अंतिम साँस तक कश्मीर के लिए लड़ते रहे ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह
ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह जामवाल भारतीय सेना के द्वितीय सर्वोच्च सम्मान महावीर चक्र को पाने वाले प्रथम व्यक्ति थे। वे जम्मू-कश्मीर राज्य-सैन्य बल के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ थे। मात्र 200 लोगों की टुकड़ी लेकर उन्होंने हज़ारों की संख्या में झुण्ड-पर-झुण्ड आ रहे पाकिस्तानी कबायली आक्रान्ताओं को उड़ी के पास कई दिनों तक रोक दिया। इस दौरान जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने भारत सरकार को अपना राज्य सौंप दिया और भारतीय सेना हवाई जहाज़ों से दुर्गम युद्धभूमि तक पहुँच गई और अंततः जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया।
आरंभिक जीवन और कैरियर :
राजेन्द्र जी का जन्म सांबा जिले के बगूना गाँव में 14 जून 1899 को एक सैन्य डोगरा परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज जनरल बाज सिंह ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा गुलाब सिंह के मातहत कार्य किया था। उनके दादा हमीर सिंह और पिता सूबेदार लाखा सिंह, दोनों वरिष्ठ सैनिक रह चुके थे। राजेन्द्र जी का पालन-पोषण उनके एक चाचा कर्नल गोविन्द सिंह ने किया था। 14 जून 1921 को द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य-सैन्य-बल में कमीशन किया गया। इसके बाद 25 सितम्बर 1947 को उन्होंने मेजर जनरल एच. एल. स्कॉट से जम्मू-कश्मीर राज्य-सैन्य-बल के चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ पद का प्रभार ग्रहण किया।
पाकिस्तानी आक्रांताओं की घुसपैठ और अंतिम गोली तक लड़ने का ब्रिगेडियर का संकल्प
आज़ादी मिलने और विभाजन के तुरंत बाद ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण और श्रीनगर पर कब्ज़े की योजना बनाने लगा था। 21-22 अक्तूबर 1947 की दरमियानी रात मुज़फ्फ़राबाद के निकट पाकिस्तानी सैनिक और कबायली इकट्ठे होने लगे थे और महाराजा हरि सिंह के सैन्य बल के उस कस्बे में मौजूद चौथी-पांचवीं बटालियन के मुस्लिम सैनिकों को उकसाने में कामयाब हो गए थे। इन मुस्लिम सैनिकों ने विद्रोह कर वज़ीर-ए वज़ारत दुनी चंद मेहता और कर्नल नारायण सिंह तथा उस बेस पर मौजूद अन्य डोगरा सैनिकों को मार डाला। इससे श्रीनगर तक जाने वाला 180 किलोमीटर का मार्ग पूरी तरह निष्कवच और अरक्षित हो गया, तथापि आक्रांताओं ने पहले श्रीनगर जाने की बजाय मुज़फ्फ़राबाद पर कब्जा करने को प्राथमिकता दी। अगले दिन जब राजा हरि सिंह को यह ख़बर मिली तो ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को आनन-फानन में बुलाकर उन्होंने यह आदेश दिया कि जब तक भारतीय सेना नहीं आ जाती, तब तक अंतिम गोली और अंतिम आदमी के बचे रहने तक लड़ो और राज्य की रक्षा करो।
आधुनिक औजारों से लैस भारी संख्याबल वाले आक्रांताओं के विरुद्ध ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह बादामी बाग़ और आसपास की छावनियों से लगभग 200 की टुकड़ी लेकर निजी वाहनों और अत्यंत पुराने शस्त्रों के साथ श्रीनगर से उड़ी की ओर रवाना हुए। लगभग 8 घंटे की यात्रा के बाद वे युद्धस्थल पर पहुँचे और गढ़ी से आक्रांताओं को खदेड़ दिया। अगले दिन राजा हरि सिंह ने आदेश भिजवाया कि किसी भी कीमत पर उड़ी से आगे दुश्मन को नहीं जाने देना है और अंतिम आदमी के जीवित रहने तक युद्ध करते रहना है। यह भी कि कैप्टन ज्वाला सिंह कुमुक लेकर पहुँच रहे हैं। उस रात ज्वाला सिंह एक छोटी टुकड़ी लेकर कुछ बन्दूक, एम्.एम्.जी. और मोर्टार लेकर पहुँचे। अगले दिन ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने आक्रांताओं को रोकने के लिए उड़ी पुल को उड़ाने का आदेश दिया। अगले दिन महुरा के पास उन्होंने कुछ और नदी-पुलों को ध्वस्त करने का आदेश दिया, लेकिन कुछ आक्रान्ता पहले ही पुल पार कर चुके थे। रणनीतिक रूप से अपनी सेना को पीछे हटाते हुए बोनियार के पास रक्षा कवच बनाया गया।
मातृभूमि के लिए प्राणों की बाज़ी:
