भारतीय संस्कृति और गौरव बोध: राष्ट्रभाषा हिंदी एवं भक्ति-आंदोलन के संदर्भ में
आज के वर्तमान समाज में हिन्दी को लेकर प्रायः यह भ्रम फैलाया जाता है कि वह अपनी स्थानीय बोलियों एंव उपबोलियों को डोमिनेट करती है जबकि आज की नई दुनिया में नये भारत की नई हिन्दी इस भ्रामक धारणा को तोड़ रही है। यह नई हिन्दी वैश्विक परिदृश्य पर जहाँ अपना डंका बजा रही है, वहाँ दूसरी तरफ अपनी स्थानीय बोलियों एवं उपबोलियों को भी साथ लेकर चल रही है। भले ही आज के दौर में अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में विश्व-भाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी हो, किन्तु आज के नये भारत में संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी का स्थान कोई अन्य भाषा नहीं ले सकती। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के पूर्व प्रोफेसर तथा अध्यक्ष एवं ‘हिन्दी बचाओं मंच’ के संयोजक डॉ० अमरनाथ के अनुसार अंग्रेजी ही ज्ञान की भाषा है- यह बहुत बड़ा झूठ है। यह गलत अफवाह फैलायी जाती है कि उच्च शिक्षा (ज्ञान-विज्ञान-तकनीक) की पढ़ाई हिन्दी में नहीं हो सकती। जब चीन की मंदारिन (चीनी) जैसी कठिन भाषा में ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीक की पढ़ाई हो सकती है तो हिन्दी में क्यों नहीं हो सकती? आज चीन जिस ऊँचाई पर पहुँचा है उसका सबसे प्रमुख कारण यही है कि उसने अपने देश में शिक्षा का माध्यम अपनी चीनी भाषा को बनाया।
इसी तरह अमेरिका, इग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि दुनिया के सभी विकसित देशों में वहाँ की अपनी भाषाओं क्रमशः अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी आदि में भी शिक्षा दी जाती है। हिन्दी विश्व की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर है। इसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि है जिसमें जो बोला जाता है वही लिखा जाता है। यह अत्यंत सहज और सरल भाषा है, किन्तु इसको माध्यम के रूप में न अपनाने के कारण देश की प्रतिभाओं का गला घोटा जाता है।1
भारत विविध भाषाओं का देश हैं और हिन्दी इस विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें कोई दोराय नहीं है। वैश्विक स्तर पर देखें तो अन्य यूरोपीय एवं एशियाई विद्यालयों विश्वविद्यालयों में हिन्दी-भाषा का अकादमिक स्तर पर पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन किया जाता है। अंग्रेजी साहित्य में हिन्दी अनुवाद की बहुत भारी माँग है। हिन्दी-अंग्रेजी भाषा को बार-बार एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जाता है किन्तु हिन्दी भाषा को किसी भी भाषा से न कभी प्रतिस्पर्धा थी, न रहेगी। वह अतुलनीय थी और रहेगी। इससे उसके महत्व और मूल्य पर कोई असर नहीं पड़ता है।
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना कोई अनुचित बात नहीं है किंतु अंग्रेजी ज्ञाता होने पर हिन्दी को कमतर कहना या इसके प्रति हीन-भावना महसूस करना और कराना कदापि उचित नहीं है किंतु दुःख की बात यह है कि अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना हमारे समाज में सुशिक्षित होने का पर्याय बनता जा रहा है। आश्चर्य तो तब होता है जब विदेशियों द्वारा टूटी-फूटी हिन्दी बोलने पर हम उन्हें सराहते हैं किन्तु टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाला हिन्दी-भाषी हँसी-मजाक का पात्र बनता है। गैंर हिन्दी भाषी को हिन्दी के लिए इतनी छूट और हिन्दी भाषी को अंग्रेजी के अल्प-ज्ञान के लिए निन्दा। हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तो भविष्य उज्ज्वल प्रतीत होता है किंतु विडम्बना यह है कि निःसंदेह अपनी ही भारतभूमि में यह सर्वाधिक उपेक्षित भी है।
