा जाती थी और मैं कुढ़कर रह जाती थी.. मैं सुनना चाहती थी वह आहट जब एक ढीठ कुत्ता गेट खड़खड़ा जाता था और मैं झल्ला पड़ती थी..। मैं उस धूसर टिटहरी की आवाज सुनना चाहती थी जो अपनी तीखी आवाज में देर तक चिल्लाती रहती थी और जिसकी कर्कश आवाज मुझे उबा देती थी…लेकिन कहीं पर भी कोई नहीं था…।
मौत के गीत गाते, गहन निस्तब्धता के वे दिन जैसे-तैसे बीत तो गए और जीवन की नश्वरता का पाठ पढ़ा गए।
सामने वाले परिवार से मेरा जुड़ाव बढ़ता जा रहा था। धीरे-धीरे यह परिवार मुस्कुराना सीख रहा था। मन में लहराते दुख के अथाह सागर को समेटे, सभी बच्चे अपनी पढ़ाई में लग गए। बूढ़े, कमजोर और दुख से लबरेज दादाजी को समय ने मजबूत बना दिया था, किसी सूखे पेड़ के तने की तरह।
आज अपनी क्यारी की उस जीवट बेल से फूटे अंकुर और उस घर से आते, खुशी भरे वासंती स्वर जैसे जीवन का एक नया संकेत दे रहे थे, एक नया अध्याय लिखने की तैयारी में थे। मुझे लगा कि केवल आम का बौराना, पीली सरसों का फूलना, धनिये का महकना, धरती का वासंती चूनर ओढ लेन ही बसंत नही। किसी ठूंठ से नये पत्त्तो का फूट पड़ना भी बसंत ही तो है….।
मेरे आसपास जैसे वासंती बयार थी और वासंती स्वर गूँज रहे थे…।
प्रेषक
मीनाक्षी दुबे
24, श्री कुंज, मैना श्री पार्क कॉलोनी
उज्जैन रोड, देवास
DEWAS (455001) मध्यप्रदेश
Mob. No. 9926028848
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