घुसपैठियों द्वारा निरंतर हो रहे एक के बाद एक आक्रमणों को सफलतापूर्वक ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में विफल किया जाता रहा। दीवान मंदिर के पास राजेन्द्र सिंह के सैन्य वाहनों पर भीषण हमला हुआ, जिसमें उनका चालक शहीद हो गया और वहां से स्वयं वाहन चलाते हुए वे लक्ष्य की तरफ़ बढ़े लेकिन उन पर भी प्राणघातक हमला हो गया। उन्होंने अपनी टुकड़ी को योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने का निर्देश दिया उन्हें जब सिपाहियों ने उठाने का प्रयास किया तो वह नहीं माने और उन्होंने कहा कि वह उन्हें पुलिया के नीचे आड़ में लिटाएं और वह वहीं से दुश्मन को राकेंगे। 27 अक्टूबर सन 1947 की दोपहर को सेरी पुल के पास ही उन्होंने दुश्मन से लड़ते हुए वीरगति पाई।
अलबत्ता, 26 अक्तूबर सन् 1947 की शाम को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर समझौता हो चुका था और 27 अक्टूबर को जब राजेंद्र सिंह मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदान हुए तो उस समय कर्नल रंजीत राय भारतीय फौज का नेतृत्व करते हुए श्रीनगर एयरपोर्ट पर पहुंच चुके थे। इसके कुछ समय बाद बहुत थोड़ी संख्या में बचे हुए लगभग सभी सैनिक शहीद हो गए। 4 दिन तक उन्होंने घुसपैठियों को रोककर रखा और भारतीय सेना के वहाँ आ जाने के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध कराया। कश्मीर की सुरम्य वादियाँ आज भारत की शान हैं तो सिर्फ़ राजा हरि सिंह की सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह और उन जैसे तमाम जाँबाज सिपाहियों की बदौलत, जिन्होंने भारत-भूमि की रक्षा में सन्नद्ध रहते हुए सहर्ष अपने प्राणों के आहुति दे दी।
भारत का पहला महावीर चक्र :
30 दिसम्बर 1949 को युद्धभूमि में अदम्य साहस और अतुलनीय वीरता के प्रदर्शन के लिए ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को मरणोपरांत भारत के प्रथम महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर उनकी पत्नी राम देई ने तत्कालीन सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल के. एम्. करियप्पा से यह पुरस्कार प्राप्त किया। पुरस्कार के उद्धरण में ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह और उनके साथियों के साहस और शौर्य को अंकित करते हुए लिखा गया – “550 मील लम्बी सीमा पर बिखरे रूप में तैनात जम्मू-कश्मीर राज्य-सैन्य बल के जवानों ने, जिनके पास सीमित और पुराने अस्त्र-शस्त्र थे और जिनके पास सड़क-संचार के भी साधन नहीं थे, अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए दृढ़तापूर्वक विशिष्ट शौर्य का प्रदर्शन किया…पूरे राज्य का और घाटी का भाग्य अनिश्चय की स्थिति में एक क्षीण धागे पर टिका हुआ था…ज़मीन के हर इंच के लिए लड़ते हुए उन्होंने शत्रुओं को दो महत्त्वपूर्ण दिनों तक आगे बढ़ने से रोक दिया, जिस दौरान अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गए। भारतीय सेना ने युद्ध में हिस्सा लिया और इस प्रकार ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने भारत के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य को महफ़ूज़ कर लिया। ”
यादों की विरासत
वी.पी. मेनन ने ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को महान ग्रीक योद्धा लियोनाइडस के रूप में याद किया है, जिसने मात्र 300 योद्धाओं को साथ लेकर साथ भारी संख्या में आये फ़ारसी आक्रान्ताओं को थर्मोपली में रोक दिया था। राजेन्द्र सिंह के बगूना गाँव को अब राजेन्द्रपुरा के रूप में जाना जाता है। इसी प्रकार उनके सम्मान में ‘राजेन्द्र सिंह मेमोरियल पार्क’, ‘ब्रिगेडियर राजेन्द्र चौक’, ‘ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह स्कूल’ और ‘राजेन्द्र सिंह बाज़ार’ आदि तमाम सार्वजनिक स्थानों का भी नामकरण किया गया। स्थानीय लोग हर साल उनकी जयंती और पुण्यतिथि मनाते हुए उन्हें याद करते हैं। ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को परमवीर चक्र देने की माँग भी वर्षों से उठती रही है। 1999 के एक साक्षात्कार में तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने इस पर सहमति भी व्यक्त की थी।
हम सबका कर्त्तव्य है कि हमारे वीर शहीदों ने जिस भाव से मातृभूमि के लिए अपना बलिदान किया, उससे हम प्रेरणा लें, उन्हें यादों में सदैव जीवित रखें। कृतज्ञ राष्ट्र के नागरिकों को ज़िम्मेदारी देते हुए उन शहीदों का संदेश कैफ़ी आज़मी के इन शब्दों में सटीक ढंग से अभिव्यक्त होता है –
कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।
जय हिन्द!