भारतीय साहित्य में भक्ति-आंदोलन हिन्दी साहित्य के वास्तविक निर्माण को समझने की एक गहन दृष्टि देता है। इस आंदोलन को तत्कालीन जनपदीय मातृभाषाओं के सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रकाश में आने के आदोलन के रूप में भी देखा जाता है। गुजरात में नरसी मेहता, राजस्थान में मीराँबाई, उत्तर में कश्मीरी कवयित्री लल्लेश्वरी, असम में शंकरदेव, दक्षिण में अलवार (वैष्णव-भक्तों) और नयनार (शैव-भक्तों) आदि भक्तों ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं में अभिव्यक्ति के माध्यम से भक्ति-आंदोलन को मजबूती प्रदान की जिससे आज की नई हिन्दी प्रेरित एवं अनुप्राणित है।
भारतीय साहित्य में भक्ति आंदोलन का उदय भारतीय समाज की एक प्रमुख क्रांतिकारी घटना थी। यह आंदोलन अखिल भारतीय स्वरूप में एक धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक-आर्थिक परिघटना के रूप में प्रकाश में आया था। इस आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक भारतीय जनसमुदाय की एकता में संगठित है। यह व्यापक धरातल पर निम्नवर्गीय एवं निम्नजातीय समुदाय की मूलवर्ती प्रेरणाओं व गतिविधियों को शिद्दत से समाज में लाने का संघर्ष है। इस आंदोलन के भीतर पहली बार संपूर्ण भारतीय जनमानस में धर्म भावना का विषय बना आडंबरों का नहीं। इस आंदोलन में व्यापक स्तर पर निम्नवर्णों तथा वर्गों का सांस्कृतिक क्षेत्र में पहली बार नेतृत्व और पर्दापण हुआ।
भक्ति-आंदोलन के संबंध में सबसे पहले यह प्रश्न उठता है कि ‘आंदोलन’ जैसा अवधारणात्मक शब्द ‘भक्ति’ के साथ क्यों प्रक्षेपित किया गया है? क्योंकि, जिस समय यह सामाजिक-सांस्कृतिक परिघटना घट रही थी, उस समय कोई भी कवि इस शब्द से परिचित भी नहीं था। निश्चित रूप से यह आधुनिक शब्द है। इसका अर्थ यह तो नहीं है कि आधुनिक-काल के आलोचक भक्ति-साहित्य को एक उपनिवेशवाद-विरोधी मानसिकता से जोड़कर देख रहे हैं। यह प्रश्न विचारणीय होते हुए भी ऐतिहासिक संदर्भों में विवादास्पद हो सकता है।
डॉ० नामवर सिंह ने मौखिक रूप से इस आंदोलन को भक्ति के प्रवाह के रूप में घोषित किया है।2 इस आंदोलन में मुख्य रूप से हिन्दू-धर्म के भीतर पाखण्डों को दूर करने व बड़ी संख्या में हिन्दू धर्म की निम्न जातियों को पुनः हिन्दू-धर्म में शामिल करने की मुहिम चलायी जा रही थी।3 भक्ति-आंदोलन हिन्दी साहित्य के इतिहास में सबसे व्यापक, जीवन्त और प्रभावशाली आन्दोलन है।
मध्यकालीन भारतीय समाज एवं साहित्य में भक्ति-आंदोलन अपने मूल रूप में दो मुख्य सामंती तत्त्वों के विद्रोह स्वरूप खड़ा हुआ। पहला, जाति एवं वर्ण-व्यवस्था और दूसरा स्त्री-पराधीनता। आज के आधुनिक साहित्य में ये दोनों मूल तत्त्व हमें क्रमशः दलित एवं स्त्री-विमर्श के रूप में दिखलायी पड़ते हैं। तत्कालीन परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार सिर्फ अवधारणाएँ और पारिभाषिक शब्दावलियों में ही अंतर हुआ है। भक्ति-आंदोलन के भीतर हिन्दी साहित्य के इन दोनों आधुनिक-विमर्शो की पूर्वपीठिका को सरलता से समझा जा सकता है।
भक्ति-आंदोलन के अंतर्विरोधों के संदर्भ में गजानन माधव मुक्तिबोध का एक चर्चित लेख4 उल्लेखनीय है जिससे यह स्पष्ट होता है कि भक्ति-आंदोलन में अंतर्विरोध का बीज तब पड़ा जब प्रारंभ में कबीर के नेतृत्व में निर्गुण सन्तकाव्य में जिन धर्मशास्त्रों, वेदों तथा पुराणों की वर्णव्यवस्था तथा सामंतवादी व्यवस्था का व्यापक विद्रोह किया गया, उसी विद्रोह को सगुण भक्तिकाव्य में शांत और समन्वित करके सामंतवादी तत्त्वों की जड़ों को मजबूत किया गया है या कहीं भी इन्हें समाप्त करने की पुरजोर कोशिश भी नहीं की गयी है।
डॉ० शिवकुमार मिश्र ने भी भक्ति-आंदोलन के अंतर्विरोधों के संदर्भ में भक्ति-आंदोलन का संपूर्ण सच उद्घाटित करते हुए भक्ति-आंदोलन के सबसे बड़े विरोधाभास भक्ति एवं उपासना के क्षेत्र में समानता का ढोंग तथा जमीनी स्तर पर सामाजिक असमानता के व्यवहार को उजागर किया है। भक्ति-आंदोलन की विराट् चेतना के अंदर सामाजिक-समानता और जाति-व्यवस्था के विरोध का नारा भक्ति-आंदोलन की सामाजिक अन्तर्वस्तु और सामाजिक व धार्मिक विरोधाभास से टकराकर चकनाचूर हो जाता है।
इस संदर्भ में डॉ० मिश्र की निम्न टिप्पणी भी बहुत उपयुक्त प्रतीत होती है- ‘‘भक्ति-आंदोलन की मूलवर्ती प्रेरणा बिंदुओं या फिर वे जिन मूल जनवादी रूझानों से संबंधित मुद्दों को लेकर खड़ा हुआ था। वे सामाजिक धरातल पर पूरी तरह घटित नहीं हो पाएँ अपितु काल्पनिक व आध्यात्मिक समाधानों में ही गड्मड्ड हो गए।’’6 के० दामोदरन के अनुसार रामानुजाचार्य और रामानंद जैसे भक्ति-आन्दोलन के नेतृत्वकर्ताओं की भूमिका केवल सामंतीय परिधि के दायरे में ही रहकर भक्ति-सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने की है।7
आमतौर पर भक्ति-आंदोलन को एक महत्वपूर्ण सामाजिक- सांस्कृतिक-आर्थिक परिघटना के रूप में वर्णित किया जाता है। जहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक एकता, जाति एवं वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध एवं भक्ति की शास्त्रीय जड़ताओं के स्थान पर उसके सरलीकरण की प्रक्रिया आदि की दृष्टि से इस आंदोलन को महिमामंडित किया जाता है। वहाँ इसी साहित्य में निहित स्त्री संबंधी पारंपरिक दृष्टिकोणों को लेकर हिन्दी साहित्य एवं आलोचना में समग्रतापूर्वक कोई विश्लेषण विवेचन नहीं किया गया है। स्त्री-संबंधी पक्ष आते ही परिचय स्वरूप केवल इतना ही कहा जाता है कि भक्तिकालीन सन्त-काव्य में स्त्री-चित्रण दो रूपों में किया गया है- सती अथवा पतिव्रता-रूप की प्रशंसा तथा कामिनी-रूप की निंदा। सूफीकाव्य में स्त्री को दैवीय तथा अलौकिक रूप में प्रस्तुत किया गया है।
कृष्णकाव्य में बाल-मनोविज्ञान का चित्रण किया गया है तथा रामभक्तिकाव्य स्त्री के आदर्शवादी स्वरूप को गढ़ता है। भक्ति-आंदोलन में इसी मानसिकता के अनुसार तत्कालीन स्त्री का जीवन हर स्तर पर संचालित एवं पीड़ित है। भक्ति-आंदोलन में भक्ति का विषय एक बहाना मात्र है। इसके माध्यम से प्रत्येक संत, भक्त एवं सूफी का एक ही लक्ष्य है मनुष्यता और प्रेम की स्थापना, जिसे प्रतिष्ठित करने के लिए ही समस्त सामंत विरोधी मानसिकता और विद्रोही-चेतना का प्रतिकार किया गया है। कबीर के यहाँ फक्कड़ या अक्खड़ स्वर में, जायसी के यहाँ लोकसंस्कृति के स्वर में, सूरदास के यहाँ उन्मुक्त प्रेम के स्वर में, तुलसीदास के यहाँ समंवय की विराट चेष्टा के रूप में, मीरा के यहाँ विद्रोही स्वर में।
भक्ति-आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरूप इसे भारत की एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परिघटना बनाता है। भक्ति-आंदोलन के सूत्रों को कुछ आलोचक वेदों से जोड़ते हैं किन्तु यह पक्ष भक्ति-आंदोलन का अधूरा रूप ही प्रस्तुत करता है जबकि इन दोनों के मूल में ऐतिहासिक-सामाजिक कारण विद्यमान हैं। इसी के समानांतर प्रत्येक कवि में कभी वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था तो कभी स्त्री संबंधी पारंपरिक एवं अन्तर्विरोधी दृष्टिकोणों के चलते विरोधाभास भी दिखलायी देता है। दरअसल ये अंतर्विरोध ही भारतीय एवं हिन्दी साहित्य के भक्ति-आंदोलन को लोकप्रिय, चर्चित, जटिल एवं विवादास्पद बना देते हैं।
संदर्भ ग्रन्थ सूची-
- अपनी भाषा माध्यम से शिक्षा अभियान–I,hindibhacaomanch org.comin/- एक्सीस्ड, दिसम्बर ०१, २०१९
- नामवर सिंह (२०१७) दूसरी परंपरा की खोज (पृ० ३०) नई दिल्ली: राजमकल प्रकाशन
- KTS Sarao( 2012)Decline of Buddhism in India : A Fresh Perspective(Page56)New Delhi:Munshiram Manoharlal Publishers
- गोपेश्वर सिंह(२००७)भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार(संकलित) मध्ययुगीन भक्ति का एक पहलू-मुक्तिबोध(पृ० १६०)नई दिल्ली: भारतीय प्रकाशन संस्थान
- डॉ०शिवकुमारमिश्र(२०१२) भक्ति-आंदोलन और भक्तिकाव्य(पृ० १५२).इलाहाबाद:लोक भारती प्रकाशन
- यथावत् पृ० १५५
- यथावत् पृ० १६०
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